हिंदी की उपेक्षा क्यों ?

अनंत विजय , Sep 17, 2013, 11:38 am IST
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हिंदी की उपेक्षा क्यों ? आज हिंदी के लेखकों में इस बात को लेकर खासा क्षोभ दिखाई देता है कि उनको मीडिया, खासकर अंग्रेजी मीडिया में जगह नहीं मिलती । हालात यह है कि बड़े से बड़ा हिंदी का कवि या लेखक बड़े से बड़ा पुरस्कार पा जाए , उसकी नई कृति आ जाए और वो हिंदी समाज में चर्चित हो जाए या फिर किसी स्थापित लेखक या बुजुर्ग लेखक का निधन हो जाए । अंग्रेजी के अखबार या न्यूज चैनल उसकी नोटिस ही नहीं लेते हैं । अव्वल तो खबर नहीं ली जाती या फिर अगर ली भी जाती है तो उसको ऐसी जगह दी जाती है जो एकदम से महत्वहीन होती है और पाठकों की नजर वहां तक पहुंच ही नहीं पाती है । हां अगर लेखक फिल्मों से जुडा़ हो या फिर उसकी कोई साहित्येत्तर पहचान हो तो अंग्रेजी मीडिया उसको जमकर तवज्जो देते हैं ।

कमलेश्वर जी के निधन के बाद अंग्रेजी के अखबारों ने उनपर श्रद्धांजलि के लेख इस वजह से छापे कि वो हिंदी के साहित्यकार के अलावा फिल्म लेखन और दूरदर्शन के शुरुआती दौर से जुड़े थे । थोड़ा बहुत श्रीलाल जी के निधन पर भी अंग्रेजी अखबारों ने छापा । क्या इनको अंग्रेजी अखबारों में जितनी जगह दी गई वह काफी था । कतई नहीं वो इससे ज्यादा के हकदार थे । हम कह सकते हैं कि यह स्थिति अचानक से पैदा नहीं हुई । आजादी के बाद से हिंदी साहित्य के बारे में, हिंदी उपन्यासों के बारे में , हिंदी कवियों और लेखकों के बारे में अंग्रेजी के अखबारों में लगातार लेख छपते रहे हैं ।

हिंदी साहित्य में यह माना जाता है कि फणीश्वर नाथ रेणु के उपन्यास मैला आंचल की पहली समीक्षा नलिन विलोचन शर्मा ने लिखी थी । लेकिन यह तथ्य नहीं है । फणीश्वर नाथ रेणु के ‘मैला आंचल’ की पहली समीक्षा 15 जुलाई 1955 के एक अंग्रेजी अखबार में ‘अ नॉवेल ऑफ रूरल बिहार’ के शीर्षक से छपी थी और उसे शामलाल ने लिखा था । उसी लेख से यह भी पता चलता है कि फणीश्वर नाथ रेणु का यह उपन्यास पहले समता प्रकाशन, पटना ने छापा था और बाद में वो राजकमल प्रकाशन से छपा । इसकी भी एक लंबी कहानी है लेकिन वो विषयांतर हो जाएगा ।

आजादी के बाद के कई दशक तक अंग्रेजी के अखबारों में हिंदी लेखकों की किताबों पर गंभीर लेख छपा करते थे । स्वयं शाम लाल जैसे अंग्रेजी के संपादक ने प्रेमचंद, जैनेन्द्र, मुक्तिबोध और निर्मल वर्मा की किताबों पर विस्तार से लिखा, साथ ही उस दौर के कवि और कविताओं पर भी गंभीर लेख लिखा था । शामलाल तो हिंदी कवियों पर कविता की नई प्रवृतियों पर अस्सी के दशक तक लिखते रहे । उन्होंने भोपाल की एक कवि गोष्ठी के बहाने से पहला सप्तक से लेकर उस वक्त तक की कविताओं पर एक आलोनात्मनक लेख अंग्रेजी में लिखा था । उस लेख को पढ़कर गैर हिंदी भाषी लोग भी हिंदी कवि नेमिचंद्र जैन से लेकर श्रीकांत वर्मा से लेकर विजयदेव नारायण साही से लेकर रघुवीर सहाय की कविताओं से परिचित हो सकते हैं । 

शामलाल के अलावा अन्य अंग्रेजी अखबारों के संपादक और वरिष्ठ पत्रकारों ने भी श्रीकांत वर्मा से लेकर अज्ञेय की किताबों और उनके रचनाकर्म पर गंभीरता से विमर्श किया है । वह दौर था जब हिंदी के आयोजनों में अंग्रेजी के संपादकों और लेखकों को आमंत्रित किया जाता था । लेकिन सत्तर के दशक के मध्य से अंग्रेजी का हिंदी के प्रति भाव उदासीन होने लगा । अंग्रेजी अखबारों में हिंदी के लेखकों, कवियों और उपन्यासकारों और उनके रचनाकर्म पर छपना कम होता चला गया। जिन अखबारों में मुक्ति बोध की मृत्यु की खबर मुखपृष्ठ पर फोटो के साथ छपी थी उसी अखबार ने श्रीलाल शुक्ल की मौत की खबर को अंदर के पन्नों पर छोटी सी जगह दी । जो अंग्रजी के लेखक हिंदी की किताबों पर लिखते थे उन्होंने कन्नी काटनी शुरू कर दी । यह एक बहुत गंभीर सवाल है ।

आज हम साहित्य के पाठकों की कमी के लिए छाती कूटते हैं लेकिन उस कमी के मूल कारण में नहीं जाते हैं । आज हम कोई ऐसा उपक्रम नहीं कर रहे हैं जिससे नया पाठक वर्ग संस्कारित हो सके । इसके पीछे के कारणों को ढूंढना होगा । आज अगर आप अपनी भाषा और संस्कृति की बात करेंगे तो आपको फौरन से पेशतर संघी करार दे दिया जाएगा और वो भी इस तरह से कि आपको लगेगा कि कोई जुर्म हो गया । गोया कि अपनी भाषा और संस्कृति के विकास की बात करना और उसपर गर्व करना गुनाह हो । हुआ यह कि हमने अपनी भाषा और उसकी ताकत पर गर्व करना छोड़ दिया ।

इसका नतीजा यह हुआ कि दूसरी भाषा के लोगों को लगने लगा कि हिंदी और हिंदुस्तान की संस्कृति की बात कहने से उनपर भी एक खास किस्म का ठप्पा लग जाएगा । लिहाजा अंग्रेजी के लोगों ने हिंदी से किनारा करना शुरू कर दिया । हमने भी अपनी भाषा का दामन छोड़ दिया और अंग्रेजी के पीछे भागने लगे । आजादी के कई साल बाद तक हिंदी के लोग गर्व से ये कहते थे कि वो हिंदी भाषी हैं और उन्हें अंग्रेजी नहीं आती । गर्व से अंग्रेजी नहीं आने की बात सार्वजनिक रूप से स्वीकार करने का जो साहस था उससे हिंदी को एक मजबूती मिलती थी ।

महात्मा गांधी ने भी 15 अगस्त 1947 को बीबीसी को दिए एक संदेश में साफ तौर पर इसकी ओर इशारा किया था- समाज की जो हम सबसे बड़ी सेवा कर सकते हैं, वह यह है कि हमने अंग्रेजी भाषा की शिक्षा के प्रति जो अन्धविश्वासपूर्ण सम्मान करना सीखा है, उससे स्वयं मुक्त हों और समाज को मुक्त करें । लेकिन हिंदी समाज ने गांधी की इस बात को नहीं माना और अंग्रेजी के प्रति लगातार हमारा अंधविश्वासपूर्ण सम्मान बढ़ता चला गया । नतीजा यह हुआ कि हम अपनी भाषा को छोड़कर एक विदेशी भाषा में प्रतिष्ठा तलाशने लगे ।

अंग्रेजी को लेकर हिंदी के लोगों में एक खास किस्म की हीन भावना घर कर गई । धड़ल्ले से हिंदी बोलनेवाले लोग भी जब किसी मॉल की भव्य दुकान के अंदर जाते हैं तो वहां घुसते ही एक्सक्यूज मी का जयकारा लगाते हैं । शानदार हिंदी बोलनेवाले भी टूटी फूटी अंग्रेजी बोलकर अपने को धन्य समझते हैं । इस तरह के वातावरण को देखकर अंग्रेजी वालों के मन में हिंदीवालों के प्रति एक उपहास का माहौल बना जो कालांतर में उनको हिंदी साहित्य से दूर लेकर चला गया ।  इस मानसिकता को प्रोफोसर यदुनाथ सरकार बेहतरीन तरीके से व्यक्त किया – हमारे अंग्रेजी बोलने और सोचने से हमारे दिमाग पर इतना बोझ पड़ता है कि हम उससे कभी पूरी तौर पर मुक्त नहीं हो पाते हैं ।

हिंदी में कुछ शुद्धतावादी लेखक भी इस स्थिति के लिए जिम्मेदार हैं । जब भी जहां भी मौका मिलता है वो हिंदी के नाश के लिए अंग्रेजी को जिम्मेदार ठहराने लगते हैं । उन्हें लगता है कि अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग से हिंदी का नाश हो जाएगा । उनकी ये चिंता जायज हो सकती है लेकिन हिंदी के प्रयोग के आग्रह में वो इतने उत्साहित हो जाते हैं कि अंग्रेजी को दुश्मन की तरह पेश करने में जुट जाते हैं । जोश में होश खोते हुए अंग्रेजी भगाओ तक का नारा देने में जुट जाते हैं । अंग्रेजी के साइनबोर्ड तक पर कालिख पोतने का दौर चलाने लग जाते हैं । इससे नफरत का माहौल बनता है । इस तरह की बात अंग्रेजी के लोगों तक पहुंचेंगी तो उनकी स्वाभावित प्रतिक्रिया हिंदी को शांति से दरकिनार करने की होगी ।

आज अगर अंग्रेजी के लोग हिंदी को लेकर तटस्थ हैं तो उसके पीछे यह भी एक बड़ी वजह है । आज वक्त आ गया है कि हिंदी को मजबूत करने के साथ साथ हमें अंग्रेजी के प्रति दुश्मनी के भाव को त्यागना होगा । हिंदी साहित्य के मूर्धन्यों को अंग्रेजी के प्रति घृणा का भाव त्यागना होगा । साथ ही अपनी भाषा और संस्कृति पर हमें गर्व करना ही होगा । हमें दूसरों को इस बात के लिए मजबूर करना होगा कि हिंदी पर लिखे बिना तुम्हारा काम चलनेवाला नहीं है । अपनी रचनात्मक विस्फोट से उनका ध्यान खींचना होगा । हिंदी के लिए यह जरूरी है कि वो किसी भाषा से नफरत ना करे और ना ही उसके प्रति अंधविश्वासपूर्ण सम्मान प्रदर्शित करें।
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