फिल्म रिव्यू: बैंजो
जनता जनार्दन डेस्क ,
Sep 23, 2016, 16:53 pm IST
Keywords: Banjo Banjo Review Riteish Deshmukh Nargis Fakhri Movie Review Film Review Bollywood News Entertainment बैंजो बैंजो की समीक्षा रितेश देशमुख नरगिस फाखरी फिल्म समीक्षा फिल्म समीक्षा बॉलीवुड समाचार मनोरंजन
मुंबई: मराठी फिल्मों के पुरस्कृत और चर्चित निर्देशक रवि जाधव की पहली हिंदी फिल्म है ‘बैंजो’। उन्होंने मराठी में ‘बाल गंधर्व’,‘नटरंग’ और ‘बालक पालक’ जैसी फिल्में निर्देशित की हैं। इनमें से ‘बालक पालक’ के निर्माता रितेश देशमुख थे। प्रोड्यूसर और डायरेक्टर की परस्पर समझदारी और सराहना ही ‘बैंजो’ की प्रेरणा बनी। इसके साथ ही दोनों मराठी हैं। ‘बैंजो’ के विषय और महत्व को दोनों समझते हैं। लेखक-निर्देशक रवि जाधव और एक्टर रितेश देशमुख की मध्यवर्गीय परवरिश ने बैंजो को फिल्म का विषय बनाने में योगदान किया।
बैंजो निम्न मध्यवर्गीय वर्ग के युवकों के बीच पॉपुलर सस्ता म्यूजिकल इंस्ट्रूिमेंट है। महाराष्ट्र के साथ यह देश के दूसरे प्रांतों में भी लोकप्रिय है। मुंबई में इसकी लोकप्रियता के अनेक कारणों में से सार्वजनिक गणेश पूजा और लंबे समय तक मिल मजदूरों की रिहाइश है। निर्देशक रवि जाधव और निर्माता कृषिका लुल्लाी को बधाई। ’बैंजो’की कहानी कई स्तरों पर चलती है। तराट (रितेश देशमुख), ग्रीस (धर्मेश येलांडे), पेपर (आदित्य कुमार) और वाजा (राम मेनन) मस्ती के लिए बैंजो बजाते हैं। चारों के पेशे अलग-अलग है, लेकिन त्योहारों और अवसरों पर उनकी म्यूजिकल संगत होती रहती है। संयोग से उनके संगीत का एक टुकड़ा न्यूयॉर्क पहुंच जाता है। भारतीयू मूल की क्रिस (नर्गिस फाखरी) उस संगीत की खोज में मुंबई आती है। यहां उसकी मुलाकात तराट से हो जाती है। पहली ही मुलाकात में तराट को क्रिस अच्छी लगती है। हिंदी फिल्मों में प्रेम का यह फार्मूला कहानी के मूल उद्देश्य से भटका देता है। ‘बैजो’ में भी यही हुआ है। तराट और क्रिस के रोमांटिक ट्रैक में बैंजो का ट्रैक गड्डमड्ड हो गया है। फिर भी रवि जाधव बैंजो बजाने वालों के दर्द और आनंद को पर्दे पर लाने में एक सीमा तक सफल रहते हैं। कहानी में बिल्डर, माफिया, करपोरेटर और दूसरे ट्रैक से भी कहानी भटकती है। रितेश देशमुख पारदर्शी अभिनेता है। परफारमेंस में उनकी ईमानदारी झलकती है। कामेडी और सेक्स कामेडी में उनकी प्रतिभा का दुरूपयोग होता रहा है। ‘बैंजो’ उन्हें प्रतिभा प्रदर्शन का बेहतरीन मौका देती है। उन्होंंने लगन और ऊर्जा के साथ इस किरदार को निभाया है। उनकी मौजूदगी फिल्म में मराठी लोकल और फ्लेवर ले आती है। निर्देशक पर इसे हिंदी फिल्म बनाने का दबाव रहा होगा, तभी यह फिल्म स्थानीय विशेषता के बावजूद बार-बार मेनस्ट्रीम सिनेमा के फार्मूले में घुसती है। कलाकारों का सटीक चुनाव फिल्म की खासियत है। आदित्य कुमार, धर्मेश येलांडे और राम मेनन ने अपने किरदारों को स्थानीय रंग और तेवर दिया है। भाष, लहजा और एटीट्यूड में वे अपने किरदारों की खूबियां जाहिर करते हैं। लेखक ने तीनों सहयोगी किरदारों को बराबर अवसर दिए हैं। नरगिस फाखरी को खुद के व्यक्तित्व से बहुत अलग नहीं जाना था, इसलिए वह भी ठीक लगी हैं। हिंदी में स्थारनीय विशेषताओं की फिल्में बनती रहनी चाहिए। बैंजो’ में मुंबई के उस चालीस प्रतिशत बस्ती की कहानी है, जहां मेनस्ट्रीम हिंदी फिल्मों के कैमरे नहीं जाते हैं। अगर कभी गए भी तो उनके ग्रे शेड ही नजर आते हैं। इस फिल्म में शहर की मलिन बस्तियां जिंदगी और जोश से लबरेज हैं। स्थानीय फ्लेवर की फिल्मोंं का मेनस्ट्रीम सिनेमा के तत्वों से उनका कम घालमेल हो तो हम हिंदी सिनेमा का विस्तार कर पाएंगे। ‘बैंजो’ अच्छी कोशिश है। प्रमुख कलाकार- रितेश देशमुख, नर्गिस फाखरी निर्देशक- रवि जाधव |
क्या आप कोरोना संकट में केंद्र व राज्य सरकारों की कोशिशों से संतुष्ट हैं? |
|
हां
|
|
नहीं
|
|
बताना मुश्किल
|
|
|