जाना धर्मशील जी का, काशी से ठहाकों का चले जाना भी है

जाना धर्मशील जी का, काशी से ठहाकों का चले जाना भी है वाराणसीः धर्मशील चतुर्वेदी नहीं रहे. कल अपराह्न सर सुन्दरलाल अस्पताल के गहन चिकित्सा कक्ष में 84 वर्ष की आयु में उन्होंने अन्तिम सांस ली. उनके नाम को, बिना किसी विशेषण के लिखना कितना अजीब लगता है, परन्तु क्या किया जाय, उन्होंने अपने से आगे किसी विशेषण को बढ़ने ही नहीं दिया.

काशी हिंदू विश्वविद्यालय में पढ़ते समय राजनीति से शुरुआत की, तो सन् 1958 में वहां से निकाल दिये गये. पढ़ाई भी किसी एक क्षेत्र में नहीं. जिधर मन हुआ उसी ओर बह चले, नहीं जमा तो दूसरी धारा की ओर मुड़ गये. छात्र राजनीति से सार्वजनिक क्षेत्र में आये तो स्वतंत्र पार्टी से चुनाव भी लड़ लिये.

अर्थोपार्जन के लिए वकालत को पेशा के रूप में चुना तो पत्रकारिता से पुराना प्रेम, अपनी ओर खींच लेता था. दैनिक ‘आज’, ‘जनवार्ता’, ‘गाण्डीव’, ‘काशीवार्ता’ के माध्यम से इस क्षेत्र में वे लगातार बने रहे. ‘तुला’ साप्ताहिक पत्र भी निकाला. चित्र बनाते-बनाते प्रयोगवादी कला पत्रिका ‘तूलिकांकन’ से जुट गये। कविमंचों के तो वे अनिवार्य अंग ही थे.

कविता और लेखन में उनकी प्रिय विधा हास्य व्यंग्य ही थी. उलूक हो या पहली अप्रैल पत्रिकाओं का प्रकाशन हो या इनके समारोहों का आयोजन क्या बिना धर्मशीलजी के सम्भव था. होलिकोत्सव के समय आयोजित होली कविसम्मेलन के तो वे स्थाई अध्यक्ष ही थे.
 
धर्मशीलजी के नाम के आगे क्या विशेषण लगाया जाय? वरिष्ठ अधिवक्ता, वरिष्ठ पत्रकार, कविमंचों के सिद्ध कवि एवं संचालक, प्रयोगवादी चित्रकार या बनारसविद.

डा वैद्यनाथ सरस्वती एवं डा जगन्नाथ उपाध्याय द्वारा सम्पूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय में बनारस को केन्द्रित कर आयोजित सप्तदिवसीय संगोष्ठी में प्रस्तुत वनारसी गुंडा पर उनका आलेख याद है.

‘जनवार्ता’ दैनिक में अष्ठावक्र के नाम से लिखे गये ‘आठवां कालम’ में सामयिक विषयों पर उनके चंद लाइनों की टिप्पणियां भी लोगों के जेहन में तैरती रहती हैं.

धर्मशीलजी से व्यक्तिगत परिचय के पूर्व मेरा परिचय उनके अट्टहास से हुआ था. मोहनलाल गुप्तजी और साथियों के साथ देढ़सी के पुल (दशाश्वमेध) के पान की दुकान पर लगी अड़ी से एकाएक गूंज उठा अट्टहास करीब-करीब गोदौलिया चौराहे तक सुनाई दे जाता था.

हालांकि मैं जानता था  कि वे आचार्य सीताराम चतुर्वेदी के पुत्र हैं और इनके वड़े भाई मेरे पिताजी के अभिन्न मित्र हैं, परन्तु उस अड़ी के पास जाने का साहस भी नहीं कर सकता था.

उनसे व्यक्तिगत परिचय जब मैं जनवार्ता के सम्पादकीय विभाग में शामिल हुआ तब हो पाया और यह परिचय अंतिम दिन तक कायम रहा. कल अस्पताल के गहन चिकित्साकक्ष में मैं और श्यामनारायण पाण्डेय जी उनसे मिलने गये तो उस दारुण कष्ट की स्थिति में भी चेहरे पर परिचय उभर आया और प्रणाम करने पर हल्का सा सिर झुका कर आशीर्वाद दिया तथा इशारे से सांस लेने में हो रही तकलीफ को भी बताया.

आक्सीजन मास्क चड़ा हुआ था. बाहर बैठे सपत्नीक उनके पुत्र विक्रमशील हताश दिखे. देखिए भाईसाहेब क्या होता है? पान ने फेफड़े को खोखला कर दिया है. डाक्टर भी स्थिति निराशाजनक बता रहे हैं. एक बार डाक्टर के के त्रिपाठी ने पान छोड़ देने केलिए कहा तो बोले-खुदकुशी करने के लिए कह रहे हैं. डाक्टर भी चुप लगा गये.

जीवन  भर अपने में कई संस्थाओं और विशेषणों को समेटे इस हंसते-हंसाते छह फुटे बनारसी को बनारसी पान खा गया. ऊँ शांतिः शांतिः शांतिः.

# लेखक योगेन्द्र नारायण शर्मा काशी के वरिष्ठ संपादक, पत्रकार और चर्चित समाजसेवी हैं. वह समाजवाद को लेकर अपनी समझ और विचारों के लिए भी जाने जाते हैं. श्री चतुर्वेदी को यह श्रद्धांजलि उनके फेसबुक वॉल से.
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