Saturday, 20 April 2024  |   जनता जनार्दन को बुकमार्क बनाएं
आपका स्वागत [लॉग इन ] / [पंजीकरण]   
 

स्त्री शक्ति की अहमियत को पहचानिए

स्त्री शक्ति की अहमियत को पहचानिए आज बहस का यह मुद्दा नहीं है कि स्त्रियाँ सक्षम है या नहीं, क्योंकि अतित से आज तक के सभी काल खण्डों में उन्होंने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उत्कृष्टता का परचम लहरा कर अपनी सशक्त पहचान की उपस्थिति दर्ज करा दी है। विज्ञान, चिकित्सा, साहित्य, संगीत, शिक्षा, कला, मानव सेवा, कूचनीति, राजनीति, खेल, सेना,ज्योतिषी, अन्तरिक्ष विध्दा, अर्थशास्त्र लगभग सभी मंचों पर स्त्रियों ने न केवल प्रवेश किया है अपितु प्रयोग व प्रवीणता के नये प्रतिमान भी स्थापित किये है। अर्थात् यह तय हो गया है कि स्त्री वर्ग पहचान संकट से नहीं गुजर रही है तथापि आज स्त्री दोयम दर्जे की शिकार है। भारत हीं नहीं, विश्व की स्वीकार्यता नहीं बन पा रही है। हाई स्कुल, इण्टर के परीक्षाफल हो या उच्च शिक्षा में अध्ययनरत छात्रों की संख्या या उच्च प्रशासनकि प्रतियोगिताओं के योग्यता सूची सभी लड़कियों की प्रगति का सूचकाक है। सिद्धान्त की परीक्षा में तो लड़कियाँ आगे है लेकिन जब व्यवहार की बात हो तो लड़के धक्का देकर आगे चले जाते है। कारण स्पष्ट है कि घर में कार्यालय में, उच्च पद आवंटन में पदोन्नती में लड़कियों के स्थान पर मात्र जेण्डर के आधार पर लड़कों को प्राथमिकता दी जाती है। यहीं से शुरु होती स्त्री-पुरुष दून्द की कहानी, इसे हीं अंग्रेजी में glass ceiling कहा जाता है।

हलांकि भारतिय इतिहास स्त्री-पुरुष साहचर्य पर टीके है। प्राचीन काल के पाण्डुलिपियों में स्त्री-पुरुष को समान आंका गया है बल्कि कहीं- कहीं तो स्त्री पुरुष से श्रेष्ट बताई गयी है। उदाहरणस्वरुप शतपथब्राहा्ण में उल्लेखित है कि माता के रुप में स्त्री नवजात बच्चे की श्रेष्टतम आचार्य होती है। बच्चे के मार्गदरशन करने और चारित्रिक उन्नयन करने में स्त्री पुरुष से सौ गुना श्रेष्ट है। मनुस्मृति में कहा गया है कि सौ आचार्यों की अपेक्षा पिता और सहस्त्र पिताओं की अपेक्षा माता गौरव में अधिक है। विदूानों का भी मान्ना है कि सुसंस्कृत व योग्य कन्या पुत्र से श्रेष्टतर है । तर्क है कि इतिहास में अनेकों पुत्रों का दृष्टान्त उपलब्ध है जो पितृहन्ता हुए है किन्तु एक भी ऐसी पुत्री का उल्लेख नहीं मिलता जिसने अपने पिता का वध किया हो।

विश्व की सबसे पुरानी ग्रंथ क्षृग्वेद व कठोपनिषद के अनुसार सृष्टि की उत्पति का स्त्रोत एकल है। अर्थत सभी जीव समान है। उसी प्रकार सभी जीव( धरती, गगन, जल, अग्नि, वायु) पंचतत्वों से निर्मित है तो कोई कैसे श्रेष्ट या निम्न हो सकता है। विज्ञान के शोधों ने भी प्रमाणित किया है कि स्त्रियाँ शारीरिक व भावात्मक रुप से पुरुषों की अपेक्षा अधिक मजबूत होती है। तमाम प्रमाणों दूारा प्रमाणित हो जान के बाद भी स्त्री जाति पर बेचारी, निरीह प्राणी या अबला का लेबल चस्पा कर दिया जाता है। क्या इसलिए कि लड़कि एक आर्थिक बोझ है, पराये घर का धन, वंश वाहक नहीं है या उसे संरक्षण की जरुरत होती है। माना कि स्त्रियाँ कोमल है तो उन्हें सुरक्षा मिलनी चाहिए। वह राज्य या समाज /सरकार कमजोर है जो अपनी आधी जनसंख्या की रक्षा के इंतेजाम न कर सके।। यदि स्त्री के गरिमा को ठेस पहुँचती है तो साफ है कि प्रशासनतंत्र ने इमानदारी व कुशलता से अपना कर्तव्य पालन नहीं किया।

आज कल स्त्री के प्रति दुव्र्यवहार की घटना में जो अप्रत्याशित बढ़ोत्तरी हुई है उसके पीछे अनेक कारण है जैसे स्वतंत्रता की मर्यादा भंग करना, नैतिक मुल्यों का पतन तकनीकों का दुरुपयोग और कुछ हद तक स्त्री वर्ग दूारा  अपने शील के प्रति अनिश्चित व दिखावा की प्रवृति अपनाना भी एक गम्भीर कारण है। बलात्कार की घटना भारत की बढ़ती हुई एक राष्ट्रीय समस्या बन गयी है। प्रत्येक 29 मिनट पर एक बलात्कार की घटना घटित हो रही है । तीन साल से साठ बर्ष तक की स्त्री भी आतंक के साये में जी रही है।

सामान्यत: स्त्री परिधानों के बदलते पैटर्न बलात्कार को बढ़ावा देने में सहायक रहे है, ऐसा बहुत से लोग मानते है लेकिन साड़ी में भी स्त्री सुरक्षित नहीं होती। समस्या की जड़ बाहरी पहनावे में नहीं, अपितु समाज की कुण्ठित मानसिकता में है। दिसम्बर 2012 के निर्भया काण्ड(नई दिल्ली) के बाद ससमूचा देश अपने गुस्से व कुण्ठा को लेकर सड़क पर उतर आया था और इस आक्रोशित जनमत के दबाव में आकर सरकार को सख्त कानून बनाना पड़े। मीडिया को संयमित होना पड़ा। और स्त्री सुरक्षा के मुद्दे को प्राथमिकता दी जाने लगी। साथ ही साथ निर्भया फण्ड स्थापित की गयी। मगर विडम्बना है कि उस घटना के बाद तो जैसे स्त्री यौन उत्पीड़न की वारदातों की बाढ़ आ गयी हो। देश के सभी हिस्सों से ऐसे कुकृत्यों की खबर रोज के अखबारों को रंगने लगी है, जो पुरे राष्ट्र के लिए शर्मनाक है। और तो और आज तक निर्भया फण्ड का खाता भी नहीं खुला। इतना हीं नहीं, राष्ट्री. महिला सशक्तीकरण मिशन 2012  की कोई बैठक भी नहीं हो पायी।

भारत में यौन उत्पीड़न की राष्ट्रीय आपदा की हाहाकार संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून और अमेरिकी कांग्रेस तक पहुँच चुकी है। जिसकी उन्होने भत्सर्ना की है।

यह समझना कठिन है कि आज भारतीय नारी जाति के शहीद होने की घटना को राष्ट्रीय सम्मान से जोड़ा जाये या शर्म झुका लिया जाये। कारण स्पस्ट है कि कानून व्यवस्था, सुरक्षा व्यवस्था व मानसिक अवस्था की लचर प्रणाली ने भारतीय स्त्री को कभी भी कहीं भी बलात्कार के नाम पर शहीद होने के लिए विवश कर दिया है। पहले किसी कोने में लेकिन अब तो सरेआम स रेशाम स्त्री की अस्मत खतरें में है।ऐसा लगता है कि मानों चारों तरफ हवस की शिकारी स्त्री शील का हनन करने के लिए बेखौफ घूम रहे है। पहले तो इस विभत्स कुकृत्य से स्त्री पीड़ित हो कर जिन्दगी से जुझती थी किन्तु  अब जिन्दा रहने का अधिकार भी बेदर्दी व बेरहमी से छीन लिया जा रहा है। नये कानून की सख्ती पीड़िता पर हीं भारी पड़ रही है।

ऐसा प्रतित होता है कि भारतीय सरकार, भारतीय कानून व सामाजिक संवेदनशीलता की लाज को बचाते-बचाते भारतीय स्त्री निरन्तर शहीद होने के लिए विवश हो रही है। ऐसी घटनाओं की भरमार ने आम जनमानस में एक तरफ क्षोभ व आक्रोश भरा है तो दूसरी तरफ एक बड़ा तबका इसके प्रति उदासीन व निष्क्रय रवैया अपनाने का अभ्यस्त हो चुका है। स्थिति अत्यन्त जटिल है।

स्त्री सुरक्षा के सवाल पर जब हाल में एक सर्वेक्षण किया गया तो पाया गया कि 48 प्रतिशत स्त्रियाँ हथियार लेकर  चलने में इच्छुक है। अर्थात वे अब आत्म-निर्भर होकर अपनी सुरक्षा करेगी क्योंकि उन्हें प्रशासन, सरकार व कागजी घोषणाओं पर विश्वास नहीं कर रहा।

विश्व के अनेक विकसित देशों से विपरीत भारत ने आजादी मिलने के साथ हीं महिलाओं को सभी राजनितिक, कानूनी, सामाजिक अधिकार पुरुषों के समां प्रदान कर दिये। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 14 महिलाओँ को पुरुषों के समान समानता का अधिकार, अनुच्छेद 15(3) महिलाओँ के पक्ष में सकारात्मक भेद की व्यवस्था, अनुच्छेद 39(a)स्त्री- पुरुष के समान कार्य के लिए समान वेतन, अनुच्छेद 51(A)(e) में देश के सभी नागरिकों को स्त्री गरिमा का सम्मान करने का लिखित कर्त्तव्य बताया गया है। फलत: भारत का लिखित कानून स्त्री के भेदभाव को समाप्त करता है, परन्तु व्यवहार में स्त्रियों को दोयम दर्जे का नागरिक एंव सजावट/ भोग की वस्तु मानता है।

इस सम्बन्ध में यहाँ स्वीडन(एक उदारवादी यूरोपियन देश) का उदाहरण देना चाहूँगी जहाँ जेण्डर समानता नामक एक पृथक मंत्रालय है जो स्त्री-पुरुष समानता सुनिश्चित करने का हीं कार्य करता है। हमारे यहाँ भी इस तरह के प्रावधान पर चिन्तन करना चाहिए। स्त्री कल्याण मंत्रालय से ज्यादा की अपेक्षा नहीं कि जा सकती। आज अवश्यकता है कि स्त्री के सामान्य नागरिक/ मानुषी समझा जाय। भेदभाव समाप्त किया जाये। ऐसा होने पर स्त्रियँ स्वंय हीं प्रगति की राह निर्मित कर लेंगी।

जनवरी में 2014  को चेन्नई में 150वीं स्वामी विवेकानन्द महिला सभा आयोजित की गई जिसमें देश के अलग-अलग क्षेत्रों व व्यवसायों से 1000 स्त्रियाँ जुड़ी और स्त्री सशक्तीकरण का बहस के बाद कुछ बिन्दुओं पर सहमति जतायी---(1)  विकास का मॉडल स्त्री केन्द्रित हो (2)  केवल डिग्री से सशक्तिकरण नहीं आएगा। अपितु स्त्री क्षमता, कुशलता, सजगता व निणर्य लेने की सूझ- बूझ को निखारना होगा। (3) भारतीय स्त्री बुद्धिजीवी वर्ग पाश्चात्य सोच का कार्बन कॉपी न बने। नि:संदेह उपरोक्त तीन सुझाव स्त्री शक्ति को पुष्पित, पल्लवित व विकसित करने में महती भूमिका निभायेंगे।

विभिन्न आँकड़ों व घटनाओं के सुक्ष्म विश्लेषण से यह तथ्य उभऱ कर सामने आता है कि जब तक भारत में स्त्री शिक्षा का सही दिशा में सही विध्धा से, सही नियती से पोषण नहीं किया जाएगा तब तक भारतीय समाज यूँ हीं मानवीय खोखलेपन का शिकार होता रहेगा।सार तत्व में स्त्री का जनतंत्रीकरण करना होगा। इस प्रक्रिया को शुरु करनें में कई उपायों को अपनाने की जरुरत है। सबसे पहले जेण्डर संवेदनशीलता का प्रशिक्षण घर से आरम्भ किया जाये। बाल्याकाल से हीं परिवार के दूारा लड़का -लड़की दोनों में एक दूसरे के प्रति संवेदनशीलता, जिम्मेदारी व समान दृष्टिकोण विकसित किया जाये। घर से हीं लोकतंत्र की नींव मजबूत की जाये। नैतिक मूल्यों को किताबी बातें समझ कर अनसुना न किया जाये। नैतिक शिक्षा, चारित्रिक गुण व मानवीय गुणों को समाजिक प्रतिष्ठा का आधारस्तम्भ बनाया जाये। राजनीति को पुरुषों का बपौती न समझ कर स्त्रियाँ राजनीति को अपनायें, सक्रिय हों व राजनीति से परहेज न करें। राजनीति विज्ञान के जनक अरस्तू ने कहा था कि प्रत्येक मनुष्य सामाजिक व राजनीतिक प्राणी होता है। अथार्त राजनीति मनुष्य का एक स्वाभाविक गुण है। नोबेल शान्ति पुरस्कार विजेता मलाला का मानना है कि अन्याय के खिलाफ आवाज उठनी चाहिए। शोषण व भेदभाव को दूर करने के लिए जरुरी है कि सत्ता में अपनी स्थान सशक्त की जाये। अत: स्त्रियों को अपनी क्षमता को राजनीति से जोड़ना हीं होगा। 4: स्त्री शक्ति के  जनतंत्रीकरण में मीडिया ( प्रिन्ट व इलेक्ट्रानिक) की भूमिका आवश्यक सकारात्मक व उपयोगी है। यदि मीडिया स्त्रियों के पक्ष को न्यायसंगत, समतावादी व उत्तरदायित्व के साथ रखे तो तस्वीर का रुख जल्दी बदल सकता है।

अन्त में सर्वाधिक प्रभावशाली उपाय है कि पुरुष वर्ग को अपनी संगिनी का साथ हर हाल में देना होगा। स्त्री की क्रान्ति पुरुषों के विरुद्ध नहीं है अपितु उनके साहचर्य, समन्वय व सहयोग से हीं समाज का स्वरुप शुद्ध रुप में जनतांत्रिक हो पायेगा। जनतंत्र जीवन जीने की पद्धति है। भारतीय सांस्कृतिक विरासत में सअत्री के लिए प्रयुक्त  अर्धांगिनी शब्द उनके प्रति समतामुलक दृष्टिकोण को द्योतक है, जो स्त्री के जनतंत्रीकरण को हीं प्रतिविम्बित करता है।
वोट दें

क्या आप कोरोना संकट में केंद्र व राज्य सरकारों की कोशिशों से संतुष्ट हैं?

हां
नहीं
बताना मुश्किल