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मैगी पर बवाल: कई सवाल

मैगी पर बवाल: कई सवाल नई दिल्ली: 'बस दो मिनट' की टैगलाइन के साथ 1982 में जब स्विस कंपनी नेस्ले ने मैगी को भारतीय बाजार में उतारा था, तब यहां कम्फर्ट फूड या इंस्टेंट फूड का चलन नहीं था। मैगी आई और छा गई। यह कामकाजी महिलाओं, होस्टल में रहने वाले युवाओं और बच्चाों की पहली पसंद बन गई। इसी मैगी को अब प्रयोगशालाओं और अदालतों से गुजरना प़ड रहा है।

लजीज मैगी से जु़डे कई सवाल अभी भी अनसुलझे हैं। भारतीय बाजार में जगह बनाने और उपभोक्ताओं की खाने-पीने की आदतों में बदलाव लाने के लिए मैगी को काफी पाप़ड बेलने प़डे। खुद को एक ब्रांड के तौर पर स्थापित करने से पहले एक नए फूड कांसेप्ट के तौर पर भारतीयों के मन में जगह बनाने के लिए मैगी को सटीक रणनीति की जरूरत थी।

"मार्केटिंग गिमिक्स" का भरपूर प्रयोग करते हुए कंपनी ने विज्ञापनों में एक ओर महिलाओं को रसोई से मुक्ति का संदेश देकर सबको आकर्षित किया तो दूसरी तरफ बच्चों का ध्यान इसके लाजवाब स्वाद की ओर खींचा गया। नतीजा पूरी तरह मैगी के पक्ष में रहा और उसे सबने हाथों-हाथ लिया।

कुछ ही समय में बतौर इंस्टेंट फूड मैगी सबकी पसंद बन गई क्योंकि धीरे धीरे ही सही कामकाजी महिलाओं के बढ़ते ग्राफ के बीच, ऎसे स्टेपल फूड की जरूरत महसूस हुई जो उनके लिए "क्विक फिक्स" की तरह काम करें, चुटकियों में बनकर तैयार हो और स्वाद में भी लाजवाब हो।

लेकिन इन सबके बीच सेहत का सवाल नजरअंदाज हुआ या फिर विज्ञापनों में "स्वाद भी सेहत भी" जैसे जुमलों पर सबने आंख बंद करके भरोसा कर लिया, यह कहना मुश्किल है। इस बीच भारतीय बाजार में कई अन्य मल्टीनेशनल कंपनियों ने हाथ आजमाए, लेकिन भरपूर कोशिश के बाद भी मैगी के वर्चस्व को नहीं तो़ड पाए।

मैगी ने भी अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए कोशिशों में कोई कोर कसर नहीं छो़डी। वर्ष 2001 में बाजार में छोटे 50 ग्राम पैक उतारे गए, टोमेटो और करी जैसे नए फ्लेवर लॉन्च किए गए। फास्ट टू कुक गुड टू ईट" टैगलाइन ने ग्राहकों के ब़डे वर्ग को जो़डा तो "टेस्ट भी हेल्थ भी" ने मांओं की पोषण की चिंता का जिम्मा संभाला।

भारतीय मांओं की मन:स्थिति की नब्ज पक़डते हुए इस ब्रांड ने खुद को मां और बच्चे के बीच प्यार और देखभाल की क़डी के रूप में पेश किया। विज्ञापनों में खेल कर या स्कूल से आते ही "मम्मी भूख लगी" कहते बच्चों और मां को चुटकियों में गर्मागर्म मैगी परोसकर बच्चों को खुश करते दिखाया गया। 10 रूपये के पैकेट की कीमत पर मैगी ने बिना उम्र या आर्थिक भेदभाव के लगभग तीन दशकों तक सबकी जुबां और दिलों पर राज किया और इस बीच इस पर कोई सवाल नहीं उठाए गए।

लेकिन जब उत्तर प्रदेश के खाद्य विभाग द्वारा की गई जांच में मोनोसोडियम ग्लूटमेट का अंश पाया गया तो भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआई) ने जांच के आदेश दिए और केवल एमएसजी ही नहीं साथ ही लेड (सीसा) भी तय मानक से अधिक मात्रा में पाया गया।

तत्काल कार्रवाई करते हुए एफएसएसएआई ने मैगी की बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया और साथ ही यिप्पी, टॉप रेमन, वाईवाई जैसे अन्य नूडल्स ब्रांड्स की जांच के भी आदेश दे दिए गए। एफएसएसएआई ने मैगी को खाने के लिए असुरक्षित और नुकसानदायक करार देते हुए नेस्ले को मैगी के सभी नौ वैरिएंट्स बाजार से हटाने का आदेश दिया।

कई राज्यों द्वारा मैगी पर प्रतिबंध लगाए जाने के बाद नेस्ले ने बाजार से मैगी को हटा लिया। हालांकि नेस्ले ने यह कहा कि वह फैले निराधार भ्रम के कारण भारतीय बाजार से मैगी हटा रही है, क्योंकि इससे उपभोक्ताओं का विश्वास प्रभावित हुआ है, लेकिन उनके नूडल्स उपभोग के लिए पूरी तरह सुरक्षित हैं। सेहत के लिहाज से असुरक्षित खाद्य उत्पाद परोसने पर इस क़डी कार्रवाई ने जहां कुछ राहत दी तो साथ ही कई सवाल भी ख़डे कर दिए।

पहला सवाल यही उठा कि अगर मैगी सेहत के लिए इस कदर असुरक्षित है तो लगभग तीन दशकों तक इतनी ब़डी मल्टीनेशनल कंपनी कैसे यह खराब उत्पाद भारत के लोगों को परोसती रही। पहले इसकी जांच क्यों नहीं की गईक् भारत में खाद्य पदार्थो में मिलावट और दूषित पदार्थ पाए जाने से जु़डे मुद्दौं में नेस्ले की मैगी का मुद्दा कोई नया नहीं है। ऎसे मुद्दे दशकों सेे सिर उठाते रहे हैं।

हर साल दिवाली जैसे त्योहारों पर नकली घी से लेकर नकली दूध, खोया और अन्य कई खाद्य पदार्थो में मिलावट की खबरें मिलती हैं। लेकिन इस बार भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक की ओर से इस मामले में लिए गए क़डे कदम और कई राज्यों द्वारा दशकों से भारत में कारोबार कर रही मल्टीनेशनल कंपनी के उत्पाद पर प्रतिबंध लगाने के कदम ने इसे राष्ट्रीय मंच पर ला ख़डा किया है। सवाल भारतीय उपभोक्ताओं की सेहत से तो जु़डा ही है, साथ ही सवाल भारत की जांच प्रणाली की ओर भी उंगली उठाता है।

एफएसएसएआई की जांच में खराब पाई गई मैगी को कनाडा, सिंगापुर, ब्रिटेन और अमेरिका सहित छह देशों ने इसे खाने के योग्य करार दिया। भारत में खाद्य सुरक्षा मानक विश्व मानकों की तुलना में काफी नीचे है और यही कारण है कि भारत जो अमेरिका का सातवां सबसे ब़डा खाद्य आपूर्तिकर्ता है, उसके बहुत से उत्पाद अमेरिकी खाद्य एवं औषधि प्रशासन अपने मानकों से निम्न स्तरीय होने के कारण खारिज कर देता है।

अन्य कई देशों में खाद्य सुरक्षा को लेकर कानूनी नियम और दंड विधान इतने क़डे हैं कि कोई भी उन्हें भंग करने के बारे में सोच नहीं सकता। लेकिन भारत में छोटे-ब़डे विक्रेताओं से लेकर मल्टीनेशनल कंपनियां तक नियम-कायदों को ताक पर रखकर बेखौफ खराब दर्जे का खाद्य बेचती हैं। यह खुलासा कई बार हो चुका है। निम्नस्तरीय खाद्य उत्पादों के बाजार को बढ़ाने के लिए मार्केटिंग गिमिक्स, प्राइम टाइम विज्ञापन और नामचीन सेलेब्रिटीज दवारा ब्रांड एंडोर्समेंट के जरिए सेहत के लिए खराब उत्पादों को भी सेहतमंद बना कर बेचा जाता है।

मैगी ने भी खुद को खास बनाने के लिए माधुरी दीक्षित, अमिताभ बच्चन और प्रीति जिंटा जैसे बॉलीवुड के खास सितारों की सेवाएं लीं, जिन्हें बाद में अदालत की ओर से नोटिस जारी किया गया। आम आदमी की सेहत के साथ होने वाले इस "खिलव़ाड" में केंद्र और राज्य के बीच समन्वय की कमी भी एक ब़डा कारण है। इसी तरह खाद्य उत्पादों की जांच के लिए विभिन्न राज्यों की लैबोरेटरीज की कार्यप्रणाली और उपकरणों पर भी सवाल उठते रहे हैं।

खाद्य सुरक्षा और मानक अधिनियम 2006 के तहत एफएसएसएआई को एक स्वतंत्र सांविधिक प्राधिकरण के तौर पर स्थापित किया गया था, लेकिन क्या कारण रहा कि इतने वर्षो तक मैगी की गुणवत्ता की जांच नहीं की गई और इतने लंबे समय तक इसे लेकर कोई सवाल नहीं उठाए गए। सवाल केवल एक खाद्य उत्पाद का नहीं है।

मिलावट से लेकर जांच लैबोरेटरीज की कार्यप्रणाली और उपकरणों, लोगों की भावनाओं को भुनाकर विज्ञापनों के जरिए खराब उत्पाद बेचने पर किसी प्रकार का कोई नियंत्रण न होना, राज्य सरकारों के खाद्य सुरक्षा विभागों में ढिलाई, निरीक्षण स्टाफ का समुचित प्रशिक्षण, पक़डे जाने पर भ्रष्टाचार के कारण कोई कार्रवाई न होना जैसी कई खामियां हैं, जो यह संकेत देती हैं कि केवल मैगी पर प्रतिबंध से कुछ हासिल नहीं होगा।

मैगी मुंबई उच्चा न्यायालय से कानूनी ल़डाई जीत चुकी है, गुजरात व कर्नाटक सहित कई राज्यों में इसकी वापसी हो गई है। नेस्ले कंपनी अब पास्ता पर उठे सवाल से परेशान है। आम उपभोक्ता एक बार फिर दुविधा में है। सवाल यह है कि उपभोक्ता आखिर किस पर भरोसा करें।
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