आपातकाल को भुला पाना मुमकिन नहीं!
जनता जनार्दन डेस्क ,
Jun 25, 2016, 12:10 pm IST
Keywords: Mahdya Pradesh 39 Years Chhatarpur Dr. Pushkar Nayarayan Pauranik Collector Emergency Police officers मध्य प्रदेश 39 वर्ष छतरपुर डॉ। पुष्कर नारायण Pauranik कलेक्टर इमरजेंसी पुलिस अधिकारियों
भोपाल: आपातकाल को खत्म हुए भले ही 39 बरस बीत गए हों, मगर उसकी यादें अब भी बाकी है, हमने कभी जेल तो नहीं देखा, मगर आपातकाल के दौरान पिताश्री डॉ. पुष्कर नारायण पौराणिक के जेल में रहने के दौरान जो कुछ देखा और सहा, वह आज भी ठीक वैसे ही याद है, जैसे कल की ही बात हो आपातकाल।
वैसे तो पिताजी मध्यप्रदेश के छतरपुर जिले के शहर में स्थित सरकारी अस्पताल में आयुर्वेदिक चिकित्सक हुआ करते थे, मगर हर व्यक्ति की मदद के लिए खड़े होने की आदत, कर्मचारी नेता और व्यवस्था के खिलाफ किसी से भी उलझ जाने के स्वभाव के कारण कर्मचारी कम सामाजिक कार्यकर्ता की पहचान ज्यादा रखते थे। सरकार के खिलाफ होने वाले आंदोलन हों या कोई चुनाव, हर तरफ अपनी उपस्थिति दर्ज कराने को आतुर रहना उनकी फितरत थी। सरकारी नौकरी में आने के बाद लगभग एक दशक तक छतरपुर में रहते हुए सरकार के खिलाफ होने वाली हर गतिविधि का हिस्सा बनने के कारण उन्हें कांग्रेसी विरोधी माना जाने लगा था, यही कारण था 25-26 जून 1975 की दरम्यानी रात को आपातकाल लगने के बाद से उनकीआयुर्वेदिक गिरफ्तारी के प्रयास शुरू हो गए थे। कई पुलिस अफसरों से चिकित्सक के चलते अच्छे रिश्ते थे तो उन्हें बुलाकर कहा कि डाक्टर माफीनामा भर दें, तो उनकी गिरफ्तारी नहीं होगी, मगर उन्होंने माफीनामा देने से इनकार कर दिया और आखिरकार 23 जुलाई 1975 को उनकी गिरफ्तारी तब हुई, जब वे अस्पताल जाते वक्त एक मिठाई व्यवसायी के यहां बैठे थे। पिताजी की गिरफ्तारी की खबर तब मिली, जब एक व्यक्ति उनकी साइकिल लेकर घर आया। माताजी माधवी देवी और हम पांच भाई-बहन कुलदीप, प्रदीप, मैं (संदीप) और बहन ओमश्री व जयश्री गिरफ्तारी से स्तब्ध थे। सभी एक-दूसरे से यही पूछे जा रहे थे कि अब क्या होगा, पिताजी कब आएंगे। मगर किसी के पास उत्तर नहीं था। उस वक्त बड़े भाई कुलदीप उस समय 10वीं में पढ़ते थे। मां सरकारी स्कूल में निम्न श्रेणी की शिक्षिका थीं। पिताजी के जेल जाते ही जिंदगी बदल गई थी, क्योंकि वे ही हम सभी भाई-बहनों की जरूरतों को पूरा किया करते थे। पिताजी की गिरफ्तारी के बाद बहुत कम लोग ऐसे थे, जो बात भी करने को तैयार हों, सभी डर सहमे होते थे। इस दौर में मकान मालिक रामचरण असाटी ने साफ कह दिया कि किराया तो अब तभी लेंगे, जब डाक्टर साहब छूटकर आ जाएंगे। वक्त गुजरने के साथ हालात बिगड़ते गए, मां अकेली कमाने वाली और हम पांच भाई-बहनों का लालन-पालन की जिम्मेदारी। ऐसे लगता था कि सभी टूट जाएंगे, मगर मां थी कि वह हार मानने को तैयार नहीं थी। एक दिन दादी मां मानकुंवर बाई ने माताजी से कहा कि ‘बेटा, जब जेल जाओ तो पुष्कर से कहना कि वह माफीनामा लिख दे, इंदिरा उसे छोड़ देगी। मां जब जेल से मिलकर लौटी तो दादी मां ने पूछा, ष्पुष्कर से माफीनामा लिखने के लिए कहा था?’ इस पर माताजी ने विनम्रता से कहा, ‘मां, अगर उन्होंने कोई गलती की होगी तो माफी भगवान से मांगेंगे, इंसान से किस लिए?’ आपातकाल के बंदियों से एक माह में एक बार ही मुलाकात हुआ करती थी। कई बार तो ऐसा होता था कि हम लोग अपनी मां के साथ इस उम्मीद से एक माह पूरा होने से पहले जेल के बाहर एक पेड़ के नीचे बैठ जाया करते थे कि शायद पिताजी दिख जाएं।
एक बार सभी भाई-बहन जेल जाकर पिताजी से मिलने की जिद करने लगे, इस पर मंझले भाई प्रदीप एक आवेदन लेकर कलेक्टरेट पहुंचे, जहां कलेक्टर के स्टेनों ने कहा कि अभी एक माह नहीं हुआ है, इसलिए मुलाकात नहीं हो सकती। इस पर प्रदीप की आंखों में आंसू आ गए, इस पर स्टेनो का भी दिल पसीज गया और उसने आवेदन को कलेक्टर की फाइल में लगा दिया और कलेक्टर ने मुलाकात की अनुमति दे दी। आपातकाल का सीधा असर हमारी जिंदगी पर पड़ा था। घर की रसोई भी आसानी से नहीं चलती थी। हां, पेट भरने की दिक्कत नहीं थी। वैसे घी, दूध, फल, सब्जी जरूर नियमित रूप से मिलना बंद हो गई थी, क्योंकि मां की कमाई कम थी। एक बार स्कूल में शिक्षक ने छोटी बहन जयश्री, जो दूसरी में पढ़ती थी, से पूछा कि इस समय कौन-कौन सी सब्जी बाजार में आ रही हैं तो उसका जवाब था, ‘मास्टरजी, हमारे घर में कई दिनों से सब्जी ही नहीं बनी।’
इस पर शिक्षक भी यह कहते हुए चुप हो गए कि जयश्री के पिता जेल में हैं। पिताजी 29 जनवरी, 1977 को जब जेल से छूटे तो उनका अंदाज ही बदल गया था। धोती-कुर्ता पहने काफी लंबी दाढ़ी और पीठ तक लहराते घुघराले बाल किसी संत-योगी का एहसास करा जाते थे।
जेल से छूटकर आए तो वे पूर्व विधानसभाध्यक्ष मुकुंद सखाराम नेवालकर, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ पदाधिकारी श्रीनिवास शुक्ल, समाजवादी नेता व पूर्व विधायक जगदंबा प्रसाद निगम से जुड़े किस्से सुनाते थे। जेल के किस्से तब तक चलते रहे, जब तक वे जीवित रहे।
वे जब भी जेल के किस्से सुनाते थे, हमें जेल के बाहर की यादें ताजा हो जाती थीं। अब वे नहीं हैं, मगर आपातकाल लागू होने की तारीख करीब आते ही फिर वही दर्द उभर आता है, जो आपातकाल ने दिए हैं। हां, मेरा खुशहाल बचपन आपातकाल ने ही छीना था। |
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