दीपावली आज, जलेंगे खुशियों के दीप

जनता जनार्दन डेस्क , Oct 23, 2014, 12:34 pm IST
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दीपावली आज, जलेंगे खुशियों के दीप नई दिल्ली: उत्तर भारत में मनाए जाने वाले दर्जनों हिंदू त्‍योहारों में से यदि एक त्‍योहार चुना जाए, तो वह निस्संदेह दीपावली ही होगा। दक्षिण भारतीय इससे असहमत हो सकते हैं और होना भी चाहिए, क्‍योंकि त्योहारों व उत्सवों में क्षेत्र, धर्म, आस्‍था, प्रसिद्धि और समाज की अभिव्‍यक्ति होती है। दीपावली ऐसे मौसम में आती है, जो केवल उत्तर भारत के लिए ही नहीं, पूरे देश का सबसे सुहाना मौसम होता है।

तपिश से मुक्ति और हल्‍की-हल्‍की सर्दी का स्‍वागत। मानो परिवर्तन हमारी देहरी पर दस्तक दे रहा हो। यह त्‍योहार ऐसे मौसम में आता है, जब किसानों की खरीफ की फसल कटकर घर आई होती है, तो अगली फसल की तैयारी की सुगबुगाहट भी होती है।

हर त्‍योहार की तरह दीपावली के साथ भी पौराणिक कथा है। इस दिन श्रीराम वनवास से लौटे थे। रावण जैसी बुराई के प्रतीक और असत्‍य पर सत्‍य की जीत हुई थी। इसलिए इसका अपना सांस्कृतिक महत्व है। दीपावली हमें अज्ञान के अंधकार से ज्ञान के उजाले में आने का संदेश देता है, लेकिन क्या हम इस सांस्कृतिक संदेश को ग्रहण कर पाते हैं?

बदलते वक्त के साथ कुछ सकारात्मक बदलाव आए हैं, तो कुछ नकारात्मक बदलाव भी, जिसका असर हमारे त्योहारों पर भी पड़ा है। हमारे देश के ज्यादातर त्योहार कृषि-संस्कृति से जुड़े हुए हैं, लेकिन विडंबना देखिए कि हाल के दशकों में त्योहारों पर बाजार हावी हो गया और कृषक समाज लगातार उपेक्षित होता चला गया है। बेशक हमने विविध क्षेत्रों में काफी तरक्की की है, लेकिन अब भी हमारे सामने कई तरह की चुनौतियां हैं।

हर वर्ष दीपावली के मौके पर जिस तरह से बम-पटाखों के ऊपर लाखों-करोड़ों रुपये का अपव्यय होता है, उसे देखकर भला कौन सोचेगा कि हमारे देश की करीब एक तिहाई आबादी गरीब है और कुपोषण के मामले में हमारी स्थिति बेहद शर्मनाक! उत्सव को मनाने से भला कौन रोकेगा, लेकिन उल्लास की मदहोशी में अपव्यय को भला कैसे जायज ठहराया जा सकता है!

इस बार दीपावली ऐसे वक्त में आई है, जब स्वच्छता के लिए अभियान चलाया जा रहा है। ऐसे में दीपावली के मौके पर अगर हम शोरविहीन एवं स्वच्छ दिवाली मनाएं, तो वह मानव स्वास्थ्य के साथ-साथ पर्यावरण के लिए भी सुखद होगा।

किसी पर्व या त्‍योहार का महत्‍व तभी बढ़ता है, जब वह पूरे समाज को खुशियों में शामिल करता है। दीपावली ऐसा ही त्योहार है। गरीब-अमीर, सबकी कोशिश होती है कि इस त्‍योहार को साथ मिलकर मनाएं। यह चलता भी कई दिन है। धनतेरस, छोटी दिवाली, बड़ी दिवाली, उसके बाद गोवर्धन पूजा, फिर भाई दूज। क्‍या किसी और पर्व में इतने उत्‍सव एक साथ जुड़े होते हैं? शायद नहीं।

इसके तुरंत बाद बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में छठ पूजा भी बहुत व्‍यापक स्‍तर पर मनाई जाती है। छठ पूजा यानी सूर्य देवता की उपासना। दीपावली से शुरू हुआ उल्‍लास का यह उत्‍सव छठ की समाप्ति तक चलता रहता है। इसी बीच में मुसलमानों का त्‍योहार ईद भी जुड़ जाए, तो बात ही क्‍या है! यानी समाज के जर्रे-जर्रे की इस उत्‍सव में भागीदारी।

ऐसे उत्‍सवों का एक विशेष महत्‍व है। देश की बढ़ती जनसंख्‍या और संस्‍थानों की सीमा के कारण कई बार व्‍यवस्‍था इन उत्‍सवों का भार ढोने में विफल भी नजर आती है। अपने घर से दूर महानगरों में मजदूरी करने वाले लोगों के लिए ये बड़े कशमकश के दिन होते हैं। एक तरफ अपने परिवार, प्रियजनों के साथ इस उत्‍सव में शरीक होने का मोह, तो दूसरी तरफ भौगोलिक दूरियां और अन्य समस्‍याएं।

लेकिन उनके उत्‍साह को सलाम करने की जरूरत है, जो इन सारी बाधाओं को पार करके भी दीपावली मनाते हैं। देश के अमीरों के लिए तो हर दिन दिवाली है, उनके लिए मॉल हैं, बाजार हैं, लेकिन गरीबों के लिए तो अपने परिजनों के साथ होने का उल्‍लास ही दीपावली है। यह उन महान पर्वों में से एक है, जिसके उल्लास पर गरीबों का भी बराबर हक है, बल्कि कहें कि अमीरों से ज्‍यादा।

बचपन के दिनों को याद करें, तो दीपावली की सादगी की अलग महक होती थी। गांव के कुम्‍हार ताऊ के पास चुपके से बैठ जाते थे और देखते रहते थे उनके हाथों का हुनर। वही हाथ, वही मिट्टी, पर कभी दीप बन जाते, कभी कुल्‍हड़, तो कभी बर्तन। फिर वे पकाए जाते और दिवाली के दिन हम सबके घरों की शोभा बनते। न मिठाइयों के ढेर होते, न मिलावट का डर। पूरा वातावरण एक पवित्रता से भरा हुआ। और फिर हफ्तों खील-बताशे खाए जाते।

दीपावली का उत्‍सव प्रकृति का उत्‍सव था। क्‍या महानगर की अमीरी ने इस पवित्रता को बने रहने दिया है? उत्‍सव मनाते समय हमें प्रकृति को साथ लेकर चलने की जरूरत है। इस पर्व के साथ अब जो बुराइयां जुड़ गई हैं, उनके जिम्मेदार भी ज्यादातर अमीर लोग ही हैं। भ्रष्‍टाचार को बढ़ावा देते उपहारों की मुनादी करने से लेकर जुए, सट्टा, शराब की दूसरी असभ्‍यताएं। काश ये अमीर दीपावली के इस पवित्र अवसर पर सोच पाएं कि हमें संसाधनों को बर्बाद नहीं करना चाहिए, क्योंकि समाज में असमानता की खाई गहरी है।

इस बार तो इस दीपोत्‍सव में और भी ज्‍यादा रोशनी भर गई है। नई सरकार, नई व्‍यवस्‍था, नए मंसूबे, परिवर्तन की एक नई आहट। यह सब देश के चप्‍पे-चप्‍पे पर और देश के बाहर भी दिख रहा है। उम्‍मीद करनी चाहिए कि पिछले कुछ दशकों में जो समृद्धि सिर्फ अमीरों तक सिमटी रही है, उसका विस्तार होगा और आने वाले दिनों में किसान और मजदूर भी समृद्ध होंगे।

बेरोजगारों को रोजगार मिलेगा, वैज्ञानिक और बड़ी ऊर्जा के साथ वैज्ञानिक उपलब्धियों की तरफ बढ़ेंगे और भारत अपने पड़ोसी देशों के साथ-साथ दुनिया भर के मुल्‍कों में शांति का प्रतीक बनकर उभरेगा। दीपावली की सार्थकता तभी है, जब हर चेहरे पर उल्‍लास नजर आए।
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