छठ पूजा यानी सूर्य की उपासना
जनता जनार्दन डेस्क ,
Nov 08, 2013, 12:44 pm IST
Keywords: छठ सूर्य की उपासना पर्व सूर्य देवता के प्रति असीम श्रद्धा आस्था व्यक्त करने का पर्व समाज की संस्कृति विभिन्न देवी-देवताओं की पूजा राजनैतिक सामाजिक आर्थिक जगत त्यौहारों Chhath Sun worship Celebration Dedication to the sun god Faith Feast of expressing society's culture Different goddess - worship of the gods Political Social Economic Corporate Festivals
नई दिल्ली: छठ सूर्य की उपासना का पर्व है- सूर्य देवता के प्रति असीम श्रद्धा और आस्था व्यक्त करने का पर्व है। कृषक समाज या कृषि पर आधारित समाज की संस्कृति में विभिन्न देवी-देवताओं की पूजा उस समाज की संपूर्ण मानसिकता का प्रतिनिधित्व करती है इसीलिए राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक जगत में अनेक तरह के परिवर्तन के वावजूद पर्व त्यौहारों का सिलसिला आज भी जारी है।
सूर्य काल्पनिक देवता नहीं, बल्कि प्रत्यक्ष देवता हैं और कृषक समाज को जब न तो विज्ञान का इतना विकास हुआ था और न ही आधुनिक सुख-सुविधाएं उपलब्ध थी, सूर्य सिर्फ ऊष्मा और ऊर्जा ही नहीं देता था बल्कि कृषि में भी हर तरह से सहायता पहुंचाता था। भारतीय समाज के एक वर्ग ने ऐसे प्रत्यक्ष देवता की पूजा का विधान करने में काफी सोच-समझकर नियम बनाए। सही अर्थों में पूजक कृषकों ने अपने पुरुषार्थ का प्रदर्शन किया। अपनी श्रमशक्ति से खेतों में वे जो कुछ उपजाते थे उन सबको पहले सूर्य देवता को भेंट के रूप में देते थे इसी अर्थ में यह पर्व कृषक समाज के पुरुषार्थ के प्रदर्शन के रूप में मनाया जाता है। इस पर्व के मौके पर जो लोक गीत गाये जाते हैं उनमें से कई गीतों के अर्थ कुछ इस प्रकार होते हैं—‘हे देवता! नेत्रहीनों को दृष्टि दो, कुष्ठ रोगियों को रोगमुक्त कर स्वस्थ बनाओ और उसी तरह से निर्धनों को धन प्रदान करो। यही तुम्हारे रथ को पूरब से पश्चिम की ओर ले जाएंगे।’ गौर करें तो इस गीत में अपने लिए नहीं, बल्कि समाज के पीड़ित और उपेक्षित लोगों के लिए नया जीवन मांगा जा रहा है। एक लोकगीत में तो मांग की गई है, ‘हे देवता! हमें पांच विद्वान पुत्र और दस हल की खेती चाहिए।‘ इससे प्रमाणित होता है कि यह व्रत अत्यंत प्राचीन काल से मनाया जाता रहा है। भविष्य पुराण में भी इस व्रत का उल्लेख मिलता है- ‘कृत्यशिरोमणो, कार्तिक शुक्ल षष्ठी षष्ठीकाव्रतम’ यानी धौम्य ऋषि ने द्रोपदी को बतलाया कि सुकन्या ने इस व्रत को किया था। द्रोपदी ने भी इस व्रत को किया जिसके फलस्वरूप वह 88 सहस्र ऋषियों का स्वागत कर पति धर्मराज युधिष्ठर की मर्यादा रखती हुई शत्रुओं को समूल नष्ट करके विजय प्राप्त की। इस अवसर पर जो भी गीत गाये जाते हैं, वे प्राय: सूर्य से संबंधित होते हैं। किसी में भास्कर भगवान की महिमा होती है तो कहीं पर आदित्य से शीघ्र उदय होने की प्रार्थना की गई है। इन गीतों में समस्त मानव को सूर्य देवता का सेवक माना गया है। ये सभी गीत पूर्णत: धर्म एवं समाज से जुड़े होते हैं। जब स्त्रियां गीत गाती हुईं किसी जलाशय के किनारे जाने के लिए घर से निकलतीं हैं तो उस समय वे निम्न गीत गाती हैं— “कांचहि बांस के दउरवा, दउरा नइ नइ जाइ। केरवा से भरल दउरवा, दउरा नइ नइ जाइ। होखना कवन राम कहरिया, दउरा घाटे पहुंचाई। बाट जे पूछेला बटोहिया, इ दउरा केकरा के जाइ। तें ते आन्हर बाड़े रे बटोहिया, इ दउरा छठी मइया के जाइ।“ एक स्त्री कह रही है कि मैं अपने स्वामी को गिरवी रखकर छठी माता को पांच प्रकार के फलों का अर्घ्य दूंगी। दो-दो बांस की सूपली से छठी माता को अर्घ्य दूंगी। “कहेली कवन देइ हम छठि करवो, अपना स्वामी जी के गिरवी रखबो। पांच करहरिया मइया के अरघ देवो, दोहरी कलसुपये मइया के अरघ देवो।“ दरअसल इस गीत पर गौर करें तो यहां पर भारतीय नारी के लिए यह सबसे बड़ा त्याग परिलक्षित होता है कि वह अपने पति को गिरवी रखकर छठी माता की पूजा करने के लिए तैयार है। वह दो-दो सुपली से भगवान भास्कर को अर्घ्य देने का प्रण करती है। इससे इस व्रत की महिमा और उसकी लोकप्रियता प्रकट होती है। ऐसे तमाम गीत जब इस मौके पर स्त्रियां गाती हैं तो भक्ति की एक असीम धारा प्रवाहित होती हैं। स्त्रियां जब ‘ए छठि मइया ए छठि मइया’ को बार-बार दुहराती हैं उस समय मानो ऐसा प्रतीत होता है कि उनके हृदय भक्ति भावना से ओत-प्रोत है और वे छठि मइया को गोहराने में ही लीन हैं। व्रत का नाम है ‘रवि षष्ठी व्रत’ अर्थात कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को इस व्रत का आयोजन होता है। वैसे तो यह चार दिन का व्रत है जिसमें व्रत के पहले दिन चतुर्थी तिथि को व्रत करने वाली महिलाएं एवं पुरुष पवित्र होकर भोजन करते हैं जिसमें नमक के रूप में सेंधा नमक का प्रयोग किया जाता है। अगले दिन पंचमी को व्रत करने वाले एक ही वक्त रात में बिना नमक के भोजन करते हैं और दिन भर उपवास करते हैं। अगले दिन षष्ठी तिथि को व्रती का 24 घंटे का उपवास होता है और डूबते हुए सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है। जिस डाली में सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है उस डाली में पूजा सामग्री धूप, दीप के अतिरिक्त पांच प्रकार के सामयिक फल केला, नींबू, संतरा, नारियल और शरीफा आदि चढ़ाया जाता है। इसके अतिरिक्त मूली, गन्ना, हल्दी, सूरन आदि भी डाली में रखा जाता है। सूर्य भगवान का सबसे प्रमुख व्यंजन पकवान को माना गया है जिसे में डाली में चढ़ाने के लिए बड़ी ही शुद्धता से गेहूं को धोकर सूर्य के प्रकाश में सुखाकर जांत में उसका आटा बनाया जाता है और फिर उसे दूध से गीला कर एक ऐसे सांच में डालकर आकार दिया जाता है जिसपर सूर्य देवता का चित्र बना होता है और फिर उसे शुद्ध घी में तलकर डाली में चढ़ाकर देवता को अर्घ्य दिया जाता है। षष्ठी तिथि के शाम से लेकर रात भर दीपमालिका सजाकर गीत मंगल आदि का आयोजन कर व्रत करने वाले का मनोबल बढ़ाया जाता है और सप्तमी तिथि को उगते हुए सूर्य को अर्घ्य देकर प्रसाद का वितरण किया जाता है। फिर व्रत करने वाले व्रती भोजन करते हैं। यहां व्रत करने वाले व्यक्ति की कल्पनाशक्ति देखिए—षष्ठी तिथि उच्चारण विपर्यय के कारण छठी बन गई और स्त्रीलिंग होने के कारण उसे सूर्य की जननी के रूप में स्वीकार किया गया और षष्ठी तिथि ‘छठी मइया’ बन गई तथा षष्ठी का दिवस पुल्लिंग होने के कारण ‘छठ व्रत’ बन गया। इस सबके अलावा इस व्रत का जो सबसे महत्वपूर्ण पक्ष है इसका सामाजिक पक्ष। पूरा गांव, शहर या मुहल्ला किसी नदी या तालाब के किनारे इकट्ठा होता है और वहीं सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है। यह व्रत अलग-अलग घरों में नहीं मनाया जाता है। इस दिन व्यष्टि समष्टि में विलीन होकर सामाजिक एकता का उद्घोष करती है और संपूर्ण बिहार व उससे लगे उत्तर प्रदेश के सीमा के कुछ जिलों (पूर्वांचल) में यह व्रत इतना महत्वपूर्ण है कि इस व्रत के दौरान बड़े-छोटे, धनी-गरीब और छूत-अछूत तक का भेद मिट जाता है और व्रत का विधान इस ढंग से किया गया है कि आचार्य और पुरोहित से लेकर कपड़े सिलने वाले दरजी और टोकरी बनाने वाले डोम तक की मांग बढ़ जाती है। सभी को उनके काम के आधार पर उचित सम्मान भी प्राप्त होता है। इस दृष्टि से यह पर्व सामाजिक संश्लिष्टता का भी परिचायक है। आज हमारा समाज संक्रमण काल के दौर से गुजर रहा है जिसमें जातिगत एवं ऊंच-नीच का भेदभाव सामाजिक एकता को नष्ट कर रहा है। ऐसे में इस पर्व की प्रासंगिकता आज भी कायम है। खासकर बिहार प्रदेश में जातिवाद फैलाकर भेदभाव को बढ़ाया जा रहा है जिसमें एक जाति दूसरे जाति को जड़ मूल से नष्ट करने पर उतारू है, यहां तक कि राजनीति का भी जातिकरण कर दिया गया है। ऐसे में जरूरत है इस ‘छठ पर्व’ की आस्था को मजबूत करने की, सशक्त करने की ताकि सामाजिक एकता और सबकी सबमें आस्था की डोर मजबूत बनी रहे। |
क्या आप कोरोना संकट में केंद्र व राज्य सरकारों की कोशिशों से संतुष्ट हैं? |
|
हां
|
|
नहीं
|
|
बताना मुश्किल
|
|
|