भगवान और इनसान के बीच संबंध निजी मामला, धर्म के नाम वोट मांगना गैरकानूनी: सुप्रीम कोर्ट
जनता जनार्दन संवाददाता ,
Jan 02, 2017, 12:17 pm IST
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नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट की सात जजों की संवैधानिक पीठ ने एक अहम फैसले में आज कहा कि प्रत्याशी या उसके समर्थकों के धर्म, जाति, समुदाय, भाषा के नाम पर वोट मांगना गैरकानूनी है.
चुनाव एक धर्मनिरपेक्ष पद्धति है. इस आधार पर वोट मांगना संविधान की भावना के खिलाफ है. जन प्रतिनिधियों को भी अपने कामकाज धर्मनिरपेक्ष आधार पर ही करने चाहिए. आने वाले पांच राज्यों में इसका असर होने की संभावना है. दरअसल सुप्रीम कोर्ट में इस संबंध में एक याचिका दाखिल की गई थी, इसके तहत सवाल उठाया गया था कि धर्म और जाति के नाम पर वोट मांगना जन प्रतिनिधित्व कानून के तहत करप्ट प्रैक्टिस है या नहीं. जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा-123 (3) के तहत 'उसके' धर्म की बात है और इस मामले में सुप्रीम कोर्ट को व्याख्या करनी थी कि 'उसके' धर्म का दायरा क्या है? प्रत्याशी का या उसके एजेंट का भी. मामले की सुनवाई के दौरान मसला ये आया कि जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 123 (3) के तहत ' उसकी' क्या व्याख्या होगी. इसके तहत धर्म के नाम पर वोट न मांगने की बात है. एक्ट के तहत उसके धर्म (हिज रिलीजन) की बात है. कोर्ट इस बात को एग्जामिन कर रहा है कि उसके धर्म का मतलब किस तरह से देखा जाए. सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस टीएस ठाकुर की अगुवाई वाली बेंच ने इस मामले में सुनवाई के दौरान जनप्रतिनिधित्व कानून के दायरे को व्यापक करते हुए कहा कि हम ये जानना चाहते हैं कि धर्म के नाम पर वोट मांगने के लिए अपील करने के मामले में किसके धर्म की बात है? कैंडिडेट के धर्म की बात है या एजेंट के धर्म की बात है या फिर तीसरी पार्टी के धर्म की बात है जो वोट मांगता है या फिर वोटर के धर्म की बात है. पहले इस मामले में आए जजमेंट में कहा गया था कि जन प्रतिनिधत्व कानून की धारा-123 (3) के तहत धर्म के मामले में व्याख्या की गई है कि उसके धर्म यानी कैंडिडेट के धर्म की बात है. इससे पहले पिछले 6 दिनों में लगातार मामले की सुनवाई हुई और इस मामले में सीनियर एडवोकेट श्याम दीवान, अरविंद दत्तार, कपिल सिब्बल, सलमान खुर्शीद और इंदिरा जय सिंह आदि ने तमाम दलीलें पेश की. बीजेपी कैंडिडेट के वकील की दलील थी कि धर्म के नाम पर वोट का मतलब कैंडिडेट के धर्म से होना चाहिए. इसके लिए व्यापक नजरिये को देखना होगा. राजनीतिक पार्टी अकाली दल का गठन मॉइनॉरिटी (सिख) के लिए काम करने के लिए बना है. आईयूएमएल माइनॉरिटी मुस्लिम के कल्याण की बात करता है. वहीं डीएमके लैंग्जेव के आधार पर काम करने की बात करता है.ऐसे में धर्म के नाम पर वोट मांगने को पूरी तरह से कैसे रोका जा सकता है. वहीं दूसरी तरफ कांग्रेस कैंडिडेट की ओर से पेश सीनियर एडवोकेट कपिल सिब्बल की दलील थी कि किसी भी कैंडिडेट, एजेंट, तीसरी पार्टी द्वारा धर्म के नाम पर वोट मांगना करप्ट प्रैक्टिस है. नेट के युग में सोशल मीडिया के माध्यम से धर्म के नाम पर वोटर को अट्रैक्ट किया जा सकता है. राजस्थान, मध्यप्रदेश व गुजरात की ओर से पेश एडीशनल सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने दलील दी कि धर्म को चुनावी प्रक्रिया से अलग नहीं किया जा सकता हालांकि कैंडिडेट धर्म के नाम पर वोट मांगता है तो ये करप्ट प्रैक्टिस माना जाए. इस पर चीफ जस्टिस ने टिप्पणी की कि राज्य इस तरह का रिप्रेजेंटेशन क्यों दे रही है. क्यों धर्म के नाम पर इजाजत दी जाए. संसद का मकसद साफ है कि किसी भी इस तरह के वाकये को स्वीकार न किया जाए. इसी बीच इस मामले की सुनवाई के दौरान माकपा ने मामले में दखल की अनुमति की गुहार लगाई. पार्टी महासचिव की ओर से इस मामले में दखल के लिए अर्जी दाखिल की गई थी. सीपीएम की दलील थी कि धर्म के नाम पर वोट मांगने पर चुनाव रद्द हो. सुप्रीम कोर्ट के सात जजों की बेंच ने एक बार फिर साफ किया कि वह हिंदुत्व के मामले में दिए गए 1995 के फैसले को दोबारा एग्जामिन नहीं करने जा रहे. 1995 के दिसंबर में जस्टिस जेएस वर्मा की बेंच ने फैसला दिया था कि हिंदुत्व शब्द भारतीय लोगों की जीवन शैली की ओर इंगित करता है. हिंदुत्व शब्द को सिर्फ धर्म तक सीमित नहीं किया जा सकता. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जो 1995 में फैसला दिया था वह उस पर पुनर्विचार नहीं करेगा और न ही उसे दोबारा एग्जामिन करेगा. गुरुवार को मामले की सुनवाई के दौरान एडवोकेट केके वेणुगोपाल की दलील के दौरान चीफ जस्टिस टीएस ठाकुर की बेंच ने कहा कि आप हिंदुत्व वाले जजमेंट को रेफर क्यों कर रहे हैं. हम उस जजमेंट को एग्जामिन नहीं कर रहे. ये मसला हमारे पास रेफर नहीं है. गौरतलब है कि हाल ही में सोशल एक्टिविस्ट तीस्ता सीतलवाड, रिटायर प्रोफेसर शम्सुल इस्लाम और दिलीप मंडल ने अर्जी दाखिल कर धर्म और राजनीति को अलग करने की गुहार लगाई हुई है. |
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