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मुस्लिम पर्सनल लॉ के विवाद साल 2017 में दिखाएंगे रंग

मुस्लिम पर्सनल लॉ के विवाद साल 2017 में दिखाएंगे रंग नई दिल्लीः  क्या ईश्वरीय आदेश मानव निर्मित कानूनों के मुकाबले अधिक पवित्र हैं? क्या किसी समुदाय के ‘पर्सनल लॉ’ संविधान से ऊपर होते हैं?

यह वे सवाल हैं जो गुजर रहे साल 2016 में देश की समग्र चेतना को झकझोरते रहे। तीन दशक पूर्व जिन सवालों को एक धारणा के मुताबिक ‘जबरन’ हल कर दिया गया था, वे एक बार फिर कानूनी मामलों की शक्ल में सामने आ गए हैं।

यह साल कई बार मुस्लिम धार्मिक परंपरावादियों, अदालतों और उदारवादी धारणाओं के बीच तकरार का गवाह बना। मुस्लिम धर्मगुरुओं का यह दावा बार-बार सवालों के घेरे में आता रहा कि पर्सनल लॉ समीक्षा से परे है।

1985-86 के शाहबानो जैसा मामला 2016 में शायरा बानो मामले की शक्ल में सामने आ खड़ा हुआ। 1985-86 के शाहबानो मामले में सर्वोच्च न्यायालय के तलाकशुदा महिला के पक्ष में दिए गए फैसले को राजीव गांधी सरकार ने संसद में अपने प्रचंड बहुमत के बल पर पलट दिया था और नया कानून बना दिया था।

उत्तराखंड की शायरा बानो ने तीन तलाक पर रोक लगाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर की हुई है। शायरा ने अपने 14 साल के विवाहित जीवन में बहुत कुछ झेला।

दो बच्चों की मां शायरा का कहना है कि उसे छह बार गर्भपात के लिए बाध्य किया गया। उसे उसके नजदीकी रिश्तेदारों से मिलने नहीं दिया गया (शायरा के पति को इससे इनकार नहीं है)। शादी बचाने के लिए वह सब सहती रही। लेकिन, शादी नहीं बची। एक दिन उसे तार के जरिए पति का तलाकनामा मिल गया।

सर्वोच्च न्यायालय इस मामले की सुनवाई कर रहा है।

परंपरावाद और रूढ़िवाद के समर्थकों को एक झटका इस साल उस वक्त लगा जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने तीन तलाक को मुस्लिम महिलाओं के साथ जुल्म करार दिया। अदालत ने उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर की हेना और उमरबी नाम की दो महिलाओं की याचिका पर सुनवाई के दौरान यह टिप्पणी की।

अदालत ने कहा कि इस्लामी कानून की गलत व्याख्या की जा रही है।

महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ने वालों को इस साल तब बड़ी जीत मिली जब पांच साल तक चले कानूनी मामले में बम्बई उच्च न्यायालय ने उनके पक्ष में फैसला सुनाया और कहा कि महिलाओं को पुरुषों की ही तरह हाजी अली दरगाह में प्रार्थना का अधिकार है।

इस बीच, केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय से कहा कि तीन तलाक, निकाह हलाला और बहुविवाह न तो इस्लाम के अभिन्न अंग हैं और न ही अनिवार्य धार्मिक कृत्य।

इस मामले में मुस्लिम धर्मगुरु और मुसलमानों में विभिन्न मतों और न्यायशास्त्रों को मानने वाले विभिन्न मुस्लिम संगठन अपनी अलग राय के बावजूद सरकार के कदम के खिलाफ एक मंच पर आ गए। उन्होंने सरकार के कदम को ‘समुदाय के निजी कानूनों में अवांछित दखलंदाजी करार दिया।’

लेकिन, अदालतों पर इस विरोध का असर होता नहीं दिखा।

अक्टूबर में विधि आयोग ने समान सिविल संहिता पर लोगों की राय जानने के लिए अपनी वेबसाइट पर 16 सवालों की सूची रखी।

आल इंडिया पर्सनल लॉ बोर्ड के नेतृत्व में विभिन्न मुस्लिम संगठनों ने इसका तीखा विरोध किया और प्रश्नावली को ‘गुमराह करने वाली और विभाजनकारी’ करार दिया।

मुसलमानों के सभी संप्रदाय, शिया-सुन्नी, देवबंदी-बरेलवी, अहले हदीस सभी ने इसे समुदाय की पहचान पर एक ‘स्वीकार नहीं किया जा सकने वाला हमला’ बताया। उन्होंने कहा कि नरेंद्र मोदी सरकार उत्तर प्रदेश और पंजाब समेत पांच राज्यों में होने वाले चुनाव से पहले मामले का राजनीतिकरण कर रही है।

1980 में पिृतसत्ता के पैरोकारों के ऐसे ही दबाव के सामने राजीव गांधी सरकार झुक गई थी। लेकिन, मोदी सरकार ने महिला अधिकारों के प्रति खुद को ‘प्रतिबद्ध’ बताया। वरिष्ठ सरकारी ओहदेदारों ने खुलकर समान सिविल संहिता की वकालत की।

किसी भी राजनीतिक दल ने समान सिविल संहिता का विरोध तो नहीं किया लेकिन कई ने कहा कि इसे थोपा नहीं जाना चाहिए, इस पर ‘आम सहमति’ बनाई जानी चाहिए।

मुस्लिम धार्मिक परंपरावादी और केंद्र सरकार, दोनों अपने रुख पर कायम हैं। ऐसे में लगभग तय है कि 2017 में शायरा बानो जैसे मामलों से कई चिंगारियां फूटेंगी।
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