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श्रीश्री जगन्नाथ: आदिदेव की अनंतकथा

मूल रचना: मनोज दास, ओड़िया से हिन्दी अनुवाद: सुजाता शिवेन , Jul 03, 2011, 12:01 pm IST
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 श्रीश्री जगन्नाथ: आदिदेव की अनंतकथा

आज के इस श्री जगन्नाथ मंदिर के निर्माण के बहुत पहले ही श्री जगन्नाथ विद्यमान थे। आज उनके इस रूप में आविर्भाव होने के रहस्य को लेकर जितनी भी किंवदंती हैं, उनमें भिन्नता होने के बावजूद मूल उपाख्यान का रेखाचित्र बहुत ही सशक्त भाव से आत्मप्रकाश करता है। उस उपाख्यान के साथ अविच्छ्न्न रूप से जुड़े हुए हैं राजा इंद्रद्युम, संधानी विद्यापति, शवर कन्या ललिता, शवर सामंत विश्वावसु ।

मूल किवदंती कुछ अचरज भरे तथ्यों का उपाख्यान करती हैं। इन्द्र्द्युम मालव के होने के बावजूद कलिंग में आकर मंदिर प्रतिष्ठा  कर पाए यह उस समय में एक राज्य का दूसरे राज्य के साथ के महत्त सम्बन्धों को दर्शाता है।

शवर कन्या ललिता का ब्राह्मण विद्यापति के साथ विवाह को लेकर किसी भी तरह का विवाद का होना तो दूर की बात, उनकी संतानों को पवित्र पूजक के रूप में स्वीकार करना एक उदार युग की स्मृति है।
 
धर्म, मत दर्शन, आदर्श, निर्विशेष में श्री जगन्नाथ को आध्यात्म मार्ग के सभी पथिकों ने निर्द्वंद रूप से अपने आराध्य के रूप में ग्रहण किया है। यह उनकी अनन्य विभूति के द्वारा ही संभव हुआ है, जिसकी व्याख्या करना असंभव है।
                   
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कई युग पहले की बात है। राजा इंद्रद्युम विष्णु के एकांत भक्त थे। उनकी बहुत बड़ी इच्छा थी कि वह एक ऐसा मंदिर बनाएँगे जिसमें विष्णु के विग्रह पूजे जायेंगे। पर भारत के भूखंड में मंदिरों का अभाव तो नहीं हैं? उनके द्वारा गढ़े गए मंदिर में पूजा पाने वाले विग्रह के साथ विष्णु का प्रत्यक्ष संबंध होना चाहिए, एक जीवंत विग्रह !

पर उस तरह का विग्रह भला मिलेगा कहाँ से ? किसी दैव प्रेरणा से प्रेरित वह कलिंग राज्य के समुद्र के किनारे एक सुंदर स्थान पर जा पहुंचे और वहीं महल बनाकर उसमें रहने लगे। उनकी  देखरेख में वहाँ बनाया गया एक मनोरम मंदिर। आज का महान तीर्थ पुरी ही है वह जगह ।

इसके बाद ? अब उस मंदिर में किस तरह विग्रह की स्थापना करें यह था प्रश्न । उन्होंने ध्यानस्थ होकर जाना की निकट ही कहीं गुप्त रूप में विद्यमान है विष्णु के अवतार कृष्ण का जीवंत प्रतीक । इंद्रद्युम ने चार ज्ञानी और पंडितों को चारों दिशाओं में भेजा, जिनमें एक थे तरुण पंडित विद्यापति । वह पुरी के उत्तर-पूर्वदिशा के तरफ गए ।

उन्हें महसूस हो रहा था मानों कोई मंगलमय शक्ति उन्हें आगे ही आगे लिए जा रही है। उन्हें होश नहीं था कब वह एक घने जंगल के भीतर पहुँच चुके थे। सांझ घिर रही थी। आसपास कोई जनबस्ती दिख नहीं रही थी। बस एक छोटे से पहाड़ से समवेत गीत की धुन हवा में तैरकर आ रही थी। सुनाई पड़ रही थी पायल की झंकार। विद्यापति अचरज में पड़े। फिर उन्हें समझ में आया की संगीत, नृत्य की वह ध्वनि पहाड़ के उस तरफ से आ रही है। उन्होने पहाड़ पर चढ़कर दूसरी तरफ की उपत्यका की तरफ नजर दौड़ाया। कुछ वनवासी कन्या एक दूसरे का हाथ पकड़ कर नाच रहीं थीं। पास में ही कलकल करती एक नदी बह रही थी। अपूर्व था वह दृश्य। विद्यापति पुलकित हुए।

पर उनकी पुलक तुरंत ही भय में परिणित हो गई। निकट ही एक महाबली बाघ ने उनकी तरफ देखकर दहाड़ा। अब वह कहां जाएं ? बाघ उनकी तरफ बढ़ा चला आ रहा था। पकड़ ले शायद।  पर तभी अचानक नीचे से उन कन्याओं की झुंड में से एक ने “बाघा” कहकर पुकारा और वह बाघ एक भिगी बिल्ली की तरह पहाड़ के नीचे उतर गया। पर जाते समय बाघ उन को छूते हुए गुजरा और उसके धक्के से विद्यापति का पैर फैसला और वह लुढ़कते हुए नीचे पहुँच गए।

कुछ पल के लिए वह बेहोश हो गए जब उन्हें होश आया तो उन्होने देखा एक कन्या पत्तों के पंखे से उन्हें हवा दे रही है, और दूसरी उनके मुंह में एक-एक बूंद जल दल रही है।

“हे पथिक ! तुम्हें आराम की जरूरत है। तुम हमारी कुटिया  में चलो। मेरे पिता तुम्हें देखकर खुश होंगें। वह बहुत ही अतिथि प्रिय हैं। ”

बहुत ही मधुर वाणी में जिसने यह सांत्वना दिया, विद्यापति ने उससे उसका परिचय पूछकर यह जाना कि वह इस अरण्य में बसे हुए बस्ती के मुखिया की कन्या है । उस बस्ती में वास करते थे शवर संप्रदाय के लोग।

ललिता और उनकी सखियों के साथ विश्वावसु के पास पहुँचकर विद्यापति ने उनका अभिवादन किया। गंभीर, सुशासक, सौजन्य पुरुष विश्वावसु ने विद्यापति का स्वागत किया। विद्यापति अपना परिचय उन्हें देते हुए बोले, किसी विशेष गुप्त कारणों से राजा इन्द्र्द्युम ने उन्हें इस मुल्क कि परिक्रमा करने के लिए भेजा है। विश्वावसु ने उस गुप्त कारण को जानने के लिए कोई ज़ोर नहीं दिया।

पहाड़ से गिरकर विद्यापति को थोड़ी सी चोट आई थी। उन्हें विश्राम कि जरूरत थी। वहीं रहकर विश्राम करने तक ललिता उनकी देखभाल करतीं रहीं। विद्यापति ललिता से प्रेम करने लगे, और उन्हें यह भी पता था कि ललिता भी उनसे बहुत मोहब्बत करतीं हैं।

हर दिन शाम को विश्वावसु, विद्यापति से शास्त्र और धर्म पर अनेक प्रश्न पूछते। विद्यापति उन सारे प्रश्नों का यथार्थ उत्तर देकर विश्वावसु को तृप्त करते। विश्वावसु , उस युवक से बहुत स्नेह करने लगे ।

विद्यापति कभी-कभी अपने आप से पूछते की, क्या वह जिस की खोज में पुरी से यात्रा पर निकले थे, उसे भूल गए हैं ? पर उनके दिल कि गहराई से यह विश्वास उभरता की उनका अभियान व्यर्थ नहीं जाएगा।

एक दिन विश्वावसु ने प्रस्ताव दिया कि विद्यापति, ललिता से विवाह करके वहीं रहें। विद्यापति ने थोड़ा बहुत न-नुकर करके अपनी सहमति दे दी। अरण्य में हुआ खूब सुंदर उत्सव। विद्यापति अब विश्वावसु के दामाद और उनके उत्तराधिकारी बन गए।

पर यही क्या था उनके अभियान का लक्ष्य? फिर वह क्यों वहीं अटक गये ? वह क्यों सारी तकलीफ सहकर दूर- दराज के इलाके में नहीं गये? जिस तरह से सारे दुख, तकलीफ, आंधी, तूफान सहकर भी हर दिन भोर में विश्वावसु कुछ फूल और दूसरी पूजा सामग्री लेकर जाते हैं ?

अचानक विद्यापति ने चौंककर अपने आप से पूछा, कहाँ जाते हैं विश्वावसु इतने नियम से, इतनी निष्ठा के साथ ?

उस दिन शाम को विद्यापति ने ललिता से इस बारे में पूछा। जीभ काटकर ललिता बोली, ‘ वह एक बहुत ही गोपनीय बात है। किसी को भी इस बारे में जानने की इजाजत नहीं है।’ 

“मैं क्या किसी से ज्यादा कुछ नहीं हूँ ?” अभिमान से भरकर विद्यापति ने पूछा।

ललिता झेंपकर बोली, “ वास्तव में तुमसे भला मैं क्या छूपा सकती हूँ? यहाँ से लगभग एक कोश की दूरी पर एक गुफा है। उस के भीतर हमारे आराध्य की कोई दिव्य वस्तु रखी हुई है। पर वह क्या है कोई नहीं जानता है। मेरे पिता से पहले, उनके पिता उनसे पहले परदादा और उनसे पहले कई पीढ़ियों से वंश के ज्येष्ठ पुत्र उस रहस्यमय वस्तु की पूजा करते आ रहें हैं।

अचानक विद्यापति को लगा, मानों वह अपने लक्ष्य के पास पहुँच रहें हैं। सच में मानों विधाता ने ऐसे हालात का निर्माण किया हो !

 “ क्या एक बार मैं उस गुफा के भीतर नहीं जा सकता ?" उन्होने ललिता के आगे मनुहार सा किया। मजबूरन ललिता ने अपने पिता के पास जाकर उनके दामाद की इच्छा की बात कही। विश्वावसु ने अचरज से भर के कठोर आवाज में पूछा “बेटी, तुम कैसे इस तरह का सुझाव रख रही हो मेरे सामने ?

“ पिताजी...", रो पड़ी ललिता और बोली, “ आपके बाद कोई तो फिर पूजा अर्चना करेगा ? तो फिर कौन होगा वह ?"

विश्वावसु सोच में पड़ गये  फिर बोले, “ जब वैसा समय आएगा, तो मैं विद्यापति को सारी बातें जरूर समझा दूंगा। पर उससे पहले उस गुफा तक जाने का रास्ता किसी को भी बताना निषिद्ध है। पर वह अगर आखों पर पट्टी बांधकर एक बार मेरे साथ जाना चाहेंगे, तो मैं उनका अनुरोध मान लूंगा ।”

वही हुआ। भोर में विद्यापति की आँखों में पट्टी बांधी गयी। विश्वावसु उनका हाथ पकड़कर गुप्त रास्ते से गुफा के लिए निकले। चतुर विद्यापति ने अपने बाएँ हाथ में कुछ सरसों के दाने रख लिया। धीरे –धीरे सरसों को रास्ते में बिखराते हुए वह चलते रहे। आखिरी में दोनों गुफा के भीतर पहुंचे। विद्यापति की आँखों की पट्टी खोल दिया विश्वावसु ने।

विह्वल, विस्मित विद्यापति की आँखों के आगे झिलमिला उठी एक अपूर्व, अवर्णनीय नीलाभ द्युति । विद्यापति को पता था वह दिव्य द्युति कृष्ण का कलेवर ही धारण कर सकता है ।

जिस वस्तु से वह द्युति विकिरण हो रही थी, वह एक छोटे से पत्थर की डिबिया थी। उसके भीतर क्या था यह जानने का कोई उपाय नहीं था। विश्वावसु वेशक जानते थे। यथा समय राजा इंद्रद्युम, विद्यापति, और बाकियों ने भी जाना।                                                                                                                       

... contd.
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