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मौलाना अबुल कलाम आजाद को जानिए तो जरा

 मौलाना अबुल कलाम आजाद को जानिए तो जरा "दिलोजिगर में जरा हौसला तो पैदा कर, मिलेगी मंजिल तू रास्ता तो पैदा कर।
हर एक जुल्म की जन्जीर टूट जायेगी, तू अपने वीन कोई रहनुमा तो पैदा कर।।"

मौलाना अबुल कलाम आजाद इस्लाम धर्म के अज़ीम आलिम, देशभक्ति, सांप्रदायिक सद्भाव के लिए जज़्बा रखने वाले एक मुन्फरिद (अद्वितीय)) शख्सियत थे। लेकिन, ये बहुत अफसोसनाक है कि उनकी खिदमात को तकरीबन भुला दिया गया है। स्कूल या कॉलेज जाने वाली नई पीढ़ी के छात्रों में से मुझे लगता है कि एक फीसद भी शायद ही उनके बारे में और उनकी उपलब्धियों के बारे में जानते होंगे।

स्वतंत्र भारत के प्रथम शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आजाद के जन्म दिवस (11 नवंबर 1888) को राष्ट्रीय शिक्षा दिवस के रूप में मनाने की यह शुरुआत भी अच्छी है, इस बहाने हम उन्हें याद कर रहे हों या शिक्षा संबंधी अपने कार्यक्रमों को।

मौलाना आज़ाद अफग़ान उलेमाओं के ख़ानदान से ताल्लुक रखते थे जो बाबर के समय हेरात से भारत आए थे। उनकी मां अरबी मूल की थीं और उनके पिता मोहम्मद खैरुद्दीन एक फारसी थे।

मौलाना ने अपना उपनाम 'आजाद' रख लिया था जबकि उनका असली नाम मुहिउद्दीन अहमद था। 'आजाद' नाम रखने का कारण लोगों को इस बात का संदेश देना था कि उनको परंपरा में जो विश्वास, मान्यताएं तथा मूल्य मिले थे, वे अब उनसे बंधे हुए नहीं रहे हैं। यही कारण था कि उन्होंने अपने पिता की तरह पीरी-मुरीदी का सिलसिला जारी रखने से परहेज किया।

न्यु एज इस्लाम डाट काम के मुताबिक मौलाना सर सैय्यद अहमद खान के प्रभाव में आए और उनके लेखन को बहुत रुचि के साथ पढ़ा। लेकिन वो आज़ाद ज़हेन के मालिक थे और ब्रिटिश शासन से वफादारी पर सर सैय्यद के ज़ोर देने से जल्द ही अपने आपको दूर कर लिया, लेकिन वह आधुनिकता और आधुनिक शिक्षा के बारे में उनके विचारों को स्वीकार करते थे।

मौलाना अबुल कलाम आजाद अपने किताब में लिखते हैं कि- 'मजहब इंसान को उसकी खानदानी विरासत के साथ मिलता है। मुझे भी मिला परंतु मैं परंपरागत विश्वास की विरासत पर कायम न रह सका। मेरी प्यास उससे कहीं ज्यादा निकली जितनी वह प्यास बुझा सकते थे। लिहाजा मुझे पुरानी राहों से निकलकर नई राहें ढूंढनी पड़ीं। अभी 15 बरस ही बीते थे कि तबीयत का जुस्तजुओं से मिलन हो गया। इसी सिलसिले में पहले इस्लाम के अंदरूनी भेद-भाव सामने आए तो उनके दावों प्रतिदावों, आरोपों तथा प्रत्यारोपों ने मुझे हैरान व परेशान कर दिया। फिर कदम कुछ आगे बढ़े तो मजहब की सार्वभौमिकता ने मुझे हैरानी, हैरानगी से शक तक तथा शक से इंकार तक पहुंचा दिया। फिर इसके बाद मजहब और इल्म के बाहरी आडंबर प्रकट हुए तो उनसे मैंने रहा-सहा विश्वास ही खो दिया।'

मौलाना के लिए देशभक्ति इस्लामी दायित्व था क्योंकि पैगम्बर (स.अ.व.) के बारे में रवायत है कि आप (स.अ.व.) ने फ़रमाया कि किसी का अपने देश से प्यार करना उसके ईमान का हिस्सा है। और देश से इस प्यार ने विदेशी गुलामी से आजादी की मांग की और इस तरह अपने देश को ब्रिटिश गुलामी से आज़ाद कराने को अपना फर्ज़ समझा। इस तरह वह बहुत छोटी उम्र से ही स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हो गए। मौलाना बहुत कम उम्र में कांग्रेस के अध्यक्ष बन गए, शायद वह कांग्रेस पार्टी के सबसे कम उम्र के अध्यक्ष थे।

मौलाना महात्मा गांधी के सिद्धांतों का समर्थन करते थे। मौलाना का मानना था कि देश की आज़ादी के लिए हिंदू मुस्लिम एकता जरूरी है। 1923 में वे भारतीय नेशनल कांग्रेस के रामगढ़ अधिवेशन में पार्टी के अध्यक्ष बन गए, तब उन्होंने अपने सदारती खिताब को इन शब्दों के साथ समाप्त किया, 'चाहे जन्नत से एक फरिश्ता अल्लाह की तरफ़ से हिंदुस्तान की आज़ादी का तोहफा लेकर आए, मैं उसे तब तक कुबूल नहीं करूंगा, जब तक कि हिंदू मुस्लिम एकता कायम न हो जाए, क्योंकि हिंदुस्तान की आज़ादी का नुक्सान हिंदुस्तान का नुक्सान है जबकि हिंदू मुस्लिम एकता का नुक्सान पूरी मानवता का नुक्सान होगा।

ये ध्यान देने योग्य है कि हिंदू मुस्लिम एकता के बारे में उनके विश्वास की तरह, यह भी मौलाना का विश्वास था कि धार्मिक आधार पर भारत का विभाजन गलत होगा। जो अपने देश से प्यार करता है वो कभी उसका बंटवारा नहीं कर सकता है। इसके अलावा, वो यो भी जानते थे कि जब लोकतंत्र सक्रिय होना शुरु होता है तो उसे अल्पसंख्यकों के अधिकारों का ध्यान रखना चाहिए और मुसलमान किसी तरह अल्पसंख्यक नहीं रहे थे। देश के विभाजन से पहले इनकी तादाद 25 प्रतिशत से अधिक थी और आज अगर देश विभाजित न हुआ होता तो उनकी आबादी 33 प्रतिशत से अधिक होती।

मौलाना एक महान राजनीतिज्ञ थे और इसके बावजूद वो खिलाफत आंदोलन के समर्थक थे। मौलाना उसे अस्वीकार करने वालों में सबसे पहले थे, जब कमाल पाशा ने तुर्की में विद्रोह किया और खिलाफ़त को सत्ता से बेदखल कर दिया और खिलाफ़त के इदारे को फरसूदा (पुराना) बताया था। मौलाना ने अता तुर्क के आधुनिक सुधारों का स्वागत किया था और मुसलमानों को खिलाफ़त के इदारे की सुरक्षा के प्रयासों को छोड़ देने का सुझाव दिया था जिसे तुर्की के नेताओं ने खुद त्याग कर दिया था।

जब नेहरू समिति की रिपोर्ट 1928 के कांग्रेस अधिवेशन में विचार के लिए आई तब मौलाना ने संसद में मुसलमानों के लिए एक तिहाई प्रतिनिधित्व की जिन्ना की मांग का विरोध किया था। मौलाना की दलील थी कि लोकतंत्र में किसी समुदाय को बहुत अधिक प्रतिनिधित्व नहीं दिया जा सकता है और जहां तक अल्पसंख्यकों के अधिकारों का संबंध है तो संविधान विशेष कानूनों के द्वारा उनका खयाल रख सकता है और जैसा भारतीय संविधान ने अनुच्छेद 25 से 30 के द्वारा किया है। मौलाना हमेशा दीर्घकालीन दृष्टिकोण के साथ रहे और कभी भी सस्ती लोकप्रियता के लिए अमल नहीं किया।

मौलाना आजाद 1937 में उत्तर प्रदेश में मुस्लिम लीग को दो कैबिनेट पद देने से इंकार करने के जवाहर लाल नेहरू के फैसले से सहमत नहीं थे। इन चुनावों में मुस्लिम लीग को भारी विफलता हाथ लगी थी। मौलाना आजाद ने नेहरू को सलाह दिया कि वह मुस्लिम लीग के द्वारा नामित दो मंत्रियों को सरकार में शामिल कर लें क्योंकि इससे इन्कार का दूरगामी नकारात्मक प्रभाव पड़ेगें और इस मामले में मौलाना सही साबित हुए। जिन्ना इस पर नाराज़ हो गए और कांग्रेस सरकार को ‘हिंदू सरकार’ कह कर निंदा करनी शुरू कर दी, और कहा कि जिसमें मुसलमानों को कभी न्याय नहीं मिलेगा।

अगर नेहरू ने मौलाना के मश्विरे को स्वीकार कर लिया होता तो शायद देश को विभाजित होने से बचाया जा सकता था, लेकिन मुस्लिम लीग को मंत्रिमंडल में दो पद देने से इंकार करने के नेहरू के अपने ही कारण थे क्योंकि वह खुद चाहते थे कि कांग्रेस मुसलमानों को अधिक प्रतिनिधित्व दे। लेकिन मौलाना ने अमली सियासत के आधार पर उस पर दूसरी तरह से विचार किया। मौलाना हमेशा भविष्य के परिणामों और न कि सिर्फ त्वरित परिणाम के बारे में सोचा करते थे।

नेहरू और मौलाना आजाद केवल अच्छे दोस्त ही नहीं थे बल्कि एक दूसरे का बहुत सम्मान करते थे। नेहरू ने कई भाषाओं पर मौलाना की महारत हासिल करने और उनकी इल्मी सलाहियत पर शानदार खिराजे तहसीन पेश की है।

मौलाना ने भविष्यवाणी की थी कि आज अगर मुसलमानों को लगता है कि हिंदू उनके दुश्मन हैं तो कल जब पाकिस्तान अस्तित्व में आएगा, और वहाँ कोई हिंदू नहीं होगा तो वे आपस में क्षेत्रीय, जातीय और सांप्रदायिक आधार पर लड़ेंगे। उन्होंने इस बात को स्पष्ट रूप से मुस्लिम लीग के उन कुछ सदस्यों को बता दिया था जो पाकिस्तान के लिए रवाना होने से पहले मौलाना से मिलने आए थे। आज पाकिस्तान में ऐसा ही हो रहा है। न केवल सांप्रदायिकता बढ़ी है बल्कि धार्मिक कट्टरता भी अपने शबाब पर है। हत्या, सामान्य और रोज़ाना का मामला बन गया है।

सभी धर्मों का इतिहास बताता है कि जब धर्म राजनीति के साथ जुड़ जाता है तब सत्ता धर्म और धार्मिक मूल्यों की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है। सत्ता उद्देश्य बन जाता है और धर्म उसे प्राप्त करने का एक ज़रिया बन जाता है। मौलाना उसे बखूबी समझते थे इसलिए वो धार्मिक की तुलना में धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक राजनीति की ओर अधिक आकर्षित थे।

मौलाना आजाद ने अपने जीवन का ध्येय यह बनाया कि वे इस्लाम का स्वच्छ रूप जनता को समझाएंगे और इसके लिए उन्होंने पत्रकारिता को अपना माध्यम बनाया। मौलाना आजाद की लेखनी में ऐसा जादू था जो सर चढ़कर बोलता था। 1912 में उन्होंने ' अल-हिलाल ' अखबार प्रकाशित किया जिसका ध्येय अंग्रेजों के खिलाफ भारतवासियों में राष्ट्रीय भावना जगाना था जिसमें वे पूरी तरह सफल रहे। मगर, हिन्दू - मुस्लिम संप्रदाय की आपसी सद्भावना को पनपते देख अंग्रेज सरकार ने इसे जब्त कर लिया। 1916 में पुन : ' अल-बलाग ' के नाम से इसे मौलाना ने प्रकाशित किया और उस समय इसकी प्रसार संख्या 29000 पहुंच गई। फिर अंग्रेजों ने एक बार और उसे बंद कर दिया।

आजादी के समय उन्होंने बंटवारे का समर्थन नहीं किया और इसके खिलाफ खड़े हुए। हालांकि कई लोग आज भी मानते हैं कि जिस तरह गांधी जी ने बंटवारे के समय हालात को समझने में देर लगाई उसी तरह मौलान अबुल कलाम आजाद ने भी उस समय एकता के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए।

आज के नेताओं को मौलाना आजाद के जीवन से सबक लेना चाहिए कि किस प्रकार से देश की आन - बान के लिए वे सब कुछ लुटाने के लिए तैयार थे। भारत रत्न मौलाना अबुल कलाम आजाद न केवल आपसी भाई चारे के प्रतीक थे बल्कि राष्ट्रीय सौहार्द का जीता जागता उदाहरण थे। उन्होंने देश में एकता बढ़ाने के लिए जो भी काम किए उन्हें यह देश हमेशा याद रखेगा।
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