भारत के पास जलवायु परिवर्तन की समस्या का समाधान!

भारत के पास जलवायु परिवर्तन की समस्या का समाधान! दक्षिण एशिया: भारत के पास एक ऐसी भूगर्भीय सुविधा है जिससे वह दुनिया की जलवायु परिवर्तन की समस्या का प्राकृतिक समाधान कर सकता है, ऐसा कुछ भूवैज्ञानिकों का मानना है।

वैज्ञानिकों को काफी सालों से यह जानकारी है कि जीवाश्म ईंधन के जलाने से कार्बन डाइआक्साइड पैदा होता है जिससे धरती का तापमान बढ़ता है।

हाल ही में पेरिस में हुए जलवायु सम्मेलन में भी दुनिया के सभी देशों से कार्बन डाइआक्साइड के उत्सर्जन में कटौती की गुजारिश की गई ताकि धरती के तापमान में 2 डिग्री से ज्यादा की वृद्धि न हो, जोकि औद्योगिकरण के पहले था। हालांकि लक्ष्य 1.5 डिग्री के अंदर रखने का है।

भारत के पास हालांकि एक विकल्प और भी है जैसाकि कुछ भूवैज्ञानिकों का मानना है। कार्बन डाइआक्साइड गैसों को स्थायी रूप से डेक्कन ट्रैप के नीचे दफन किया जा सकता है।

डेक्कन ट्रैप 6.5 करोड़ साल पहले ज्वालामुखी से निकले लावे की वह मोटी परत है जो भारत प्रायद्वीप के एक तिहाई हिस्से में जमीन के अंदर स्थित है। यह साइबेरिया के बाहर लावे की दुनिया की सबसे बड़ी परत है।

भारत में लावे की इस परत की मोटाई कुछ सौ मीटर से लेकर कुछ हजार मीटर तक की है। वैज्ञानिकों के मुताबिक इसी परत के भीतर कार्बन डाइआक्साइड गैस को ठोस रूप में दफन किया जा सकता है।

गौरतलब है कि दुनिया में कार्बन डाइआक्साइड की समस्या औद्योगिक क्रांति के बाद सामने आई है। दिल्ली विश्वविद्यालय के भूगर्भ वैज्ञानिक जे.पी. श्रीवास्तव ने बताया कि भारत में डेक्कन ट्रैप के अंदर कार्बन डाइआक्साइड गैस की भारी मात्रा को दफन किया जा सकता है।

उन्होंने कहा कि प्रयोगशाला में किए गए अध्ययन से यह साबित होता है कि कार्बन डाइआक्साइड कैल्सियम, मैग्नीसियम और आयरन से भरपूर सिलिकेट के साथ प्रतिक्रिया कर ठोस कार्बन मिनरलों को रूप में बदला जा सकता है। इससे कैल्साइट, डोलोमाइट, मैग्नेसाइट और साइडराइट जैसे ठोस पदार्थ बनता है।

नेशनल थर्मल पॉवर कारपोरेशन के पूर्व कार्यकारी निदेशक रामकृष्ण सोंडे का कहना है कि डेक्कन ट्रैप में कम से कम 30 हजार करोड़ टन कार्बन डाइआक्साइड को रोकने की क्षमता है जोकि दुनिया भर में पिछले 20 सालों में निकले कार्बन डाइक्साइड के बराबर है।

डेक्कन ट्रैप के कार्बन डाइआक्साइड के दीर्घकालीन भंडारण की इस क्षमता को देखते हुए भारतीय सरकारी एजेंसियों ने अमेरिकी वैज्ञानिकों के साथ मिलकर 2007 में इस बारे में व्यवहार्यता अध्ययन किया था।
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