नित्य मानस चर्चा, उत्तर कांड: बरन धर्म नहिं आश्रम चारी

नित्य मानस चर्चा, उत्तर कांड: बरन धर्म नहिं आश्रम चारी नई दिल्लीः पुलिस सेवा से जुड़े रहे प्रख्यात मानस मर्मज्ञ श्री राम वीर सिंह उत्तर कांड की सप्रसंग व्याख्या कर रहे हैं. राम वीर जी अपने नाम के ही अनुरुप राम कथा के मानद विद्वान हैं. फिलहाल यह चर्चा श्री राम जी के सतसंग से जुड़ी हुई है. संत और असंत है कौन? जीवन नैया से पार के उपाय हैं क्या? उन्हें पहचाने तो कैसे?

सद्गति के उपाय हैं क्या? मानस की इस चर्चा में एक समूचा काल खंड ही नहीं सृष्टि और सृजन का वह भाष भी जुड़ा है. जिससे हम आज भी अनु प्राणित होते हैं -भ्रातृ प्रेम, गुरू वंदन, सास- बहू का मान और अयोध्या का ऐश्वर्य, भक्ति-भाव, मोह और परम सत्ता का लीला रूप... सच तो यह है कि उत्तर कांड की 'भरत मिलाप' की कथा न केवल भ्रातृत्व प्रेम की अमर कथा है, बल्कि इसके आध्यात्मिक पहलू भी हैं.

ईश्वर किस रूप में हैं...साकार, निराकार, सगुण, निर्गुण...संत कौन भक्ति क्या अनेक पक्ष हैं इस तरह के तमाम प्रसंगों और जिज्ञासाओं के सभी पहलुओं की व्याख्या के साथ गोस्वामी तुलसीदास रचित राम चरित मानस के उत्तरकांड से संकलित कथाक्रम, उसकी व्याख्या के साथ जारी है.
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*ॐ*     
*नित्य मानस चर्चा*
*उत्तरकांड*  
अगली पंक्तियॉं:--
"बरन धर्म नहिं आश्रम चारी।
श्रुति बिरोध रत सब नर नारी।।
द्विज श्रुति बेचक भूप प्रजासन।
कोउ नहिं मान निगम अनुसासन।।
मारग सोइ जा कहुँ जोइ भावा।
पंडित सोइ जो गाल बजावा।।
मिथ्यारंभ दंभ रत जोई।
ता कहुँ संत कहइ सब कोई।।
सोइ सयान जो परधन हारी।
जो कर दंभ सो बड़ आचारी।।
जो कह झूँठ मसखरी जाना।
कलिजुग सोइ गुनवंत बखाना।।
निराचार जो श्रुति पथ त्यागी।
कलिजुग सोइ ग्यानी सो विरागी।।
जाकें नख अरु जटा बिसाला।
सोइ तापस प्रसिद्ध कलिकाला।।
दोहा:-
असुभ बेष भूषन धरें भच्छाभच्छ जे खाहिं।
तेइ जोगी तेइ सिद्ध नर पूज्य ते कलिजुग माहिं।। सोरठा:-
जे अपकारी चार तिन्ह कर गौरव मान्य तेइ।
मन क्रम बचन लवार तेइ वक्ता कलिकाल महुँ।।"
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वेदों में वर्ण व्यवस्था जीव के कारण शरीर में तीन गुणों के अनुपात पर आधारित है। इसी प्रकार आश्रम व्यवस्था आयु के अनुसार होती है।

वेदों ने वर्णाश्रम के अनुसार कर्तव्य निर्धारित कर रखे हैं। सनातन धर्म का आधार वेद ही हैं। अविदित परमात्मा को जो विदित करा दे वह वेद है। कलियुग में लोग वेद के विरुद्ध आचरण करते हैं क्यों कि वे परमात्मा -को -नहीं चाहते, वे तो परमात्मा -से- चाहते हैं इसलिए वह धर्म विरुद्ध आचरण हुआ।

कलियुग में वर्णाश्रम व्यवस्था ही समाप्त हो जाती है। सबका ख़ून एक जैसा है, इस मान्यता के आधार पर कर्तव्य कर्म भी सबके एक जैसे हो जाते हैं। (बड़ी लज्जा की बात है कि सरकारी नौकरी के लालच में बहुत से उच्च वर्ग के लोग जिनमें ब्राह्मण भी हैं, आज सफाई कर्मी के पदों पर तैनात हैं। )

कलियुग में वेदों के प्रति श्रद्धा तो कम होती ही है, लोग वेदों का अनुशासन नहीं मानते। सबसे बड़ी कमी तो उन ब्राह्मणों के द्वारा की जाती है जो पैसे के लालच में आकर हवन, यज्ञ, अनुष्ठान करते हैं और उसमें अशुद्ध पाठ तो करते ही हैं, झूँठ भी बोलते हैं। (हमने आपके लिए एक लाख गायत्री पाठ कर दिया,इतने पैसे दो। यह सरासर वेदों की अवज्ञा है। ) राजा ऐसे कि प्रजा का पालन नहीं शोषण करते हैं। जिसने अपनी वुद्धि के तर्क के बल पर जो ठीक समझा वह किया। धर्म अधर्म का कोई विचार नहीं। पंडित वह है जो डींग मारता हो।

कलियुग में संत का अर्थ ही बदल गया। संत वह है जो झूठा पाखंड दिखाता हो, मिथ्या आचरण करता हो। बुद्धिमान वह समझा जाता है जो दूसरों का, जनता का धन हड़प जाए। (माल्या ने सरकार को हजारों करोड़ का चूना लगा दिया इसलिए बुद्धिमान है। आम्रपाली ग्रुप का अनिल शर्मा अगर सोलह हजार लोगों का धन ऐंठ कर अपने को दिवालिया घोषित कर दे तो बुद्धिमान है। सरदार पटेल की सबसे बड़ी मूर्ति बनाने का ठेका लेने वाली एल & टी कम्पनी सरकार से 3000 करोड़ का ठेका लेकर चीन से एक चौथाई क़ीमत में वनवाकर दे दे तो बुद्धिमान है। आदि)

झूँठ और अमर्यादित भाषा बोलकर मसखरी करने वालों को कलियुग में गुणवान कहा जाता है। (कपिल शर्मा शो प्रत्यक्ष मिसाल है।)
 
कलियुग में ज्ञानी और वैराग्यवान वे लोग माने जाते हैं जो वैदिक मार्ग से विपरीत आचरण वाले हों। जिसने बड़ी बड़ी जटाएँ रख ली हों, बड़े बड़े नाख़ून रख कर भयानक सी आकृति बना ली हो, उसे लोग तपस्वी कहते हैं। अशुभ वेष, अमंगल आभूषण ( रंगबिरंगी मालाएँ, हड्डियों सींग आदि से बने) पहन रखे हों, भक्ष्य अभक्ष्य सब खा लेते हों, उनको लोग सिद्ध और योगी मानते हैं। कलियुग में ऐसे लोगों की पूजा होती है।

लोगों को बहकाकर दूसरों को हानि पहुँचाने वाले, बहुत बातूनी लोगों की कलियुग में मान्यता होती है। लोग उनसे मार्गदर्शन लेते हैं। श्रेष्ठ वक्ता भी वही माने जाते हैं जो मनगढ़ंत झूठी कहानियों सुना सुना कर लोगों के कर्म को भी भ्रष्ट कर दें। बढ़िया ताल पर नचा दें।

(कहने का मन तो है किंतु संकोचवश कह नहीं सकते कि किस प्रकार टी वी पर आडम्बरधारी कथाकार एक दम झूठी बातें सुना सुना कर भगवान को लपेट कर,भगवान का आश्रय लेकर समाज में मर्यादाओं की हत्या कर रहे हैं। रसिया और रासलीला के बहाने लोगों की सुप्त वासनाओं को उकसा कर जो थोड़ा बहुत संस्कार शेष है , उसे भी नष्ट कर रहे हैं। )

अगले दिन की मानस चर्चा-

*ॐ*     
*नित्य मानस चर्चा*
*उत्तरकांड*  

अगली पंक्तियाँ:-
"नारि बिबस नर सकल गोसाईं।
नाचहिं नट मर्कट की नाईं।।
सूद्र द्विजन्ह उपदेसहिं ज्ञाना।
मेलि जनेऊ लेहिं कुदाना।।
सब नर काम लोभ रत क्रोधी।
देव बिप्र श्रुति संत बिरोधी।।
गुन मंदिर सुंदर पति त्यागी।
भजहिं नारि पर पुरुष अभागी।।
सौभागिनी विभूषन हीना।
बिधवन्ह के श्रंगार नवीना।।
गुर सिष बधिर अंध का लेखा।
एक न सुनइ एक नहिं देखा।।
हरइ सिष्य धन सोक न हरई।
सो गुर घोर नरक महुँ परई।।
मातु पिता बालकन्हिं बोलावहिं।
उदर भरै सोइ धर्म सिखावहिं।।
दोहा:-
ब्रह्म ग्यान बिनु नारि नर कहहिं न दूसरि बात।
कौड़ी लागि लोभ बस करहिं बिप्र गुर घात।।
बादहिं सूद्र द्विजन्ह सन हम तुम्ह ते कछु घाटि।
जानइ ब्रह्म सो बिप्रबर ऑंखि दिखावहिं डाटि।।"  

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 भुशुण्डिजी द्वारा कलियुग के लक्षणों का विवरण चल रहा है। कह रहे हैं कि कलियुग में पुरुष स्त्रियों के लिए क्रीड़ा पशु हो जाते हैं। जैसे बाज़ीगर बंदर का खेल दिखाते हैं, उससे तरह तरह के नाच नचाते हैं। कलियुग में पुरुष भी स्त्रियों के इशारे पर नाचने वाले हो जाते हैं।

सीता जी के लिए अन्यत्र लिखा है "पति रुख लखि आयसु अनुसरही"। ठीक इसके विपरीत कलियुग में पुरुष पत्नी के रुख के अनुरूप ही पत्नी की आज्ञा का अनुसरण करता है।

वर्ण धर्म की बात तो पहले कह ही चुके हैं, अब उसकी वक्रता बताते हैं। षोडस संस्कार तो कलियुग में कोई मानता ही नहीं। ब्राह्मण भी यज्ञोपवीत संस्कार नहीं करते। बस जनेऊ अपनी इच्छा से ही धारण कर लिया कभी भी। जनेऊ की पवित्रता का कोई ध्यान नहीं। भुशुण्डिजी कहते हैं कि वर्ण व्यवस्था को धता बताते हुए शूद्र भी जनेऊ धारण करते हैं और व्यास गद्दी पर अपनी मनगढ़ंत कथा भी सुनाते हैं। दान दक्षिणा तो लेते ही हैं, कुदान (जैसे शय्यादान आदि) भी ले लेते हैं जिन्हें ब्राह्मण स्वीकार नहीं करते।

ब्राह्मण भी शुद्रों को शास्त्र की शिक्षा देने में संकोच नहीं करते। बस धन के लालच में कुछ भी करते हैं। इतना ही नहीं शूद्र भगवा पहन कर सन्यासी बन जाते हैं और ब्राह्मणों को ज्ञान भी सिखाते हैं, उनसे पूजा भी लेते हैं।

लोगों में देवताओं, ब्राह्मणों, शास्त्रों और संतों के प्रति कोई आस्था या सम्मान नहीं रह जाता। वे स्वभाव से ही लोभी, क्रोधी और काम के वश होते हैं।  सुन्दर सुशील पति को त्याग कर स्त्रियॉं रति की भूख को शांत करने के लिए दूसरे पुरुषों का सहारा लेती हैं।

( भागवत में भी लिखा है "स्त्रीत्वे पुंस्त्वे च हि रति:-12/2/3") स्त्री और पुरुष की उत्तमता आचार से नहीं वल्कि रति की कुशलता से मानी जाएगी।

मान्यता है कि सोभागिनी स्त्री को षोडस श्रंगार युक्त होना चाहिए। विधवा स्त्री को श्रंगार नहीं करना चाहिए। कलियुग में इसका उलटा होता है। स्त्रियॉं श्रंगार पति के लिए नहीं वरन किसी शादी मेला के अवसर पर श्रंगार दूसरों को दिखाने के लिए करती हैं।

(यहॉं बात उन महिलाओं की लगती है जो धनी सम्पन्न परिवार से हैं और जिनके पास कोई काम नहीं है। खेत में पति के साथ धूलधूसरित कंधे से कंधा मिलाकर काम करने वाली महिला तो शक्ति के समान पूज्य है। धूल ही उसका श्रंगार है। मिस्त्री (मेसन) के साथ सर पर ईंटें उठाकर मज़दूरी करने वाली महिला तो दिन भर हड्डियॉं तोड़कर मेहनत करती है, शाम को मज़दूरी से लौटकर खाना भी बनाती है और पति की सेवा भी करती है। परिश्रम ही उसका श्रंगार है। )
 
कलियुग में गुरू और शिष्य दोनों अंधे और बहरे की जोड़ी है। गुरू बन कर किसी के भी कान में ऐसे मंत्र की फूँक मार दी जो स्वयं को सिद्ध तो है ही नहीं उसका ठीक ठीक अर्थ भी पता नहीं है और भोले लोगों को बहका कर दक्षिणा ऐंठ ली। लोग भी इतने अंधे कि लोभ में कुछ सूझता ही नहीं। तीन तीन शादी रचाकर अरबों रुपये की देश विदेश में सम्पत्ति बनाकर बैठे एक विश्व की जागृति करने निकले गुरू जी का गुरु दक्षिणा प्रोग्राम टीवी पर लाइव देखा। आनन्द आ गया। चेले तो कम दिखे चेलियॉं अनेक दिखीं।

जो पड़ोस की ग़रीब वृद्धा को तो एक पैसे की मदद नहीं करेंगी,वही महिलाएँ दुनियॉं को जगाने निकले ठेकेदार को हजारों रुपये का चढ़ावा चढ़ा रही थीं। हम भुशुण्डिजी के शब्दों को शिरोधार्य करते हैं कि " गुर बिनु भव निधि" पार नहीं किया जा सकता। किंतु इस तथ्य का जितना दुरुपयोग किया गया है उसका तो वर्णन भी नहीं किया जा सकता।

यह सब पैसा देकर टी वी पर दिखने वाले गुरू नहीं गुरूघंटाल हैं। यहॉं गुरू कहते समय विश्वामित्र,बाल्मीकि जैसे ऋषियों की छवि ध्यान में रही होगी जो अगर शिष्य भी बनाऐंगे तो बहुत जॉंच परख करके,पात्रता का परीक्षण करके। और मंत्र देंगे तो वह मंत्र उन्हें सिद्ध तो होगा ही ,वे उसके दृष्टा भी होंगे। सच्चा गुरू बड़ी मुश्किल से स्वीकार करता है। आडम्बरहीन होता है। धन यश आदि से दूर होता है। ( यह हमारा व्यक्तिगत मत है। किसी का भी सहमत होना आवश्यक नहीं है)

कलियुग में माता पिता भी बच्चों को वही शिक्षा देते हैं जिससे उन्हें धन और यश प्राप्त हो। बहुधा घरों में बड़े वुजुर्गों को अपनी पूजा, साधना शांत रह कर छुप कर करनी पड़ती है। पहले अधिकतर घरों में शाम को नित्य सामूहिक आरती का रिवाज था। अब बच्चों के हाथों में मोबाइल आने से हमारी मूल सनातन आस्था का आधार ही खिसक रहा है। बच्चों को मॉं बाप अध्यात्म की शिक्षा तो बिलकुल भी नहीं देते।

"शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनम्"अर्थात भोजन से ही शरीर चलता है। जिस साधन से अपना और अपने परिवार का पेट भरे वही धर्म है। बस इतना सिखाया जाता है। अध्यात्म की ओर झुकाव ही नहीं होने के कारण लोग आपस में भी धन सम्पदा सम्बंधित बात ही करते हैं। राग द्वेष की बात करते हैं। परमात्मा के किसी अवतार की , किसी रूप की तथ्यात्मक बात तो बिलकुल भी नहीं।

धर्म की बात में तो विधि निषेध का बिचार आता है अत: धर्म की नहीं वल्कि अपने कुतर्क से मनमाने ज्ञान की बातें ही करते हैं जहॉं गुड़ का गोबर बना दिया जाता है। हमने लोगों को तर्क देते सुना है कि त्रेता में राम हुए,द्वापर में कृष्ण हुए इसी तरह कलियुग में साईं हैं। साक्षात अवतार। जलाओ गुग्गल।

विष्णु पुराण की घोषणा है--"समान पौरुष चेतो भानु विप्रषु वै कलौ"। कलियुग में शूद्र विप्रों से बराबरी करेंगे। "हम तुम्ह ते कछु घाटि"। सही व्यावहारिक बात यह है कि पहले ब्राह्मण अपने शास्त्र ज्ञान के बल पर श्राप आदि देने में समर्थ थे। दूसरे वर्ण उनसे डरते थे। कलियुग में ब्राह्मणों में वह सामर्थ्य रही नहीं इसलिए शूद्र ख़ुद ब्राह्मण होने का दावा करने लगे।
     
कहा जा सकता है कि यदि शूद्र को ब्रह्म ज्ञान है तो फिर तो वह ब्राह्मण ही हो गया।शूद्र रहा कहॉं ? लेकिन गोस्वामी जी ने ऐसे शूद्र का आचरण बताया है वह है "ऑंखि देखावहिं डाटि"। यदि कोई तमोगुणी शाब्दिक ज्ञान के बल पर अभिमान सहित दूसरों को डॉंट फटकार लगाए तो वह तो अज्ञानी से भी ज़्यादा नीचे गिर गया।
 ईशावास्य उपनिषद में कहा है-

"अंधतम: प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायांरता:।।"

अविद्या के अंधकार से तो विद्या पाकर निकला जा सकता है किंतु ज्ञान का अभिमान पाकर पतन ही पतन है, निकल नहीं सकते।

(आज की पंक्तियों के साथ न्याय नहीं कर पाए। इसके लिए सो विस्तार चाहिए। इस बहाने समूह सदस्यों को चर्चा को विस्तार देने का पूर्ण अवकाश है। कृपया कोई त्रुटि गई हो तो क्षमा करें। )
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