सनातन धर्म और मोक्ष की अवधारणा

सनातन धर्म और मोक्ष की अवधारणा हिंदू (सनातनधर्मी) जीवन का अंतिम लक्ष्य 'मोक्ष' मानते हैं. 'मोक्ष', यानी इहलोक में आवागमन, जन्म-मरण- के चक्र से छुटकारा. इसे और भी कई नामों से पुकारते हैं— मुक्ति, कैवल्य, परमपद, निर्वाण (बौद्ध और जैन धर्म में विशेष प्रचलित) वगैरह.

व्यवहार में मोक्ष वह स्थिति है. जब आत्मा अपने को शरीर (मन और बुद्धि भी शरीर के ही कम-ज़्यादा सूक्ष्म हिस्से  हैं ) से पृथक्‌ मान ले. धारणा है कि जीवनकाल में भी यह सम्भव है. जनक आदि जीवनमुक्त कहे गये हैं.
 
आत्मा अजर-अमर, अविनाशी और शरीर का नश्वर—क्षीण होना ही इसका धर्म (गुण) है— क्षीयते इति शरीरम्‌. रोग-व्याधि न हो तब भी उम्र के साथ यह छीजता जाता है. पहले अतिरिक्त आनंद देनेवाली इंद्रियां शिथिल पड़ती हैं, फिर धीरे-धीरे जीवन-व्यापार के लिए ज़रूरी इंन्द्रियां भी शिथिल पड़ने लगती हैं. देखते-देखते बाल बेरंग होने या उड़ने लगते हैं, चेहरे के कोण बिगड़ने लगते हैं, उसकी रेखाएँ अजीब-अजीब शक्लें लेने लगती हैं. यह आत्मा का साथ कब तक देगा?

तो आत्मा के शरीर से पृथक होने के क्या लक्षण हैं?

कोई कहता है, आप सुंदर लग रहे हैं, तो हम ख़ुश हो जाते हैं. कोई कहता है, आप अपनी उम्र से बहुत कम लग रहे हैं, तो और ख़ुश हो जाते हैं. महिलाओं से कह दिया जाए कि वे अपनी बेटी की मां नहीं, बड़ी बहन लग रही हैं, तो वे तो उछल पड़ेंगीं— सारी लिपाई-पुताई, बालों की रंगाई, जिम और ब्यूटी-पार्लर का ख़र्च सार्थक हो गया.

अब तो हम ख़ुद ही ऐसी स्थिति पैदा कर देते हैं कि लोग कहने को बाध्य हो जाएँ. भाँति-भाँति की मुद्राओं में, भाँति-भाँति की जगहों पर ली गई फ़ोटो फेसबुक पर डाल देते हैं. कहते हैं, किसी-किसी कैमरे में कोई बटन होता है, जो दबाने पर फ़ोटो को अतिरिक्त सुन्दर बना देता है। अब किसकी शामत आई है कि अहो-अहो वाली टिप्पणी करना तो दूर, ‘लाइक’ का बटन तक न दबाए. तो उम्र के साथ शरीर के पस्त होते जाने के बावजूद, हम अपने चौखटे के ‘लाइक’ किए जाने को, अपने विचार और तर्कों  के ‘लाइक’ किए जाने से कम तरजीह नहीं देते. यह तो आत्मा के शरीर से रंच मात्र भी पृथक्‌ होने का लक्षण नहीं हुआ .
 
सीधी-सी बात है, उम्र बढ़ने के साथ शरीर के प्रति हमारी आसक्ति कम नहीं होती, जबकि प्रकृत रूप से होनी चाहिए.  प्रकृति द्वारा बारंबार दिए गए संकेत के बावजूद हम आत्मा को शरीर से पृथक्‌ मानने की दिशा में एक इंच भी आगे नहीं बढ़ पाते.

एक परिकल्पना के रूप में मोक्ष पर विचार किया जा सकता है. बार-बार किया गया है.

आत्मा और शरीर के पृथक्‌ होने का मतलब है, दृश्य और द्रष्टा का एक हो जाना. कर्म (object) और कर्ता (subject) का एक हो जाना. यह नि:सीमता (infinity) का वह बिंदु है, जो किसी संख्या से परे, किसी अनुमान से परे है. यह वह बिंदु है, जहाँ से अन्य सारे बिंदु सापेक्ष हैं. इसी को बिंदु में सिंधु का समाना कहा गया है (बिंदु में सिंधु समानी/ को अचरज कासो कहौं, हेरनहार हेरानी). [हेरनहार—देखनेवाला;  हेरानी—खो गया. ] जैसे दो दर्पण ठीक आमने-सामने रखकर बीच में कोई खड़ा हो जाए तो उसके बिंब के बिंब के बिंब ..... अनंत बिंब बन जाते हैं.

ईशावास्य उपनिषद इसी अभेद को व्यक्त करनेवाले प्रसिद्ध शांतिपाठ से शुरू होता है—

‘पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात्‌ पूर्णमुदच्यते । पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥‘

[ वह (परम सत्य ) पूर्ण है, यह (सृष्टि भी ) पूर्ण है. पूर्ण से पूर्ण नि:सृत होता है. पूर्ण से पूर्ण के नि:सृत होने पर पूर्ण ही शेष रहता है.]

इसका अर्थ ही नहीं खुलेगा जब तक 'पूर्ण' से नि:सीम (infinity) का अर्थ न लिया जाए. तब शांतिपाठ के इस मंत्र को एक गणितीय समीकरण में इस तरह व्यक्त किया जाएगा—

Infinity - Infinity = Infinity.

और infinity की जो अवधारणा है, उसके हिसाब से यह गणितीय समीकरण एकदम दुरुस्त होगा.

तुलसीदास रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में इसी निरपेक्ष, नि:सीम और सापेक्ष, स:सीम की व्याख्या काकभुसुण्डि-गरुड़  संवाद के माध्यम से करते हैं.

काकभुसुण्डि पक्षिराज गरुड़ को बताते हैं-  ईश्वर (परम सत्य) अपने भक्तों में कभी अभिमान (माया) को घर नहीं करने देता, क्योंकि अभिमान ही जन्म-मरण का कारण और नाना क्लेशों का उत्स है. जब-जब रामचंद्र जी मनुष्य शरीर धारण करते हैं, मैं अयोध्या जाता हूं और एक छोटे कौवे का रूप धरकर उनकी बाललीला देखता हूं और आनंदित होता हूं. उस दौरान, मेरे पास जाने पर प्रभु हँसते हैं और भाग जाने पर रोते हैं, लेकिन जब उनके पैर पड़ने के लिए आगे बढ़ता हूँ तो मुझे मुड़-मुड़कर देखते हुए भाग जाते हैं.

साधारण बच्चों-जैसी उनकी हरकत देखकर एक बारगी मुझे उनके परब्रह्म परमात्मा (परम सत्य) होने पर संदेह हो गया. संदेह होते ही मेरे ऊपर माया छा गई. मैं भ्रम से चकित हो गया. मुझे चकित देखकर बालक रामचंद्र हँस पड़े. फिर वे मुझे पकड़ने को दौड़े. मैं उड़ चला. आकाश में जितना भी ऊंचा उड़ा, उनकी भुजा मेरे पीछे-पीछे, पास ही बनी रही.

मैं ब्रह्मलोक तक गया, लेकिन उनकी भुजा बस दो अंगुल के फ़ासले पर मेरे पीछे थी. जहां तक मेरी गति थी, वहां तक गया पर पीछा न छूटा. फिर मैं व्याकुल हो गया और आँखें बंद कर लीं. आंख खुली तो मैं अयोध्यापुरी में था. और बालक राम मुझे देखकर मुस्करा रहे थे.

हँसने के लिए उनका मुख खुलते ही मैं उसी में घुस गया. मैंने उनके पेट में अनेक ब्रह्माण्डों के समूह देखे, जिनमें विचित्र-विचित्र लोक थे. करोड़ों ब्रह्मा, करोड़ों शिव, अनगिनत तारे, अनगिनत सूर्य, अनगिनत पृथ्वी, सृष्टि का अनंत विस्तार.

मैं एक-एक ब्रह्माण्ड में सौ-सौ वर्ष रहा. सभी में अलग-अलग ब्रह्मा, शिव, विष्णु, मनु, मनुष्य, राक्षस, पशु, पक्षी. सब में भिन्न-भिन्न अयोध्या, भिन्न-भिन्न सरयू. भिन्न-भिन्न नर-नारी, भिन्न-भिन्न दशरथ, कौशल्या, भरत आदि भाई.

मैं अनंत ब्रह्माण्डों में फिरा लेकिन रामचंद्र को दूसरा नहीं देखा. इस रहस्य से मुझे व्याकुल देखकर राम फिर हँस दिए. और मैं उनके मुख से बाहर आ गया. जब बाहर आया तो मैंने पाया कि दो घड़ी के भीतर मैं यह सब देख आया और सारे ब्रह्माण्डों में ‌(सौ-सौ साल) रह भी आया.  

यहां दो मूल संकेत हैं:

एक— ‘राम न देखेउँ आन’, सब कुछ अनगिनत हैं, लेकिन राम एक हैं, राम= परम सत्य, परम  तत्व   (supreme reality).

दो— ‘उभय घरी महँ मैं सब देखा’, एक-एक ब्रह्माण्ड में सौ-सौ साल रहे किंतु बाहर आकर पाया कि दो घड़ी में सब पूरा हो गया. परम तत्व का स्थान और समय से परे होना.

हमारे मित्र यहां आइंस्टीन के सापेक्षता-सिद्धांत की झलक पा सकते हैं, हर ‘ब्रह्माण्ड ’ को अलग-अलग सौर-मंडल मानते हुए समयातीत और स्थानातीत अंतरिक्ष-यात्रा भी कर सकते हैं. Cosmology का पूरा रूपक सामने है.

[ स्व. जगदीश नारायण तिवारी जी से हुए एक वार्तालाप के आधार पर ]
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