एक समझदार की नासमझी, और दलित विमर्श

एक समझदार की नासमझी, और दलित विमर्श मुझे आपत्ति है। समाजशास्त्री आशीष आशीष नंदी के बयान पर जयपुर फेस्टिवल में मैंने आपत्ति की थी। काफी हंगामा मचा। अंग्रेजी बुद्धिजीवी वर्ग ने काफी नाक-भौं सिकोड़ी, मुझे खलनायक बनाने की कोशिश की गई। कहा गया कि मैंने आशीष नंदी को 'मिसकोट' किया। मैं उनके बौद्धिक चिंतन से अवगत नहीं हूं। मैं ज्यादा पढ़ा-लिखा नहीं हूं और न ही मुझमें बौद्धिकता की नफासत या तमीज है। लेकिन मुझे इतना ज्ञान है कि भारत क्या है? उसका चिंतन क्या है? उसमें किन नई सामाजिक चेतनाओं का प्रवाह हो रहा है? और नई चेतना के खिलाफ पुरानी चेतनाएं किस कदर अपनी जिद पर अड़ी बैठी हैं? सबसे बड़ी बात, मैं आंग्ल-अभिजात्य बुद्धिजीवी वर्ग की नजर से हिन्दुस्तान को देखने के लिए तैयार नहीं हूं। मेरा हिन्दुस्तान बदल रहा है। इस हिन्दुस्तान में धीरे-धीरे प्रभुत्ववादी सोच, अनुकंपावादी चिंतन ब्राह्मणवादी मानसिकता का तिलिस्म टूट रहा है। वह समाज, जो अब तक इस सोच की वजह से हाशिये पर था, धीरे-धीरे भारतीय चिंतन और सत्ता के केंद्र में आता जा रहा है। आधुनिकतावादी होने के बावजूद आशीष नंदी नई और पुरानी सोच के द्वंद्व की गांठ को पूरी तरह से नहीं खोल पाए और फजीहत डोलने को अभिशप्त हुए। मैं यह नहीं कहता कि वह दलित विरोधी हैं या फिर जातिवादी हैं, लेकिन सोच तो अबाध है, हर पल नया रूप लेती है। जरूरी नहीं कि दुनिया का सबसे काबिल बुद्धिजीवी हमेशा उससे कदमताल ही करे। उससे भी गलती हो सकती है।

उस दिन बात पत्रकार तरुण तेजपाल के कुतर्क से शुरू हुई थी। तरुण का कहना था कि भ्रष्टाचार सामाजिक बराबरी लाने का प्रतीक है। उनके मुताबिक, ऊंची जातियों की तरह ही दलित और पिछड़ी जातियों में भी भ्रष्टाचार है और भ्रष्टाचार ने सवर्णों व दलितों को बराबर कर दिया है। यह दलित सशक्तीकरण का कारण बना है। तरुण के इस तर्क से अभिभूत प्रोफेसर नंदी ने कहा कि जब तक भ्रष्टाचार की वजह से दोनों तबके बराबर हैं, इस देश के गणतंत्र में उम्मीद बची है। वह भारतीय संविधान की उस मूल आत्मा को भूल गए, जिसके तहत दलितों को न केवल कानून, बल्कि वोट का भी बराबर अधिकार दिया गया। दलित को भ्रष्टाचार ने सशक्त नहीं किया, जैसा तरुण और नंदी कहना चाह रहे हैं, बल्कि वोट के अधिकार ने उसे अपनी ताकत और ऊर्जा का एहसास कराया है।

वोट के इस अधिकार ने उसके अंदर एक ऐसी राजनीतिक चेतना का ज्वालामुखी पैदा किया है, जिसकी अनदेखी आज कोई भी राजनीतिक दल नहीं कर सकता। उसे चाहे-अनचाहे दलित तबके को साथ लेकर चलना ही पड़ेगा। यह इसी चेतना की ताकत का नतीजा है कि मीरा कुमार को लोकसभा स्पीकर और सुशील कुमार शिंदे को सदन का नेता बनाना पड़ता है। के आर नारायणन राष्ट्रपति बनते हैं। एनडीए के जमाने में बंगारू लक्ष्मण बीजेपी अध्यक्ष बने और जीएमसी बालयोगी लोकसभा अध्यक्ष। फिर यूपी में कांशीराम ने ऊंची जातियों के वर्चस्व को जड़ से हिला दिया।

नंदी साहब ने दूसरी सबसे बड़ी गलती यह की कि उन्होंने कहा कि दलित यह क्यों नहीं समझते कि वह आजीवन दलित उत्थान के लिए काम करते रहे हैं और उनका मौजूदा बयान भी दलितों की बेहतरी के लिए ही है। इस बयान के पीछे आंग्ल बुद्धिजीवी तबके का वह अनुकंपावादी चिंतन है, जो आज भी अपने को दलितों से ऊंचा समझता है और यह मानता है कि दलित कमतर हैं और उनकी बेहतरी के लिए काम करना, उसकी ऐतिहासिक जिम्मेदारी है। यह तबका भूल जाता है कि देश के गणतंत्र ने 26 जनवरी, 1950 को दलितों को एक झटके से ऊंची जातियों के बराबर कर दिया और अब संविधान की नजर में न कोई ऊंची जाति है और न कोई नीची जाति। पिछले 63 साल में दलित वर्ग ने अपने अधिकारों को पहचाना है और सत्ता की भागीदारी में बराबर की हिस्सेदारी के लिए लड़ाई लड़ी है। उस पर किसी ने एहसान नहीं किया है। उसने लड़कर उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में ऊंची जातियों से सत्ता छीनी है।

जिस समाज ने हजारों साल से प्रभुत्ववादी सोच की गुलामी झेली है, वह आज फिर यह सुनने को क्यों तैयार होगा कि दलित उनको समझता ही नहीं? वह तो सवाल करेगा कि जब मेरे कानों मे सीसा उड़ेला जा रहा था, तब आपने मेरी क्यों नहीं सुनी? जब मेरे साथ जानवरों से भी बदतर बर्ताव हो रहा था, तब आपने मुझे क्यों नहीं समझा? अब वह कहता है कि मैं आपको क्यों समझूं? आपको मुझे समझना होगा। दलित समाज में आए इस बदलाव को नंदी साहब नहीं समझ पाए, इसीलिए अनुकंपावादी चिंतन के प्रभाव में दलितों को सबसे अधिक भ्रष्ट कह गए।

प्रोफेसर नंदी को समाज के इस बुनियादी बदलाव को समझना होगा। दलितों के इस दर्द को समझना होगा। उस पीड़ा से निकली नई चेतना और विद्रोह को समझना होगा। यह समझना पड़ेगा कि दलित क्यों नंदी के बयान के बाद कोर्ट-कचहरी और गिरफ्तारी की बात करते हैं? क्योंकि वे सदियों के उस दंश को नहीं भूल सकते, जिसकी वजह से उन्हें इंसान नहीं समझा गया। यह दंश ऊंची जातियों ने तो कभी नहीं झेला और इसीलिए ऐतिहासिकता से निकली पीड़ा को वे नहीं समझ सकतीं। वे ये नहीं समझ सकतीं कि इंसान न समझे जाने का एहसास क्या होता है? ऐसे में, जब भी दलित तबके को लगता है कि उसे फिर उसी ब्राह्मणवादी मानसकिता के तहत नसीहत दी जा रही है, तो उसकी संवेदना तड़प उठती है कि कहीं एक बार फिर इतिहास को मोड़ने की कोशिश तो नहीं की जा रही। कहीं एक बार फिर उसे उसी नरक में धकेलने की साजिश तो नहीं रची जा रही है। आज दलित कमजोर नहीं हैं। उन्हें कथित ऊंची जातियों की अनुकंपा की अब जरूरत नहीं है। आज ऊंची जातियों को दलितों की अनुकंपा की जरूरत है, क्योंकि लोकतंत्र में ताकत उसके पास होती है, जिसके पास संख्या होती है, और आज के हिन्दुस्तान की हकीकत यह है कि दलित और पिछड़े वर्ग ऊंची जातियों से संख्या बल में काफी आगे हैं। इसलिए कुलीन बुद्धिजीवी वर्ग को दलित-विमर्श की बारीकी पकड़नी होगी और उसके हिसाब से अपने आचार-विचार में परिवर्तन करना होगा। दलित वर्ग अब यह चिंता नहीं करेगा कि उसे कैसे रिएक्ट करना चाहिए। रिएक्ट तो आपको करना होगा नंदी साहब!
आशुतोष 
आशुतोष  वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार आशुतोष तीखे तेवरों वाले खबरिया टीवी चैनल IBN7 के मैनेजिंग एडिटर हैं। IBN7 से जुड़ने से पहले आशुतोष 'आजतक' की टीम का हिस्सा थे। वह भारत के किसी भी हिन्दी न्यूज़ चैनल के प्राइम टाइम पर देखे और सुने जाने वाले सबसे चर्चित एंकरों में से एक हैं। ऐंकरिंग के अलावा फील्ड और डेस्क पर खबरों का प्रबंधन उनकी प्रमुख क्षमता रही है। आशुतोष टेलीविज़न के हलके के उन गिनती के पत्रकारों में हैं, जो अपने थकाऊ, व्यस्त और चुनौतीपूर्ण ज़िम्मेदारियों के बावजूद पढ़ने-लिखने के लिए नियमित वक्त निकाल लेते हैं। वह देश के एक छोर से दूसरे छोर तक खबरों की कवरेज से जुड़े रहे हैं, और उनके लिखे लेख कुछ चुनिंदा अख़बारों के संपादकीय पन्ने का स्थाई हिस्सा हैं।