श्रीश्री जगन्नाथ: आदिदेव की अनंतकथा
आज के इस श्री जगन्नाथ मंदिर के निर्माण के बहुत पहले ही श्री जगन्नाथ विद्यमान थे। आज उनके इस रूप में आविर्भाव होने के रहस्य को लेकर जितनी भी किंवदंती हैं, उनमें भिन्नता होने के बावजूद मूल उपाख्यान का रेखाचित्र बहुत ही सशक्त भाव से आत्मप्रकाश करता है। उस उपाख्यान के साथ अविच्छ्न्न रूप से जुड़े हुए हैं राजा इंद्रद्युम, संधानी विद्यापति, शवर कन्या ललिता, शवर सामंत विश्वावसु ।
मूल किवदंती कुछ अचरज भरे तथ्यों का उपाख्यान करती हैं। इन्द्र्द्युम मालव के होने के बावजूद कलिंग में आकर मंदिर प्रतिष्ठा कर पाए यह उस समय में एक राज्य का दूसरे राज्य के साथ के महत्त सम्बन्धों को दर्शाता है।
शवर कन्या ललिता का ब्राह्मण विद्यापति के साथ विवाह को लेकर किसी भी तरह का विवाद का होना तो दूर की बात, उनकी संतानों को पवित्र पूजक के रूप में स्वीकार करना एक उदार युग की स्मृति है। धर्म, मत दर्शन, आदर्श, निर्विशेष में श्री जगन्नाथ को आध्यात्म मार्ग के सभी पथिकों ने निर्द्वंद रूप से अपने आराध्य के रूप में ग्रहण किया है। यह उनकी अनन्य विभूति के द्वारा ही संभव हुआ है, जिसकी व्याख्या करना असंभव है। + + + + + + + + + कई युग पहले की बात है। राजा इंद्रद्युम विष्णु के एकांत भक्त थे। उनकी बहुत बड़ी इच्छा थी कि वह एक ऐसा मंदिर बनाएँगे जिसमें विष्णु के विग्रह पूजे जायेंगे। पर भारत के भूखंड में मंदिरों का अभाव तो नहीं हैं? उनके द्वारा गढ़े गए मंदिर में पूजा पाने वाले विग्रह के साथ विष्णु का प्रत्यक्ष संबंध होना चाहिए, एक जीवंत विग्रह !
पर उस तरह का विग्रह भला मिलेगा कहाँ से ? किसी दैव प्रेरणा से प्रेरित वह कलिंग राज्य के समुद्र के किनारे एक सुंदर स्थान पर जा पहुंचे और वहीं महल बनाकर उसमें रहने लगे। उनकी देखरेख में वहाँ बनाया गया एक मनोरम मंदिर। आज का महान तीर्थ पुरी ही है वह जगह ।
इसके बाद ? अब उस मंदिर में किस तरह विग्रह की स्थापना करें यह था प्रश्न । उन्होंने ध्यानस्थ होकर जाना की निकट ही कहीं गुप्त रूप में विद्यमान है विष्णु के अवतार कृष्ण का जीवंत प्रतीक । इंद्रद्युम ने चार ज्ञानी और पंडितों को चारों दिशाओं में भेजा, जिनमें एक थे तरुण पंडित विद्यापति । वह पुरी के उत्तर-पूर्वदिशा के तरफ गए ।
उन्हें महसूस हो रहा था मानों कोई मंगलमय शक्ति उन्हें आगे ही आगे लिए जा रही है। उन्हें होश नहीं था कब वह एक घने जंगल के भीतर पहुँच चुके थे। सांझ घिर रही थी। आसपास कोई जनबस्ती दिख नहीं रही थी। बस एक छोटे से पहाड़ से समवेत गीत की धुन हवा में तैरकर आ रही थी। सुनाई पड़ रही थी पायल की झंकार। विद्यापति अचरज में पड़े। फिर उन्हें समझ में आया की संगीत, नृत्य की वह ध्वनि पहाड़ के उस तरफ से आ रही है। उन्होने पहाड़ पर चढ़कर दूसरी तरफ की उपत्यका की तरफ नजर दौड़ाया। कुछ वनवासी कन्या एक दूसरे का हाथ पकड़ कर नाच रहीं थीं। पास में ही कलकल करती एक नदी बह रही थी। अपूर्व था वह दृश्य। विद्यापति पुलकित हुए।
पर उनकी पुलक तुरंत ही भय में परिणित हो गई। निकट ही एक महाबली बाघ ने उनकी तरफ देखकर दहाड़ा। अब वह कहां जाएं ? बाघ उनकी तरफ बढ़ा चला आ रहा था। पकड़ ले शायद। पर तभी अचानक नीचे से उन कन्याओं की झुंड में से एक ने “बाघा” कहकर पुकारा और वह बाघ एक भिगी बिल्ली की तरह पहाड़ के नीचे उतर गया। पर जाते समय बाघ उन को छूते हुए गुजरा और उसके धक्के से विद्यापति का पैर फैसला और वह लुढ़कते हुए नीचे पहुँच गए।
कुछ पल के लिए वह बेहोश हो गए जब उन्हें होश आया तो उन्होने देखा एक कन्या पत्तों के पंखे से उन्हें हवा दे रही है, और दूसरी उनके मुंह में एक-एक बूंद जल दल रही है।
“हे पथिक ! तुम्हें आराम की जरूरत है। तुम हमारी कुटिया में चलो। मेरे पिता तुम्हें देखकर खुश होंगें। वह बहुत ही अतिथि प्रिय हैं। ”
बहुत ही मधुर वाणी में जिसने यह सांत्वना दिया, विद्यापति ने उससे उसका परिचय पूछकर यह जाना कि वह इस अरण्य में बसे हुए बस्ती के मुखिया की कन्या है । उस बस्ती में वास करते थे शवर संप्रदाय के लोग।
ललिता और उनकी सखियों के साथ विश्वावसु के पास पहुँचकर विद्यापति ने उनका अभिवादन किया। गंभीर, सुशासक, सौजन्य पुरुष विश्वावसु ने विद्यापति का स्वागत किया। विद्यापति अपना परिचय उन्हें देते हुए बोले, किसी विशेष गुप्त कारणों से राजा इन्द्र्द्युम ने उन्हें इस मुल्क कि परिक्रमा करने के लिए भेजा है। विश्वावसु ने उस गुप्त कारण को जानने के लिए कोई ज़ोर नहीं दिया।
पहाड़ से गिरकर विद्यापति को थोड़ी सी चोट आई थी। उन्हें विश्राम कि जरूरत थी। वहीं रहकर विश्राम करने तक ललिता उनकी देखभाल करतीं रहीं। विद्यापति ललिता से प्रेम करने लगे, और उन्हें यह भी पता था कि ललिता भी उनसे बहुत मोहब्बत करतीं हैं।
हर दिन शाम को विश्वावसु, विद्यापति से शास्त्र और धर्म पर अनेक प्रश्न पूछते। विद्यापति उन सारे प्रश्नों का यथार्थ उत्तर देकर विश्वावसु को तृप्त करते। विश्वावसु , उस युवक से बहुत स्नेह करने लगे ।
विद्यापति कभी-कभी अपने आप से पूछते की, क्या वह जिस की खोज में पुरी से यात्रा पर निकले थे, उसे भूल गए हैं ? पर उनके दिल कि गहराई से यह विश्वास उभरता की उनका अभियान व्यर्थ नहीं जाएगा।
एक दिन विश्वावसु ने प्रस्ताव दिया कि विद्यापति, ललिता से विवाह करके वहीं रहें। विद्यापति ने थोड़ा बहुत न-नुकर करके अपनी सहमति दे दी। अरण्य में हुआ खूब सुंदर उत्सव। विद्यापति अब विश्वावसु के दामाद और उनके उत्तराधिकारी बन गए।
पर यही क्या था उनके अभियान का लक्ष्य? फिर वह क्यों वहीं अटक गये ? वह क्यों सारी तकलीफ सहकर दूर- दराज के इलाके में नहीं गये? जिस तरह से सारे दुख, तकलीफ, आंधी, तूफान सहकर भी हर दिन भोर में विश्वावसु कुछ फूल और दूसरी पूजा सामग्री लेकर जाते हैं ?
अचानक विद्यापति ने चौंककर अपने आप से पूछा, कहाँ जाते हैं विश्वावसु इतने नियम से, इतनी निष्ठा के साथ ?
उस दिन शाम को विद्यापति ने ललिता से इस बारे में पूछा। जीभ काटकर ललिता बोली, ‘ वह एक बहुत ही गोपनीय बात है। किसी को भी इस बारे में जानने की इजाजत नहीं है।’
“मैं क्या किसी से ज्यादा कुछ नहीं हूँ ?” अभिमान से भरकर विद्यापति ने पूछा।
ललिता झेंपकर बोली, “ वास्तव में तुमसे भला मैं क्या छूपा सकती हूँ? यहाँ से लगभग एक कोश की दूरी पर एक गुफा है। उस के भीतर हमारे आराध्य की कोई दिव्य वस्तु रखी हुई है। पर वह क्या है कोई नहीं जानता है। मेरे पिता से पहले, उनके पिता उनसे पहले परदादा और उनसे पहले कई पीढ़ियों से वंश के ज्येष्ठ पुत्र उस रहस्यमय वस्तु की पूजा करते आ रहें हैं।
अचानक विद्यापति को लगा, मानों वह अपने लक्ष्य के पास पहुँच रहें हैं। सच में मानों विधाता ने ऐसे हालात का निर्माण किया हो !
“ क्या एक बार मैं उस गुफा के भीतर नहीं जा सकता ?" उन्होने ललिता के आगे मनुहार सा किया। मजबूरन ललिता ने अपने पिता के पास जाकर उनके दामाद की इच्छा की बात कही। विश्वावसु ने अचरज से भर के कठोर आवाज में पूछा “बेटी, तुम कैसे इस तरह का सुझाव रख रही हो मेरे सामने ?
“ पिताजी...", रो पड़ी ललिता और बोली, “ आपके बाद कोई तो फिर पूजा अर्चना करेगा ? तो फिर कौन होगा वह ?"
विश्वावसु सोच में पड़ गये फिर बोले, “ जब वैसा समय आएगा, तो मैं विद्यापति को सारी बातें जरूर समझा दूंगा। पर उससे पहले उस गुफा तक जाने का रास्ता किसी को भी बताना निषिद्ध है। पर वह अगर आखों पर पट्टी बांधकर एक बार मेरे साथ जाना चाहेंगे, तो मैं उनका अनुरोध मान लूंगा ।”
वही हुआ। भोर में विद्यापति की आँखों में पट्टी बांधी गयी। विश्वावसु उनका हाथ पकड़कर गुप्त रास्ते से गुफा के लिए निकले। चतुर विद्यापति ने अपने बाएँ हाथ में कुछ सरसों के दाने रख लिया। धीरे –धीरे सरसों को रास्ते में बिखराते हुए वह चलते रहे। आखिरी में दोनों गुफा के भीतर पहुंचे। विद्यापति की आँखों की पट्टी खोल दिया विश्वावसु ने।
विह्वल, विस्मित विद्यापति की आँखों के आगे झिलमिला उठी एक अपूर्व, अवर्णनीय नीलाभ द्युति । विद्यापति को पता था वह दिव्य द्युति कृष्ण का कलेवर ही धारण कर सकता है ।
जिस वस्तु से वह द्युति विकिरण हो रही थी, वह एक छोटे से पत्थर की डिबिया थी। उसके भीतर क्या था यह जानने का कोई उपाय नहीं था। विश्वावसु वेशक जानते थे। यथा समय राजा इंद्रद्युम, विद्यापति, और बाकियों ने भी जाना। ... contd.
त्रेता युग की बात है यह। जराशवर नामक विख्यात शिकारी के हाथों इस भूमि पर श्रीकृष्ण ने अपना कर्मभरा जीवन समाप्त कर स्वदेह का त्याग किया था। द्वारका के सीमांत पेड़-पौधों से हरे-भरे प्रभास नाम की एक निर्जन जगह पर श्री कृष्ण जब आराम कर रहे थे, उनके कोमल पावों को हिरण का कान समझकर जराशवर ने तीर साधा था। बाद में अपनी भूल के लिए मर्माहत होने पर श्री कृष्ण ने उसे समझाते हुए कहा कि वह स्व-इच्छा से अपना देह त्याग कर रहे हैं। जराशवर तो बस नीमित्त मात्र है।
सांत्वना पाने के बाद भी जराशवर का उदास भाव सम्पूर्ण रूप से मिटा नहीं। श्री कृष्ण के दिव्य कलेवर का अग्नि-संस्कार हो जाने के बाद उसने कुछ अस्थि या श्रीतनु स्मारकी संग्रह कर के प्रभास का परित्याग कर समुद्र के किनारे-किनारे चलकर कलिंग के सीमांत में पहुंचा। एक विस्तृत जंगल को अपनी वस्ती के रूप में उसने चुन लिया। उसके बाद धीरे-धीरे उसके संप्रदाय के दूसरे लोग भी वहीं आकर रहने लगे।
कई सौ साल बीत गया। जराशवर के वंशधरों को वहाँ के वनवासियों ने उस जंगल का राजा मान लिया। जराशवर की लाई गई वह श्रीतनु स्मारिका एक गुप्त गुफा में थी। सिर्फ जराशवर वंश की हर पीढ़ी के ज्येष्ठ पुत्रों को ही हर दिन सुबह उस दिव्य वस्तु की पूजा करके आने का सौभाग्य हासिल रहा। अब विश्वावसु ही थे जराशवर के आखिरी वंशधर।
चाहे जो भी हो, उस दिन विद्यापति के मन में कोई संदेह नहीं रहा कि वह जिसके संधान में आए, उसे वह पा गए हैं। पुनर्वार आँखों में पट्टी बांधकर वह विश्वावसु का हाथ पकड़कर वापस आ गए।
ललिता के प्रश्न के जवाब में बस इतना कहा कि उनकी प्रार्थना पूर्ण हुई।
पर उस दिन से ललिता ने ध्यान दिया कि विद्यापति हमेशा अन्यमनस्क रहने लगे हैं। एक दिन ललिता ने पूछा, “बात क्या है ?” “ललिता, लंबे समय से में यहाँ एकतरह से आत्मगोपन करके रहा हूँ । मेरे प्रिय परिजन, मेरे पृष्ठपोषक राजा इंद्रद्युम कितने चिंतित होंगे। एक बार जाकर उन लोगों से मिल लेना क्या ठीक नहीं होगा ? उन्हें सब बताने पर ही भविष्य में मेरे साथ तुम्हें सभी सादर स्वीकार कर लेंगे।" विद्यापति ने समझाया।
ललिता और विश्वावसु को यह बात जंच गई। विश्वावसु ने अपने दामाद के लिए एक तेज घोड़े की व्यवस्था भी कर दिया। इस बीच बरसात हो चुकी थी। सरसों में पत्ते आ गए थे। गुफा की तरफ विद्यापति ने घोडा दौड़ाया,और वहाँ पहूंच कर भीतर गये। काँपते हाथों से पत्थर के उस डिब्बे को उठाया। हृदय में था उनके दर्द और पुलक का एक अद्भुत संगम। मन को दृढ़ करके उन्होंने पुरी की तरफ घोड़ा दौड़ा दिया।
प्रतीक्षारत राजा इंद्रद्युम ने सपना देखा था कि उनका दूत अपना संधान सार्थक करके वापस लौट रहा है। गुफा के भीतर उस पाषाण डिब्बे को स्पर्श करके विद्यापति को जो अनुभूति हुई थी, आज ठीक वैसी ही अनुभूति इंद्रद्युम को उस डिबिया को स्पर्श करके हुई। वह सिहर उठे। सपने में उन्होने यह भी जाना था कि विद्यापति जो लेकर आ रहे हैं, वह एक शक्ति है। वह शक्ति स्थापित होगी विग्रह में। विग्रह निर्मित होगा दारू खंड (वृक्ष यानी लकड़ी के टुकड़े) में। वह दारू समुद्र में तैरकर आएगा।
उसके दूसरे दिन सुबह समुद्र के किनारे खड़े होकर राजा और विद्यापति ने देखा की निकट में ही लहरों पर तैर रहा है, एक विशाल दारू। उदित सूर्य की किरण में एक बार झिलमिलाकर लहरों में छिप जा रहा है और फिर ऊपर की ओर उछल जा रहा।
राजा के निर्देश से कुछ तैराक उस दारू को किनारे लाने की कोशिश करने लगे। पर दारू उनके हाथों से बारबार फिसल जाता और पीछे की ओर हट जाता। अब राजा के कर्मचारी नाव लेकर गये और रस्सी से दारू को बांधकर किनारे की तरफ खींचने की कोशिश किया। पर सारी कोशिश बेकार गयी। दारू अपनी जगह अटल रहा।
पूरा दिन बीत गया। बिना खाए-पिए किनारे बैठे रहे राजा, रानी गुंडीचा देवी, विद्यापति और शताधिक पात्र, मंत्री। ध्यानस्थ राजा की अंतरदृष्टि में अचानक झलक उठा एक करुण दृश्य। जंगल के भीतर है एक गुफा। उसके सामने हतवाक, विमूढ़ बैठे हैं एक संभ्रांत पुरुष। निकट में खड़े होकर चुपचाप आँसू बहा रही है एक युवती। विद्यापति से राजा ने जो कुछ सुना था, उसे याद करके वह समझ गए कि वह विश्वावसु और ललिता हैं।
वास्तव में, उस दिन पूजा-अर्चना करने के लिए आकर विश्वावसु ने देखा कि उनकी आराध्य वस्तु अंतर्ध्यान हो गयी है। विद्यापति के विदाई लेकर जाने और उनकी आराध्य वस्तु के गुम जाने के बीच के संबंध का उन्होंने अनुमान कर लिया था। उनके दु:ख का आकलन भला कौन कर पाएगा? कौन भला थाह पाएगा ललिता की लज्जा और वेदना को ?
ऐसे विश्वासघातक विद्यापति?
विश्वावसु की बस्ती में उस दिन सभी थे म्रियमान, उदास।
उसके दूसरे दिन कुछ वनवासियों ने दौड्ते हुए आकर विश्वावसु को खबर दिया कि सदल-बल एक राज पुरुष उनकी कुटिया की तरफ पधार रहे हैं। पर सभी निरस्त्र हैं, इसलिए भय की कोई बात नहीं है। देखते ही देखते स्वयं इंद्रद्युम ने आकर विश्वावसु को अपने आलिंगन में ले लिया। उन्होने विश्वावसु को समझाते हुए कहा कि जो दिव्य शक्ति अब तक गुप्त थी, अब समय आ गया है कि वह शक्ति सर्वसाधारण के सामने प्रकट हो। अयूत, लाख, नियुत नर-नारी उस शक्ति का आशीष ग्रहण करेंगे। और यह विश्वावसु के ही गौरव की बात होगी।
विश्वावसु आश्वस्त हुए और पुलकित भी। राजा के साथ वह समुद्र के किनारे पहुंचे। दोनों के जाकर उस दारू को स्पर्श करते ही वह सहजता से किनारे आ लगा।
अब सवाल उठा उस दारू को कैसा रूप दिया जाए? कवि की शिल्पीगत शिलामूर्ति निर्माण में प्रवीण दारुमूर्ती ? वह होगी कैसे ? कितने दिन भला वह मूर्ति होगी स्थायी।
विचलित राजा को फिर से सपने के रास्ते निर्देश आया। सुबह ही जो शिल्पी पहले आकर उनसे मुलाक़ात करेगा, उसे ही दी जाए मूर्ति बनाने की ज़िम्मेदारी।
सुबह एक बृद्ध शिल्पी ने आकर राजा का अभिवादन किया। रानी और दूसरे सभासदों के चेहरे पर संदेह घिर आया। यह कमजोर सा कारीगर करेगा मूर्ति का निर्माण?
पर राजा के मन में कोई दुविधा नहीं थी। उन्होंने शिल्पी का सादर स्वागत किया। शिल्पी की सारी शर्तें उन्होने मान लिया। शिल्पी एकांत में एक बंद कमरे में मूर्ति गठन करेंगे। जब तक विग्रह का निर्माण सम्पूर्ण नहीं होता, तब तक उस परिसर में सभी का प्रवेश निषिद्ध होगा।
शिल्पी अपने कर्म में व्यस्त रहते। रानी गुंडीचा दरवाजे के पास कान लगाकर अंदर से आती निहन और दूसरे औजारों आवाजों को सुनती रहती। पर एक दिन रानी को कोई आवाज सुनाई नहीं पड़ी। उन्होंने काफी समय तक इंतजार किया, उनके धैर्य का बांध टूट गया। उन्होंने धक्का देकर दरवाजा खोल दिया। दरवाजा खुला शिल्पी ने एक बार पीछे मुड़कर देखा। पर यह क्या हुआ? कौन थे वह शिल्पी ? वह बृद्ध शिल्पी कहाँ गए ? यह तो कोई देवता हैं !
दूसरे ही पल वह शिल्पी अंतर्ध्यान हो गए। सभी को अब समझ में आया कि वह शिल्पी और कोई नहीं बल्कि देवताओं के भास्कर स्वयं विश्वकर्मा थे।
उन्होंने निर्माण किया था, तीन मूर्ति: श्री जगन्नाथ रूपी श्री कृष्ण, उनके बड़े भाई श्री बलभद्र और छोटी बहन शुभद्रा का कलेवर।
वह विग्रह सारे क्या असंपूर्ण रह गए? हो सकता है, मानव का विकास असंपूर्ण है, इसलिए उसके आराध्य का रूप भी असंपूर्ण है। हो सकता है रानी का अधैर्य और अविश्वास का भाव मानव के चेतना की अवस्था को व्यक्त कर रहा है। चेतना की इसी दुर्वलता के कारण भगवान पूर्ण रूप से मानव के सम्मुख प्रकट नहीं हो पा रहे हैं।
पर कौन कहेगा कि वह असंपूर्ण हैं? श्री जगन्नाथ को देख कर कोई उनमें देखता है कालिनी तट के किशोर श्री कृष्ण के वंशी बजाते रूप को, तो कोई देखता है श्री रामचन्द्र के वदन को। कोई उनमें अनुभव करता है अरूप ब्रह्म को, तो कोई देखता है बुद्ध की विभूति को।
हो सकता है किसी गतानुगतिक रूप को स्वीकारते तो श्री जगन्नाथ को इस तरह विविध रूप में देखने का सुयोग से वंचित रहते, विविध भक्ति धारा के भक्त और विविध योगमार्ग के साधक।
... contd.
कई वर्षों के अंतराल में होता है श्री जगन्नाथ का नवकलेवर। नूतन मूर्ति के भीतर स्थापित किया जाता है पुराने मूर्ति के नाभि पद्म को। इस कार्य को कौन साधित करता है? वे हैं देतापति, विद्दापति और ललिता की संतानों के वंशधर। बहुत सुंदर, बहुत तात्पर्यपूर्ण है यह परंपरा। वे श्री जगन्नाथ के प्रमुख पूजक वर्गों के प्रतिनिधि हैं।
उस नाभिपद्म में कौन सी वस्तु है यह देखने का अधिकार किसी को भी नहीं है। विश्वास यही है कि वह श्री कृष्ण के देहावशेष , श्रीतनु स्मारकी के अलावा और कुछ नहीं है।
श्री जगन्नाथ हमारे बहुत अंतरंग हैं। हमारी तरह वह कई समस्याओं का सामना करते हैं। पुराना कलेवर त्याग कर फिर से नया कलेवर धारण करते हैं, जैसे मानव की आत्मा एक शरीर का त्याग कर के फिर से नया शरीर लेकर जन्म लेती है। हमारा असली परिचय हमारी आत्मा है, जगन्नाथ का असली परिचय कि वह परमात्मा हैं। रवीन्द्र नाथ ठाकुर की एक छोटी कविता याद आती है।
रथयात्रा लोकारण्ये खूब है धुमधाम भक्तजन पथ पर लेटे करते हैं प्रणाम रथ सोचे मैं हूँ देव,पथ सोचे मैं देव मूर्ति सोचे मैं हूँ देव, हँसें अंतर्यामी
+ + + + + + + + + + + + + युगों-युगों तक श्री जगन्नाथ को केन्द्र करके न जाने कितने भक्त, कितने जिज्ञासुओं को कई सुक्ष्म अनुभूति हुई हैं। वह सारी किवंदन्ती हमारी परंपरा की अत्यंत मूल्यवान धरोहर है। यहाँ एक नाटकीय किवंदन्ती को याद करेंगे। एक बार उत्कल के युवराज पुरुषोत्तम देव देश-भ्रमण के लिए निकलकर कांची राजा के अतिथि हुए। वहीं कांची की राजकुमारी पद्मावती को देखकर वह मुग्ध हुए। यात्रा सम्पूर्ण कर राजधानी के पुरी लौटने के कुछ दिनों बाद ही उनके पिता का देहांत हो गया और वह राजसिंहासन पर बैठे। राजा बनने के बाद उन्होंने अपने एक दूत के माध्यम से राजकुमारी पद्मावती के साथ अपने विवाह का प्रस्ताव कांची राजी भेजा। कांची राजा ने विवाह प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार कर लिया और विवाह की सारी व्यवस्था करने के लिए अपने महामंत्री को पुरी भेज दिया।
उसी समय रथयात्रा हो रही थी। राजा परंपरानुसार, जगन्नाथ के सेवक के रूप में रथ पर झाड़ू लगा रहे थे, जिसे “ छेरा पंहरा ” कहा जाता है। यह प्रथा कितनी महत्त है, इसे समझ सकने का ज्ञान महामंत्री में नहीं था। वह कांची राज्य वापस लौटकर अपने राजा से बोले कि एक झाडूबरदार के साथ हम अपनी राजकुमारी का ब्याह कैसे कर सकते हैं ? कांची राजा ने विवाह प्रस्ताव ठुकरा दिया। क्रुद्ध पुरुषोत्तम ने कांची पर आक्रमण किया पर पराजित हुए। बहुत दु:ख, अभिमान से भरकर उन्होंने जगन्नाथ के सामने धरना दिया। सपने में उन्हें आदेश मिला कि फिर एक बार कांची पर आक्रमण करो विजय सुनिश्चित है।
सैन्यबल लेकर राजा ने कांची की ओर कूच किया। चिलिका झील के किनारे एक दही बेचनेवाली औरत ने उनका रास्ता रोका और बोली, “कुछ समय पहले दो योद्धा, एक काले घोड़े पर और दूसरा सफेद घोड़े पर आए और मुझसे दही लेकर पीने के बाद जाते हुए यह अंगूठी दे गए और कहा कि हमारे पीछे जो आ रहा है, उसे यह अंगूठी दे देने पर वह दही का दाम चुका देगा।”
राजा चौंक गए। वह हीरे की अंगूठी श्री जगन्नाथजी की थी। वह समझ गए कि काले घोड़े पर जगन्नाथ और सफेद घोड़े पर बलभद्र उनसे पहले युद्धस्थल पहुँच चुके हैं और वहीं से वह उन्हें अदृश्य रहकर नेतृत्व देंगे। दही के मोल के रूप में राजा ने उस औरत को दिया एक गाँव का मालिकाना। उस औरत के नामानुसार आज भी उस गाँव का नाम है माणिक पाटना ।
इस बार बहुत ही विश्वास के साथ राजा ने युद्ध किया। कांची की सैन्य शक्ति पराजित हुई। कांची नरेश वंदी बने। पर बाद में कांची राजा को ससम्मान मुक्त करते हुए पुरी महाराज राजकुमारी पद्मावती को अपने साथ पुरी ले आए।
इसके बाद उन्होंने अपने महामंत्री को आदेश देते हुए कहा कि,“ कांची राजा ने तो मुझे झाडूबरदार समझकर कन्यादान करने से इंकार किया, अब आप एक झाडूबरदार के साथ ही राजकुमारी के विवाह की व्यवस्था करिए।
कई दिन बीत गए। रथयात्रा का समय आ पहुंचा। यथाविधी राजा पुरुषोत्तम देव “ छेरा पंहरा ” कर रहे थे , तभी अचानक एक हार उनके गले में पड़ा। राजा ने देखा, पास में सल्ल्ज खड़ी थीं राजकुमारी पद्मावती। तभी महामंत्री बोले, “ महाराज राजकुमारी पद्मावती के लिए इससे योग्य झाडूबरदार वर भला में कहाँ से पाता ?” बृद्ध महामंत्री के निर्देश पर महाराजा ने भी पद्मावती के गले में माल्यार्पण किया। कांची की राजकुमारी उत्कल की महारानी बनी।
+ + + + + + + + श्री जगन्नाथ के पास श्री शंकराचार्य, श्री चैतन्य से लेकर अनगिनत योगी, महापुरुष और तपस्वी आकर्षित होकर आते रहते हैं। उनका दर्शन करके सभी ने अनुभव किया है विपुल अभिज्ञता। श्री जगन्नाथ ने सहा है अनेक उपद्रव। कालापहाड़ के नाम से विदित एक अमानुष ने उन्हें विध्व्स्त करने की कोशिश की थी। पर उनकी जययात्रा अव्याहत है। हमारी चेतना में उसी जययात्रा का प्रतीक है रथयात्रा। गोपपुर से मथुरा जाकर श्री कृष्ण ने राक्षस राजा कंस का वध किया था। श्री कृष्ण के गोपपुर से मथुरा की यात्रा की स्मारकी है रथयात्रा। मनुष्य की चेतना में बसी राक्षसी प्रवृत्ति के विलोप की दिशा में आह्वान है यह पवित्र रथयात्रा। हम खुद ही इस विलोप को साध सकते हैं, उस दिव्य करुणामय की शक्ति के बल पर।
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