'सर्वज्ञ-शिव' के सिद्धान्त-दर्शन पर मानस-व्याख्या, वरेण्य, प्रतिपाद्य

'सर्वज्ञ-शिव' के सिद्धान्त-दर्शन पर मानस-व्याख्या, वरेण्य, प्रतिपाद्य कानपुरः 'हरि अनंत हरि कथा अनंता' की तर्ज पर प्रभु चरित का कोई आदि, अंत नहीं... त्रेता, द्वापर, सतयुग, कलयुग के कालचक्र में अध्यात्म के अनगिन पाठ के बीच प्रभु के कितने रंग, रूप, कितने अवतार, कितनी माया, कैसी-कैसी लीलाएं, और उन सबकी कोटि-कोटि व्याख्या.

गोसाईं जी का श्री रामचरित मानस हो या व्यास जी का महाभारत, कौन, किससे, कितना समुन्नत? सबपर मनीषियों की अपनी-अपनी दृष्टि, अपनी-अपनी टीका...

इसीलिए संत, महात्मन, महापुरूष ही नहीं आमजन भी इन कथाओं को काल-कालांतर से बहुविध प्रकार से कहते-सुनते आ रहे हैं. सच तो यह है कि प्रभुपाद के मर्यादा पुरूषोत्तम अवताररूप; श्री रामचंद्र भगवान के सुंदर चरित्र करोड़ों कल्पों में भी गाए नहीं जा सकते. तभी तो प्रभु के लीला-चरित्र के वर्णन के लिए साक्षात भगवान शिव और मां भवानी को माध्यम बनना पड़ा.

राम चरित पर अनगिन टीका और भाष उपलब्ध हैं. एक से बढ़कर एक प्रकांड विद्वानों की उद्भट व्याख्या. इतनी विविधता के बीच जो श्रेष्ठ हो वह आप तक पहुंचे यह 'जनता जनार्दन' का प्रयास है. इस क्रम में मानस मर्मज्ञ श्री रामवीर सिंह जी की टीका लगातार आप तक पहुंच रही है.

हमारा सौभाग्य है कि इस पथ पर हमें प्रभु के एक और अनन्य भक्त तथा श्री राम कथा के पारखी पंडित श्री दिनेश्वर मिश्र जी का साथ भी मिल गया है. श्री मिश्र की मानस पर गहरी पकड़ है. श्री राम कथा के उद्भट विद्वान पंडित राम किंकर उपाध्याय जी उनके प्रेरणास्रोत रहे हैं. श्री मिश्र की महानता है कि उन्होंने हमारे विनम्र निवेदन पर 'जनता जनार्दन' के पाठकों के लिए श्री राम कथा के भाष के साथ ही अध्यात्मरूपी सागर से कुछ बूंदे छलकाने पर सहमति जताई है. श्री दिनेश्वर मिश्र के सतसंग के अंश रूप में प्रस्तुत है, आज की कथाः

बोले बिहँसि महेस तब, ग्यानी मूढ़ न कोइ।
जेहि जस रघुपति करहिं जब, सो तस तेहि छन होइ।। (बालकांड-124)
भगवान शिव का अनुपम सिद्धांत-दर्शन, वरेण्य, प्रतिपाद्य
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विद्वान् बंधु श्री देवेन्द्र शर्मा जी के सर्वज्ञता संबंधी  जिज्ञासा पर “सर्वज्ञ-शिव” के सिद्धान्त-दर्शन पर मानस-ब्याख्या।

कैलाश-शिखर पर शिव-शिवा का संवाद चल रहा था। पार्वतीजी की जिज्ञासा थी- “ईश्वर का अवतार क्यों होता है।”। शिव ने उत्तर देते हुए अनेक कल्पों की कथा का सूत्रात्मक रूप में परिचय दिया। उन्होंने बताया कि प्रभु, प्रत्येक कल्प में अवतार लेते हैं और प्रत्येक कल्प के अवतार के कारण भी भिन्न होते हैं। इसलिये दावे से यह कह पाना संभव नहीं है कि ईश्वर का अवतार ठीक इसी कारण से होता है।

एक कल्प में तो देवर्षि नारद के शाप के कारण ही प्रभु को अवतार लेना पड़ा था-
नारद साप दीन्ह एक बारा। कलप एक तेहि लगि अवतारा।।

चकित पार्वती विश्वास ही नहीं कर पातीं कि देवर्षि ने अपने आराध्य प्रभु को शाप दिया होगा। वे अपना संशय शिव के समक्ष प्रगट कर देती हैं--
गिरिजा चकित भईं सुनि बानी। नारद विष्नु भगत पुनि ग्यानी।।
कारन कवन श्राप मुनि दीन्हा। का अपराध रमापति कीन्हा।।

पार्वती का अंतःकरण नारद के प्रति श्रद्धाभिभूत था। प्रश्न में निहित ब्याकुलता को लक्ष्य में रखकर ही भगवान शिव हँस पड़े तथा उन्होंने उन घटनाओं और उन परिस्थितियों का उल्लेख किया, जिसमें देवर्षि ने क्षीराब्धिशायी नारायण को श्राप दिया था। किन्तु सर्वप्रथम शिव ने पार्वती को आश्वस्त करते हुए, शीर्षक पंक्ति के द्वारा एक सिद्धांत प्रस्तुत किया,जो विवेच्य है। जिसका साधारण अर्थ यह है कि कोई भी ब्यक्ति ज्ञानी अथवा मूर्ख नहीं है। रघुपति जब भी जिसे जैसा बना देते हैं, वह उस समय वैसा ही प्रतीत होने लगता है। बड़ा ही विलक्षण है यह सिद्धांत, जिसमें ज्ञानी और मूर्ख के भेद को ही अस्वीकार कर दिया गया है।

यह मान्यता इस संदर्भ में और भी आश्चर्यजनक जान पड़ती है कि-इसका प्रतिपादन, उस भगवान शिव के द्वारा किया जाय, जिन्होंने सर्वप्रथम देवर्षि नारद को सावधान करने की चेष्टा की थी। शिव ने देवर्षि के प्रति कल्याण कामना से प्रेरित होकर उन्हें समझाने की चेष्टा की, किन्तु देवर्षि ने उनके उपदेश की उपेक्षा कर दी। ऐसी स्थिति में पार्वती द्वारा किये जाने वाले प्रश्न के उत्तर में वे यह सकते थे कि मेरे उपदेश और चेतावनी को ध्यान में न रखने का ही यह दुष्परिणाम था। किन्तु वे सारे घटनाक्रम की एक भिन्न दार्शनिक पृष्टभूमि ही प्रस्तुत करते हैं, जहाँ कोई ब्यक्ति ज्ञानी और मूढ़ नहीं है- -जहाँ सब कुछ ईश्वर की इच्छा से ही संपन्न होता है।

साधारणतया यह एक बड़ा बिरोधाभासी- सा प्रतीत होता है कि एक ओर तो वे ज्ञानी और मूढ़ में कोई भेद नहीं स्वीकार करते, और दूसरी ओर वे देवर्षि के अभिमान को भी दूर करने का प्रयास करते हैं। किन्तु यही जीवन-दर्शन, साधक को सन्तुलन प्रदान कर सकता है। प्रत्येक दुर्गुण भिन्न मार्ग से जीवन में प्रविष्ट होता है।

लोभ के इच्छा दम्भ बल, काम के केवल नारि।
क्रोध के परुष बचन बल, मुनिवर कहहिं बिचारि।।(अरण्यकांड)

लोभ-इच्छा के माध्यम से जीवन में प्रविष्ट होता है, काम-नारी के आश्रय से मन पर अधिकार कर लेता है, क्रोध-कठोर वाणी का माध्यम ग्रहण कर ब्यक्ति को असंतुलित बना देता है। किन्तु अहंकार ही ऐसा दुर्गुण है, जिसके जीवन में प्रविष्ट होने के अनगिनत मार्ग हैं। इसलिए जीवन में अहंकार का प्रवेश रोक पाना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है।

देवर्षि ने काम, क्रोध, लोभ के मार्ग को अवरुद्घ करने में तो सफलता प्राप्त कर ली, किन्तु वे अहंकार को जीवन में प्रविष्ट होने से नहीं रोक पाये।

भगवान शंकर ने देवर्षि के अंतःकरण में प्रविष्ट अहंकार को निकालने की चेष्टा की, किन्तु वे उस समस्या से परिचित थे, जो प्रत्येक योग्य चिकित्सक के समक्ष आती है। जब चिकित्सक के समक्ष कोई ऐसा रोगी आता है, जिसका रोग संसर्ग-जन्य हो, तब न उसे केवल रोगी की चिकित्सा करनी पड़ती है, अपितु यह भी ध्यान रखना पड़ता है कि रोग के कीटाणु स्वयं उसमें (चिकित्सक) में ही प्रविष्ट न हो जायँ।

देवर्षि जिस अभिमान से ग्रस्त थे, वह उनके अंतःकरण से निकलकर शिव के हृदय में प्रविष्ट हो सकता था। यदि वे यह मान लेते कि नारद अहंकार-ग्रस्त हैं, किन्तु उनमें “अहं” का अभाव है, अथवा यदि वह पार्वती से यह कहते कि मेरे
उपदेशों को न मानने का दुष्परिणाम था, तो यह भी अहंकार का एक भिन्न रूप होता। किन्तु शिव ने अहंकार का मार्ग अवरुद्ध करने में सफलता पाई।

नाट्यमंच पर अभिनय करते हुए अभिनेता परस्पर बिरोधी रूप में प्रस्तुत होते हैं। उनमें एक संत और विद्वान् का अभिनय करता है, तो दूसरा दुष्ट अथवा मूर्ख का। अपनी भूमिका के अनुकूल वे दर्शकों की सहानुभूति, श्रद्धा, द्वेष अथवा उपहास के पात्र बनते हैं। नाटक के दर्शक की दृष्टि तो रंगमंच पर ही होती है। किन्तु पर्दे के पीछे का सत्य तो कुछ भिन्न ही है। वहाँ न तो कोई चोर है, न कोई सन्त। वहाँ तो सबके सब अभिनेता मात्र हैं, जिनका कार्य सूत्रधार की इच्छा के अनुकूल ही रंगमंच पर अभिनय प्रस्तुत कर देना है।

भगवान शिव इसी नाट्य-दर्शन का प्रतिपादन पार्वती के समक्ष करते हैं। उनकी दृष्टि में यह विश्व रंगमंच है और इसका सूत्रधार ईश्वर है। जीव अभिनेता के रूप में नाट्यमंच पर अपना अभिनय प्रस्तुत करता है। यह आवश्यक नहीं है कि वह अभिनेता हर क्षण एक जैसी भूमिका में प्रस्तुत किया जाए। देवर्षि की भूमिकाएँ बहुरंगी हैं। ज्ञानी, भक्त, तत्त्वज्ञ और मुनि के रूप में वे बार बार रंगमंच पर आते रहे। लोग श्रद्धाभिभूत होकर उनके चरणों में नमन करते थे। किन्तु सूत्रधार ने जब एक बार भिन्न रूप में उन्हें रंगमंच पर प्रस्तुत किया तो विशेष प्रकार की भूमिका में देखने के अभ्यस्त दर्शक चकित हो उठे। आज! यह सब क्या हो रहा है! किन्तु यवनिका के पीछे सूत्रधार पर जिनकी दृष्टि है, उनके लिये इसमें कोई आश्चर्य नहीं था। यह तो परम कौतुकी प्रभु की एक क्रीड़ा थी, जिसमें अभिनेताओं की भूमिकाएं परिवर्तित होती रहती हैं।

किन्तु इस पंक्ति का उद्देश्य ज्ञानी और मूढ़ को समान श्रेणी में ला देना नहीं है, और न ही इसका तात्पर्य यह है कि ब्यक्ति इस पंक्ति के आधार पर निज की दुर्बलताओं को भगवान के माथे पर मढ़कर स्वयं को निर्दोष सिद्ध करे। देवर्षि नारद के क्रियाकलाप में शिव का दृष्टिकोण उपर्युक्त पंक्तियों में प्राप्त होता है। किन्तु स्वयं नारद ने इसे भिन्न रूप में देखा। स्वयंबर सभा से निराश नारद क्रुद्ध होकर भगवान को शाप देने के लिये चल पड़े। मार्ग में ही प्रभु उनके समक्ष
प्रगट हो गये। क्रुद्ध नारद ने न केवल दुर्वचनों का प्रयोग किया, अपितु प्रभु को अनेक शाप भी दे डाले। उदार भगवान उन शापों को सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं-

साप सीस धरि हरषि हिय, प्रभु बहु बिनती कीन्ह।
निज माया कै प्रबलता, करषि कृपानिधि लीन्ह।।

माया-मुक्त होते ही नारद ब्याकुल हो उठे। प्रभु के चरणों में गिरकर क्षमायाचना करने लगे--प्रभु! मैंने आपके प्रति अनेक दुर्वचनों का प्रयोग किया है, इस पाप का प्रायश्चित्त क्या होगा? मैंने आपको जो शाप दिया है, वह झूठा हो जाय!--
जब हरि माया दूरि निवारी। नहिं तहँ रमा न राजकुमारी।।
तब मुनि अति सभीत हरि-चरना। गहे पाहि प्रनतारति हरना।।
मृषा होउ मम साप कृपाला। मम इच्छा कह दीनदयाला।।
मैं दुर्वचन कहे बहुतेरे। कह मुनि मिटिहि साप किमि मेरे।।

देवर्षि को नाट्य दर्शन का ज्ञान था। वे यह भी कह सकते थे कि मैंने जो कुछ भी किया, उसके आप ही प्रेरक हैं। प्रभु देवर्षि की ग्लानि को दूर करने के लिए “मम इच्छा कह दीनदयाला” ऐसी शब्दावली का प्रयोग करते हैं, किन्तु नारद इसे स्वीकार नहीं करते हैं।उन्होंने स्वयं को अपराधी के रूप में देखा। रुद्रगणों ने इसे नारद के पतन के रूप में देखा। वे उनकी दुर्बलता की हँसी उड़ाते रहे। विषयी ब्यक्ति इसी दृष्टि से देखने का अभ्यस्त होता है। अपनी दुर्बलताओं को न देखकर दूसरों की दुर्बलता पर ब्यंग्य करता है और रुद्रगणों की भाँति ही स्वयं को आसुरी योनि का अधिकारी बना लेता है। नारद की दृष्टि “साधक”की दृष्टि है, जो अपनी दुर्बलताओं के लिये स्वयं को ही उत्तरदायी मानता है, तथा उसके लिये प्रायश्चित करना चाहता है।

भगवान शिव की दृष्टि “सिद्ध दृष्टि” है, जहाँ सब कुछ ईश्वर की इच्छा से होता है। विश्व रंगमंच पर प्रत्येक अभिनेता सूत्रधार के आदेश का पालन कर रहा है। इसलिये किसी से राग द्वेष ब्यर्थ है---ज्ञानी मूढ़ न कोइ।
आज का प्रकरण समाप्त।
शुभ संध्या। नमन सबहिं।
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