कश्मीर में बंद का सौवां दिन, हालात को सभी ने 'समय' पर छोड़ा

कश्मीर में बंद का सौवां दिन, हालात को सभी ने 'समय' पर छोड़ा श्रीनगर: आतंकी कमांडर बुरहान वानी के मारे जाने के बाद से कश्मीर घाटी में जारी सरकार विरोधी प्रदर्शन, प्रशासन के लगाए प्रतिबंध और अलगाववादियों के आह्वान पर होने वाला बंद सोमवार को सौवें दिन में प्रवेश करने जा रहा है।

8 जुलाई को बुरहान वानी के मारे जाने के बाद से जारी हिंसा में 91 लोग मारे जा चुके हैं। 12 हजार लोग घायल हो चुके हैं। और, सौ से अधिक लोग ऐसे हैं जो पैलेट गन की चपेट में आने की वजह से अब शायद कभी दुनिया को अपनी आंखों से न देख सकें। उनके नेत्रहीन होने का खतरा पैदा हो गया है।

इतने नुकसान और सौ दिन के बाद भी हालात तनावपूर्ण बने हुए हैं। और, अब हालात ऐसे बन गए हैं कि अलगाववादियों और महबूबा मुफ्ती सरकार, दोनों ने लगता है कि समस्या के हल का फैसला 'समय' पर छोड़ दिया है। दोनों को ही लगता है कि 'समय' अपने आप कोई न कोई रास्ता निकालेगा। उन्हें लगता है कि थकान ही स्थिति को सामान्य बनाने में निर्णायक भूमिका निभाएगी।

अलगाववादियों के एक समर्थक ने आईएएनएस से कहा, "आज नहीं तो कल या इसके बाद, भारत इस बात को समझेगा कि सम्मान के नाम पर बैठे रहने का कोई अर्थ नहीं है और वह लोगों की मांग मानने पर मजबूर हो जाएगा।

"दूसरी ओर मुख्यधारा के नेताओं, खासकर जिनका संबंध सत्ता से है, का मानना है कि समय बीतने के साथ ही आंदोलन भड़काने वालों को अंतहीन हिंसा की निर्थकता का अहसास हो जाएगा।

राज्य में सत्तारूढ़ पीडीपी-भाजपा गठबंधन से संबद्ध एक नेता ने कहा, "कब तक वे लोग (अलगवावादी) लोगों को यह बताते रहेंगे और उम्मीद करते रहेंगे कि लोग उनकी इस बात पर विश्वास करें कि आजादी झेलम के उस पार, बस बैठी हुई है।"मजे की बात यह है कि अलगाववादियों के सर्मथक ने और मुख्यधारा के नेता ने अपना नाम जाहिर न करने की शर्त पर यह बातें कहीं।

शायद इसलिए कि दोनों ही लोगों को लंबे समय से अमूर्त वादों की घुट्टी पिलाते रहे हैं, या फिर यह भी हो सकता है कि ढंकी-छिपी यह स्वीकारोक्ति भी उनके लिए समस्या बन सकती है, इसलिए वे नाम बताने से बचे होंगे।दोनों पक्ष उम्मीद लगाए हुए हैं कि वक्त घाव के लिए मरहम की तरह काम करेगा, कोई न कोई समाधान निकालेगा।

'देखो और इंतजार करो' के इस समय में सबसे अधिक परेशान आम कश्मीरी है जिसे दो वक्त की रोटी के लाले पड़े हुए हैं। यह आम कश्मीरी एक अलग तरह के 'सामान्य रोजमर्रा के हालात' से रू-ब-रू हो रहा है, जिसमें हर चीज की बेहद किल्लत है, जहां स्कूल बंद हैं, कीमतें आसमान छू रही हैं और जिसमें कानूनी मशीनरी की गैर मौजूदगी का लाभ उठाकर संगठित अपराधी गिरोह अस्तित्व में आ रहे हैं।सभी सार्वजनिक संस्थानों की ऐसी दुर्गति हुई है कि इन्हें संभलने में सालों लगेंगे।

लेकिन, सर्वाधिक नुकसान उन मासूमों को हुआ है जिनके स्कूल बंद हैं। घाटी में सभी स्कूल-कालेज-विश्वविद्यालय बंद हैं।राज्य सरकार ने शिक्षण संस्थानों को खोलना चाहा, लेकिन इस प्रयास को अलगाववादियों ने सफलतापूर्वक नाकाम कर दिया। उन्हें लगता है कि इन्हें फिर से खोलकर सरकार 'पिछले दरवाजे से' हालात सामान्य बनाना चाह रही है।

इस रस्साकशी में घाटी इस साल स्कूल-कालेज छोड़ने वाली एक और पीढ़ी की गवाह बनने जा रही है।घाटी की जीवनरेखा कहा जाने वाला पर्यटन उद्योग आज से पहले कभी भी इस तरह प्रभावित नहीं हुआ था। जून में लग रहा था कि इस बार का 'टूरिस्ट सीजन' अद्भुत होने जा रहा है। पर्यटकों ने तमाम पर्यटन केंद्रों की बुकिंग करा रखी थी।

लेकिन, हिंसा के बाद सभी कुछ थम सा गया। घाटी में पर्यटन का 'शटर डाउन' हो गया।बागबानी का हाल भी कुछ ऐसा ही रहा। किसी तरह सेब की फसल तैयार होकर बड़ी मंडियों में भेजी गई लेकिन बदले में दाम बेहद कम मिले।दक्षिण कश्मीर में लाजवाब सेबों के लिए मशहूर शोपियां के बागबान शौकत अहमद ने कहा, "सेब की एक पेटी 700 से 800 रुपये दिलाती थी।

लेकिन, इस बार मंडी में हमारी फसल 400 से 450 में ही बिकी।"उन्होंने कहा, "हम कुछ कर नहीं सकते थे। बाहर के डीलर घाटी में नहीं आ सके। हम मोलभाव नहीं कर सके। हमारे पास सिवाय इसके कोई और रास्ता नहीं था कि हम अपनी फसल उन तक भेजते और बदले में वो जो भी देते, उसे कबूल कर लेते।

"ऐसा ही बुरा हाल परिवहन उद्योग और रियल एस्टेट का भी है।सुरक्षाकर्मी कानून और व्यवस्था की स्थिति से जूझ रहे हैं और इसका फायदा स्थानीय तस्कर उठा रहे हैं। वे जंगलों की लकड़ियों को लूटकर उन्हें औने-पौने दाम पर बेचकर कमाई कर रहे हैं।

श्रीनगर के बाशिंदे फयाज अहमद ने कहा, "खुला खेल चल रहा है। जिसके हाथ जो लगे, उसी पर साफ कर रहा है। राज्य सरकार की हैसियत इस हद तक घट गई है कि विभिन्न विभाग तस्करी, अवैध निर्माण और अतिक्रमण के खिलाफ की जाने वाली शिकायत को सुन तक नहीं रहे हैं।"कहते हैं कि वक्त हर जख्म भर देता है। लेकिन, एक आम कश्मीरी के लिए यही वक्त इस साल उन्हें बर्बाद करने वाला साबित हुआ है।
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