नित्य मानस चर्चाः उत्तरकांड व्याख्या, जब बशिष्ठ जी को हुआ मोह
रामवीर सिंह ,
Jun 23, 2017, 8:37 am IST
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नई दिल्लीः पुलिस सेवा से जुड़े रहे प्रख्यात मानस मर्मज्ञ श्री राम वीर सिंह उत्तर कांड की सप्रसंग व्याख्या कर रहे हैं. राम वीर जी अपने नाम के ही अनुरुप राम कथा के मानद विद्वान हैं. फिलहाल यह चर्चा श्री राम जी के सतसंग से जुड़ी हुई है. संत और असंत है कौन? जीवन नैया से पार के उपाय हैं क्या? उन्हें पहचाने तो कैसे?
सद्गति के उपाय हैं क्या? मानस की इस चर्चा में एक समूचा काल खंड ही नहीं सृष्टि और सृजन का वह भाष भी जुड़ा है. जिससे हम आज भी अनु प्राणित होते हैं -भ्रातृ प्रेम, गुरू वंदन, सास- बहू का मान और अयोध्या का ऐश्वर्य... सच तो यह है कि उत्तर कांड की 'भरत मिलाप' की कथा न केवल भ्रातृत्व प्रेम की अमर कथा है, बल्कि इसके आध्यात्मिक पहलू भी हैं. ईश्वर किस रूप में हैं...साकार, निराकार, सगुण, निर्गुण...संत कौन भक्ति क्या अनेक पक्ष हैं इस तरह के तमाम प्रसंगों और जिज्ञासाओं के सभी पहलुओं की व्याख्या के साथ गोस्वामी तुलसीदास रचित राम चरित मानस के उत्तरकांड से संकलित कथाक्रम, उसकी व्याख्या के साथ जारी है. *ॐ* *नित्य मानस चर्चा* *उत्तरकांड* अगली पंक्तियाँ:-- "एक बार बसिष्ट मुनि आए। जहॉं राम सुखधाम सुहाए।। अति आदर रघुनायक कीन्हा। पद पखारि पादोदक लीन्हा॥ राम सुनहु मुनि कह कर जोरी। कृपासिंधु बिनती कछु मोरी॥ देखि देखि आचरन तुम्हारा। होत मोह मम हृदयँ अपारा॥ महिमा अमित बेद नहिं जाना। मैं केहि भॉंति कहउँ भगवाना॥ उपरोहित्य कर्म अति मंदा। बेद पुरान सुमृति कर निंदा॥ जब न लेउँ मैं तब बिधि मोही। कहा लाभ आगें सुत तोही॥ परमानंद ब्रह्म नर रूपा। होइहिं रघुकुल भूषन भूपा॥ तब मैं हृदयँ बिचारा जोग जग्य ब्रत दान। जा कहुँ करिअ सो पैहउँ धर्म न एहि सम आन॥" **** इसके ठीक पहले वर्णित की गई पुरजन सभा में बशिष्ठजी भी थे। उनके सामने ही भगवान ने अपना ऐश्वर्य भाव सब के सामने खोल दिया था। जानते बशिष्ठ भी थे किंतु इस संकोच से कि भगवान इस समय नरलीला कर रहे हैं और अपना ऐश्वर्य छुपाए हुए हैं,बशिष्ठ जी भी छुपाए हुए थे। वैसे कई बार भगवान के सामने ही वह उनकी मूल पहचान प्रगट कर चुके हैं। चित्रकूट में जब एक दम उषाकाल से पहले ही रामजी गुरु बशिष्ठ से मिलने अकेले पहुँचे थे ,तब बशिष्ठ ने धीरे से फुसफुसाकर उनसे कहा था:- "प्रान प्रान के जीव के जिव सुख के सुख राम"। और दशरथजी ने स्वयं कहा है:- "सुनहु तात तुम्ह कहँ मुनि कहहीं। राम चराचरनायक अहहीं॥" लेकिन प्रस्तुत पंक्तियों से लगता है कि अब बशिष्ठ जी पुरजन सभा के बाद भगवान से सीधा संवाद राम राजा के रूप से नहीं वल्कि राम परमात्मा के रूप से करना चाहते हैं। अत: एकांत पाकर सुखधाम राम के पास आए। (यह भी महत्वपूर्ण है कि बशिष्ठ जी समझ गए हैं कि प्रभु अब लीला का समापन करके निजधाम में जाने की तैयारी में हैं। पिछली सभा अंतिम पुरजन सभा थी। ) भगवान का नामकरण भी बशिष्ठ ने ही किया था। " सो सुखधाम राम अस नामा"। परमात्मा आनन्दस्वरूप है, वही सुखधाम है। हम सभी परमात्मा के अंशी होने के नाते उसी तरह के सुख धाम हैं, लेकिन पहचान नहीं पाते। वह पहचान पाने की तलाश में ही नित्य रामकथा में रमण करते हैं। इस प्रकरण में बशिष्ठ जी की उस पीड़ा का दर्शन है जो वे कई पीढ़ियों से झेल रहे हैं। उन्हें पता है कि राम परब्रह्म के अवतार हैं। किंतु भगवान की नरलीला इतनी माधुर्यभरी रही है कि वह भी चक्कर में पड़ गए, उन्हें भी सब कुछ पता होते हुए भी मोह हो गया। भगवान की नरलीला इतनी सटीक रही कि भ्रम में पड़ गए। विद्वान कहते हैं कि मानस में पॉंच भक्तों को मोह हुआ है। बाललीला में भुशुण्डिजी को, विवाह के समय ब्रह्माजी को, वनवास लीला में सतीजी को, युद्ध (लंकाकांड)में गरुड़जी को तथा राज्यलीला में बशिष्ठ जी को। गोस्वामीजी की कलाकारी देखने लायक है। बिना कुछ कहे एक परिस्थिति के माध्यम से बता दिया कि बशिष्ठ जी की यह मुलाक़ात सीता त्याग के बाद की है। यहॉं सीताजी का नाम नहीं है और "पद पखारि" यह क्रिया अगर सीताजी होतीं तो जोड़े से की जाती,जैसा कि विधान है। चरणामृत राम ने अकेले ही लिया। बशिष्ठजी अब सीधे राजा राम से नहीं वल्कि भगवान राम से बात कर रहे हैं। कह रहे हैं कि पिता ब्रह्माजी के कहने पर ही मैने उनकी इच्छानुकूल सूर्यवंश की पुरोहिताई स्वीकार की थी। उन्होने बताया था कि इसी कुल में परमात्मा का रामावतार होगा, इसलिए इसी आशा से मैने यह मंदा पुरोहिताई का कार्य स्वीकार किया। (ब्राह्मण का श्रेष्ठ कर्म है वेद पढ़ना और पढ़ाना। पुरोहिताई का कर्म इसलिए मंदा है क्यों कि यज्ञ करने कराने में तथा दान लेने में, यजमान और दाता की भूलचूक या पाप की ज़िम्मेदारी पुरोहित की होती है। यजमान के पापों से पुरोहित की तप:शक्ति क्षीण होती है) बशिष्ठ जी कह रहे हैं कि हे भगवान आपकी महिमा तो अपार है। मैं बखान नहीं कर सकता। वेद भी नहीं कर पाते। मैं तो उतना ही जानता हूँ जितना वेद जानते हैं। जब वेद ही ठीक से नहीं जानते तो मैं कैसे जान सकता हूँ। अब बशिष्ठ जी कह रहे हैं कि भगवन आप जो मुझे गुरू कहते हो वह तो कभी सम्भव हो ही नहीं सकता। आपका गुरू कौन हो सकता है। मैने तो भार अपने सर पर इसलिए लिया है कि आपका दर्शन मिले, सानिध्य मिले। और फिर योग, यज्ञ, तप, दान आदि उत्तम कार्य करने से भी ज़रूरी नहीं है कि आप का दर्शन मिल जाय।लेकिन यह पुरोहित कर्म तो मेरे लिए परम कल्याणकारी सिद्ध हुआ। इसी के माध्यम से मुंझे आपका सानिध्य प्राप्त हुआ और वह भी बड़े सम्मान से। इससे बड़ा कोई धर्म हो ही नहीं सकता। **(यथामति समर्पित) |
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