Saturday, 20 April 2024  |   जनता जनार्दन को बुकमार्क बनाएं
आपका स्वागत [लॉग इन ] / [पंजीकरण]   
 

विप्र निरच्छर लोलुप कामीः वर्णाश्रम धर्म व्यवस्था का अवमूल्यित स्वरूप, विघटन

विप्र निरच्छर लोलुप कामीः वर्णाश्रम धर्म व्यवस्था का अवमूल्यित स्वरूप, विघटन कानपुरः 'हरि अनंत हरि कथा अनंता' की तर्ज पर प्रभु चरित का कोई आदि, अंत नहीं... त्रेता, द्वापर, सतयुग, कलयुग के कालचक्र में अध्यात्म के अनगिन पाठ के बीच प्रभु के कितने रंग, रूप, कितने अवतार, कितनी माया, कैसी-कैसी लीलाएं, और उन सबकी कोटि-कोटि व्याख्या.

गोसाईं जी का श्री रामचरित मानस हो या व्यास जी का महाभारत, कौन, किससे, कितना समुन्नत? सबपर मनीषियों की अपनी-अपनी दृष्टि, अपनी-अपनी टीका...

इसीलिए संत, महात्मन, महापुरूष ही नहीं आमजन भी इन कथाओं को काल-कालांतर से बहुविध प्रकार से कहते-सुनते आ रहे हैं. सच तो यह है कि प्रभुपाद के मर्यादा पुरूषोत्तम अवताररूप; श्री रामचंद्र भगवान के सुंदर चरित्र करोड़ों कल्पों में भी गाए नहीं जा सकते. तभी तो प्रभु के लीला-चरित्र के वर्णन के लिए साक्षात भगवान शिव और मां भवानी को माध्यम बनना पड़ा.

राम चरित पर अनगिन टीका और भाष उपलब्ध हैं. एक से बढ़कर एक प्रकांड विद्वानों की उद्भट व्याख्या. इतनी विविधता के बीच जो श्रेष्ठ हो वह आप तक पहुंचे यह 'जनता जनार्दन' का प्रयास है. इस क्रम में मानस मर्मज्ञ श्री रामवीर सिंह जी की टीका लगातार आप तक पहुंच रही है.

हमारा सौभाग्य है कि इस पथ पर हमें प्रभु के एक और अनन्य भक्त तथा श्री राम कथा के पारखी पंडित श्री दिनेश्वर मिश्र जी का साथ भी मिल गया है. श्री मिश्र की मानस पर गहरी पकड़ है. श्री राम कथा के उद्भट विद्वान पंडित राम किंकर उपाध्याय जी उनके प्रेरणास्रोत रहे हैं. श्री मिश्र की महानता है कि उन्होंने हमारे विनम्र निवेदन पर 'जनता जनार्दन' के पाठकों के लिए श्री राम कथा के भाष के साथ ही अध्यात्मरूपी सागर से कुछ बूंदे छलकाने पर सहमति जताई है. श्री दिनेश्वर मिश्र के सतसंग के अंश रूप में प्रस्तुत है, आज की कथाः

****

विप्र निरच्छर लोलुप कामी। अनाचार सठ बृषली स्वामी।(7/99/8 मानस)
--------------
सूद्र करहिं मख जप तप नाना। मेलि जनेऊ लेहिं कुदाना।।(7/99/2 मानस)

वर्णाश्रम धर्म व्यवस्था का अवमूल्यित स्वरूप, विघटन
मानस-उत्तरकांड, विचारणीय-तथ्य, सचेतक

----------------------------------
मानस की दृष्टि में ब्राह्मण शरीर विषय सेवन के लिए नहीं है-
“ब्राह्मणस्य शरीरोयम् क्षुद्रकामाय नेप्यते”
यदि ब्राह्मण बेदज्ञान के द्वारा भी विषय की उपलब्धि को लक्ष्य बना ले, तब उन्हें उसमें ब्राह्मण में वे ही गुण अपेक्षित है, जिसका उल्लेख गीता में किया गया है। शम, दम, तप आदि से ही ब्यक्ति विषयाभिमुख बृत्ति से मुक्त हो सकता है। इस तरह मनुस्मृति और गीतोक्त दोनों ही लक्षणों को मानस की एक पंक्ति में समेट लिया गया है।

क्षत्रिय वर्ण के लक्षण में भी गुणों के स्थान पर उद्देश्यमूलकता को ही अधिक गौरव प्रदान किया गया। क्षत्रिय का मुख्य कर्त्तब्य है ,प्रजा का संरक्षण। ब्यक्ति को सबसे अधिक प्रिय प्राण होता है। प्राण के संरक्षण के लिए जैसे ब्यक्ति सभी उपाय करता है, उसी प्रकार मानस की मान्यता के अनुकूल राजा (क्षत्रिय) को प्रजा से प्राण के समान प्रेम करना चाहिए। गीता में क्षत्रिय के शौर्य, धैर्य आदि जिन गुणों का उल्लेख किया गया है, मानस की दृष्टि में उनकी सार्थकता तभी है, जब इन गुणों का उपयोग प्रजा के संरक्षण में किया जाए, नहीं तो यह संभव है कि इन गुणों के द्वारा राजा, अपने अहं का प्रदर्शन ही करे।

इस प्रकार जहाँ गीता में गुणों का वर्णन प्राप्त होता है, वहाँ मानस में उन गुणों की उपयोगिता पर प्रकाश डाला गया है। मानस की मान्यता के अनुकूल, राजा को राजनीति का भी ज्ञान होना चाहिए, क्योंकि शासन की सुब्यवस्था के लिए राजनीति का ज्ञान परमावश्यक है।

वैश्य लक्षण में यह दृष्टि-भेद और स्पष्ट हो जाता है। गीता में उन कर्मों की ओर संकेत किया जाता है कि जिनके माध्यम से वैश्य धन उपार्जित करता है। किन्तु मानस का प्रश्न तो यह है कि कृषि, गोपालन और वाणिज्य के द्वारा वैश्य, जिस धन का उपार्जन करेगा, उसका उपयोग किस दिशा में होगा। यदि वह विविध माध्यमों से धन संग्रह
करता हुआ स्वयं को वैश्य धर्म में आरुढ़ मान ले और इस धन का उपयोग, अतिथि सेवा और शिव पूजा में न करे, तो मानस की दृष्टि में यह वैश्य धर्म की स्वीकृति अमान्य होगी। शिव पूजा का तात्पर्य यह है कि जैसे शिव, बड़े उदार दाता हैं, उसी प्रकार उनकी भक्ति करने वाले वैश्य को भी उदारता पूर्वक धन का वितरण करना चाहिए।

गीता में परिचर्या (सेवा) शब्द के माध्यम से चतुर्थ-वर्ण के धर्म की ब्याख्या की गयी है। सेवा शब्द, संक्षिप्त होते हुए भी ब्यापक अर्थ वाला है। सेवा धर्म के साथ बड़ी ही मनोवैज्ञानिक जटिलता का सामना करना पड़ता है। सेवा, जब स्वेच्छा से की जाती है, तो उसमें गौरव की अनुभूति होती है, पर जब किसी पर बलात् लादी जाती है, तब या तो ब्यक्ति में हीन भावना का उदय होता है, या विद्रोही बृत्ति का उदय होता है। इस वर्ण में सेवा, ऊपर से आरोपित है, अतः उसकी तद्जन्य-प्रतिक्रिया भी स्वाभाविक है। गीता के काल में विद्रोह की समस्या नहीं थी। संभवतः उसे पूर्व कर्मों का परिणाम मानकर इस वर्ण ने स्वीकार कर लिया हो। किन्तु गोस्वामीजी के काल में स्थिति परिवर्तित हो चुकी थी।

विदेशी आक्रमणों से वर्णाश्रम धर्म की ब्यवस्था हिल चुकी थी। वर्ण-धर्म को ईश्वर की कृति मानकर स्वीकार कर लेने की बृत्ति भी संशयाच्छन्न हो चुकी थी। उच्च वर्ण वालों का चरित्र इतना गिर चुका था कि अन्य लोगों के मन में
यह प्रश्न उठना स्वाभाविक था कि इतने दुष्कर्म के बाद भी किसी वर्ण का पवित्र माना जाना कैसे सुसंगत हो सकता है। त्रिवर्ण, निरंकुश होकर अपनी मनमानी कर रहे थे। चतुर्थ-वर्ण का आचरण, उनकी तुलना में निश्चित रूप में श्रेष्ठ था।

यद्यपि उस समय की मान्यता के अनुकूल उसे चतुर्थ-वर्ण का धर्म स्वीकार नहीं किया जाता था, पर कलियुग धर्म के निरूपण में विविध वर्णों पर जो आरोप लगाए गये हैं, उन्हें केवल शास्त्रीय मान्यता के संदर्भ में ही निन्दनीय कहा जा सकता था।

तुलना के लिए, दो पंक्तियों का उद्धरण समीचीन होगा।

ब्राह्मणों की अवस्था का चित्रण--
विप्र निरच्छर लोलुप कामी। अनाचार सठ बृषली स्वामी।।

वहीं पर शुद्रों की आलोचना में कहा गया--
सूद्र करहिं मख ,जप, तप नाना। मेलि जनेऊ लेहिं कुदाना।।

ब्राह्मणों पर जो आरोप लगाए गये हैं, वे तो हर दृष्टि से निंदनीय हैं ही, किन्तु शुद्र की जिन कार्यों के लिए समालोचना की गयी है, उन्हें स्वतः अपवित्र कर्म नहीं कहा जा सकता है। जप, तप, मख, दान आदि स्वतः प्रशंसनीय धर्म ही माने जाते हैं। ऐसी स्थिति में इनकी आलोचना का एकमात्र आधार यही था कि यह शूद्र का “स्व-धर्म”नहीं है।

यहाँ गीता के उस सिद्धान्त की स्मृति आती है, जिसमें श्रीकृष्ण ने सुआचरित होने पर भी “पर-धर्म” को भयावह माना है। पर उस समय यह तर्क सरलता से शुद्र वर्ण के गले उतरने वाला नहीं था। (आज तो और भी नहीं है)। उसके सामने तो एक सीधा सा तर्क था कि यह कितना बड़ा अन्याय है कि सत्कर्म करने पर भी हमें हीन माना जाये और
दुष्कर्म करने पर भी ब्राह्मण पूज्य बना रहे। ऐसी स्थिति में समाज में अंतः संघर्ष उठना स्वाभाविक ही था।

सामाजिक ब्यवस्था में इस प्रकार की स्वीकृति अनेक कठिनाइयां उत्पन्न करने वाली थी। अतः प्राचीन ब्यवस्था के श्रद्धालुओं के द्वारा विशेष रूप से जब इसमें स्वार्थहानि की भी परिस्थिति जुड़ गयी तो प्रतिक्रिया होना सहज था। घात-प्रतिघात की-सी स्थिति में जो उद्गार निकल सकते थे, उन्हीं को हम शूद्र धर्म की ब्याख्या करने वाली पंक्ति में प्रतिबिम्बित पाते हैं। क्योंकि उसमें यह कहा गया है कि विप्र की अवमानना करने वाला शुद्र शोक करने योग्य है। साथ ही उसके ज्ञानाभिमान और मुखरता के लिए भी उसकी आलोचना की गयी है।

जो लोग वर्णाश्रम धर्म के ईश्वरकृत होने के विश्वासी हैं, उनको ऐसा सोचना असंगत नहीं था कि ऐसी मनस्थिति में शुद्र सेवाधर्म का पालन नहीं कर सकता। गीता और मानस की मान्यताओं में इस दिशा में सर्वथा साम्य होते हुए भी
मानस की पंक्तियाँ तत्कालीन समस्या का प्रतिनिधित्व करती हैं। पुनर्जन्मवाद और सामाजिक आवश्यकता दोनों ही इस प्रकार की धारणा को पुष्ट करती हैं।

बहुधा सामाजिक ब्यवस्था के संरक्षण में बहुत कुछ ऐसा होता है जिसे न्याय और सौर्हार्द्र -पूर्ण नहीं माना जा सकता। एक ही शासन तन्त्र के अन्तर्गत काम करने वाले वर्णों की तुलना में भी यह स्पष्ट हो जाता है। शासन तंत्र के एक विभाग के अधिकारी व कार्यकर्ता को जहाँ हम वातानुकुलित कक्ष में कार्य करते देखते हैं, वहाँ उसी शासनतंत्र का सुरक्षा सैनिक ऐसी परिस्थितियों में रहने के लिए बाध्य किया जाता है, जहाँ प्रकृति अपने उग्र रूप में विद्यमान रहती है।

राजधानी के भब्य भवनों में कार्य करने वाले और हिमांचल की सीमा पर घोर शीत घोर हिम में रहने वाले सैनिक का जीवन इसी वैषम्य को प्रगट करता है। किसी भी सहृदय ब्यक्ति को यह स्थिति कचोटती है, पर कोई भी ब्यवस्था इस स्थिति में पूरा परिवर्तन लाने में समर्थ नहीं हो सकती। यद्यपि यह तर्क किया जा सकता है कि प्रत्येक ब्यक्ति को यह स्वतंत्रता है कि वह अपनी इच्छा के अनुकूल कार्य का चुनाव कर सके। अतः इसमें अन्याय का प्रश्न नहीं आता। किन्तु यह तर्क भी पूरी तरह सुसंगत नहीं है।

जिसे हम स्वेच्छा कहकर संतुष्ट हो लेते हैं- उसके पीछे भी अधिकांश ब्यक्तियों की बाध्यताएं ही होती हैं। फिर भी ऐसे अवसर आते हैं, जब ब्यक्ति राष्ट्र को अपनी इच्छा के अनुकूल चलने के लिए बाध्य करता है। अनिवार्य सैनिक सेवा को इसके दृष्टान्त के रूप में रखा जा सकता है। ऐसी स्थिति में देश और आदर्श की रक्षा की दुहाई देकर, जैसे बलिदान की आशा की जाती है, वैसे ही कभी “स्वधर्म” के नाम पर भी समाज के अनेक वर्गों को कष्ट सहन करने की प्रेरणा दी जाती थी।

यह सहृदयता की दृष्टि से अन्याय भले ही प्रतीत हो पर वह ऐसी बाध्यता है कि जिससे पूरी निष्कृति कभी संभव नहीं है। हाँ, उसे ऐसा रूप दिया जा सकता है कि वह आरोपित अन्याय जैसी न लगे। किन्तु यह तो इस प्रश्न पर वर्तमान युग-संदर्भ में दिया जाने वाला उत्तर है।

जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि श्रीकृष्ण स्वयं को ही वर्णधर्म का निर्माता स्वीकार करते हैं। उनकी दृष्टि में तो इसमें अन्याय और अनौचित्य का प्रश्न ही नहीं है। हिन्दूधर्म पुनर्जन्मवादी है और उसकी दृष्टि में ब्राह्मण वर्ण का कितना ही महत्त्व क्यौं न हो, वह उसे कहीं यह आश्वासन नहीं देता कि स्वधर्म का परित्याग करने पर वह निम्न वर्णों
में जन्म नहीं ले सकता।

अतः एक ओर जहाँ ब्राह्मण दुष्कर्म के प्रभाव में शूद्र बन सकता है, वहाँ शुद्र भी स्वधर्म का पालन करता हुआ द्विज-वर्ण में जन्म ले सकता है। अतः कर्मचक्र किसी के प्रति पक्षपात नहीं करता, इसलिये उसका यह आग्रह है कि शुद्र को भी स्वधर्म का पालन करना चाहिए। इस मान्यता में गीता और मानस का समान दृष्टिकोण है।

# परमपूज्य, पद्मभूषण, युगतुलसी डा. रामकिंकरजी उपाध्याय। नमन सबहिं। शुभ दिन।
वोट दें

क्या आप कोरोना संकट में केंद्र व राज्य सरकारों की कोशिशों से संतुष्ट हैं?

हां
नहीं
बताना मुश्किल