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हे राम! गांधीजी क्या कलैंडर की तस्वीर व राष्ट्रपिता भर?

हे राम! गांधीजी क्या कलैंडर की तस्वीर व राष्ट्रपिता भर? मोहन दास करमचंद गांधी कौन थे. अफ्रीकी कहते हैं भारत ने हमारे पास गांधी भेजा, हमने उन्हें महात्मा वापस किया. शायद महात्मा गांधी को, परलोक में यकीन न हो कि उनका वो पुत्र जिसने शपथ ले रखी है संविधान रक्षा की, देश की एकता, अखंडता, अक्षुण्णता की, धर्मनिरपेक्षता और भाईचारे को बनाए रखने की, आज खादी पेटेंट की बात करेगा, भारतीय करेंसी से तस्वीर हटाए जाने की बात कहेगा।

काश! गांधीजी होते तो शायद वो स्वीकार ही नहीं करते कि उनकी तस्वीरें उपयोग की जाएं, लेकिन अफसोस कि देश को स्वतंत्रता दिलाने के कुछ ही महीनों बाद उनकी हत्या कर दी गई। यदि ऐसा न होता तो संभव है, उनकी बहुत सी प्रार्थनाएं, याचनाएं, निवेदन और मनुहारें सामने आ पातीं।

गांधीजी खादी, नोट और हर उस जगह, जहां उनको आज की भाषा में ब्रांड एंबेस्डर बनाए जाने का ऐतराज कर चुके होते। गांधीजी नहीं हैं, लेकिन उनका देश के प्रति प्रेम कभी चुकेगा नहीं। यही कारण है कि सरकारें चाहे जिसकी रही हों, गांधीजी सबके लिए आदर्श रहे, प्रेरणा के स्रोत रहे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी गांधीजी से प्रभावित हैं। उनके प्रेरक प्रसंगों और उद्गारों की चर्चा करते थकते नहीं।

मोदीजी के स्वच्छ भारत मिशन का प्रतीक चिह्न भी तो गांधीजी का चश्मा ही है, जिसके एक कांच पर 'स्वच्छ' और दूसरे पर 'भारत' लिखा है। काश भाजपा नेता अनिल विज ने इस भावना को अपने चश्मे के बजाय प्रधानमंत्री के चश्मे से देखा होता।

तरकश से निकला तीर और जुबान से निकले शब्द कभी वापस नहीं होते। अब भले ही, अपने कई विवादित बयानों के बाद फिर से विवादों में आए हरियाणा के मंत्री अनिल विज ने ट्वीट कर कहा हो, "महात्मा गांधी पर दिया बयान मेरा निजी बयान है। किसी की भावना को आहत न करे इसलिए मैं इसे वापस लेता हूं।"

शायद उन्हें यह पता नहीं कि जिस सोशल मीडिया का सहारा लेकर सफाई दे रहे हैं, उसी सोशल मीडिया पर उनका विवादित वीडियो भी वायरल हो रहा है। अनिल विज भूल गए कि मन की बात कहकर पलटने का मतलब देश समझता है, लोकतंत्र का रखवाला समझता है। मन की बात के मायने काश प्रधानमंत्री से पूछ लिए होते।

यकीनन बयान वापसी से पहले के उनके शब्द बल्कि कहें कि उनकी अंतर आत्मा के उवाच "गांधीजी ने कोई खादी का ट्रेडमार्क तो करा नहीं रखा है। पहले भी कई बार उनकी तस्वीर नहीं लगी है। गांधीजी का तो नाम ही ऐसा है जिस चीज पर लग जाती है वो चीज डूब जाती है। रुपये के ऊपर लगी और रुपया हमारा डूबता ही चला गया।"

संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति को कितनी शोभा देता है, ये तो उनसे भी ऊंचे पदों पर बैठे लोग जानें। लेकिन उस बापू को, जिसको पूरे देश ने 'राष्ट्रपिता' स्वीकारा, जिसने बिना खड़ग, बिना ढाल आजादी का उपहार इस देश को दिया, उसके लिए यह सोच न केवल निंदनीय है, बल्कि शायद किसी को भी स्वीकार्य नहीं होगी। गांधीजी डायरी, कैलेंडर और खादी से ऊपर हैं, वो देश से भी ऊपर हैं, क्योंकि पिता एक ही होता है, वो तो देश के पिता हैं, राष्ट्रपिता!

शायद अति उत्साह में या शीर्ष नेतृत्व का निगाहबन बनने के लिए माता-पिता को लज्जित करना काबिले माफी है या नहीं, नहीं पता। बस इतना पता है कि बापू ने कभी भी कुछ भी ट्रेडमार्क नहीं कराया। यहां तक कि लंगोटी, लाठी और चश्मा, खून से सनी मिट्टी, छलनी सीना और जर्जर शरीर तक यहीं छोड़कर चले गए। बावजूद, यह सब उनके नाम पर सियासत, यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है या स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति नहीं पता, पता है तो बस इतना, अगर वो जिंदा होते तो सुनते ही अनिल विज को बिना मांफी मांगे, माफ जरूर कर देते।
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