सिर्फ देह नहीं है स्त्री

सिर्फ देह नहीं है स्त्री दिल्ली में लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार ने देश और दुनिया में एक नयी बहस का आगाज किया है। जब ये हादसा हुआ उस वक्त मैंने सोचा था कि कुछ दिनों में ये गुबार और गुस्सा ठंडा पड़ जायेगा और रोजमर्रा की आपाधापी में इस हादसे को भूल कर जिंदगी आगे निकल जायेगी। मैं गलत था। मामला सिर्फ बलात्कार का ही होता तो थम जाता लेकिन मामला जब स्त्री चेतना के परिष्कार और समाज की पारंपरिक चेतना के खिलाफ प्रतिकार का हो, दोयम दर्जे से निकलने की छटपटाहट का हो, तब आवाजें दबती नहीं, दूर तक जाती हैं। हालांकि अभी भी कुछ लोग इस मामले को सिर्फ कानूनी या फिर पुलिसिया नजर से ही देखने की भूल कर रहे हैं। फास्ट ट्रैक कोर्ट, प्रोफेशनल पुलिस और कड़े कानून इस मामले का सरलीकरण हैं। और इस बात से आंखें मूंदना कि समाज के अंदर गहरे कुछ बदल रहा है।

स्त्री विमर्श को समझने के पहले समाज के अंदर पिछले दिनों जिस तरह के बदलाव आये हैं उसको गंभीरता से समझने की जरूरत है। ये भी समझने की जरूरत है कि वो कौन से चार महत्वपूर्ण कारक हैं जो स्त्री चेतना समेत भारत की मूल चेतना में क्रांतिकारी बदलाव को अंजाम दे रहे हैं। एक, देश के अंदर सबको बराबर मतदान का अधिकार। दो, पिछले बीस सालों के अंदर हुये आर्थिक सुधार। तीन, टेक्नॉलाजी में जबर्दस्त क्रांति। चार, संचार माध्यमों में आशातीत प्रसार। इन कारकों की वजह से वैसे तो सैकड़ों बदलावों की ओर इशारा किया जा सकता है लेकिन तीन बुनियादी बदलावों को फौरन रेखांकित किये बिना बहस अधूरी होगी। एक, समाज में एक बड़ा शहरी मध्यवर्ग पैदा हुआ है जो अपने अधिकारों के प्रति पहले से अधिक सचेत है। दो, नागरिक, समाज और राजनीति के बीच रिश्ता पहले से अधिक खुला और मुखर हुआ है। आजादी और लोकतंत्र स्वीकार करने के बाद से नागरिक को वोटों का अधिकार तो मिला लेकिन एक नागरिक के नाते उसकी पहचान समाज और राज्य व्यवस्था के अधीन ही रही। अब नागरिक समाज और राज्यव्यवस्था से अपनी स्वतंत्र पहचान और आम जीवन के संचालन में कम से कम दखलंदाजी की मांग कर रहा है। तीन, समाज में सदियों से दबे कुचले तबके ने भी समाज से बराबरी का हक मांगना शुरू कर दिया है। वो सिर्फ मांग ही नहीं कर रहा है बल्कि खुलेआम परंपरागत नेतृत्व और व्यवस्था को चुनौती भी दे रहा है।

इस तीसरे बदलाव के भी तीन अहम पहलू हैं। एक, समाज का दलित वर्ग समाज में सदियों पुरानी अपनी सामाजिक हैसियत का हिसाब मांग रहा है। उसे सत्ता में सिर्फ हिस्सेदारी ही नहीं चाहिए, उसे समाज में दूसरी ऊंची जातियों की तरह सम्मान भी चाहिये। दो, दलितों की तरह पिछड़ी जातियां भी ऊची जातियों के राजनीतिक आधिपत्य को स्वीकारने के लिये तैयार नहीं है। इसलिये एक तरफ पिछड़ी जातियों की खुली गोलबंदी है तो दूसरी तरफ ऊंची जातियों को सत्ता से हटाने के लिये दूसरे सामाजिक तबकों के साथ सामरिक साझेदारी भी है। लेकिन इस पूरे विमर्श में सबसे जबर्दस्त बदलाव तीसरे तबके में हो रहा है जिसकी तरफ लोगों का ध्यान नहीं जाता। क्योंकि ये तबका अबतक समाज में किसी भी तरह की राजनीतिक गोलबंदी करने में कामयाब नहीं रहा है। और ये तीसरा तबका है महिलाओं का।

स्त्री संसार की तरफ गौर नहीं किया जाता क्योंकि उसका कोई स्वतंत्र अस्तित्व है, ये भारतीय समाज स्वीकार नहीं करता। उसकी पहचान, उसका जीवन, सब कुछ पुरुष निर्धारित करता है। बचपन में पिता, शादी के बाद पति और बुढ़ापे में पुत्र। यानी ताउम्र पुरुष की अधीनता ही उसकी नियति है। बचपन से उसे सिखाया जाता है तुम परायी हो, शादी के बाद कहा जाता है कि तुमसे से परिवार की इज्जत है और बुढ़ापे में बेसहारा यानी बोझ। लेकिन जब देश की मूल चेतना में बुनियादी बदलाव आ रहे हों तो कैसे संभव है कि स्त्री मन वहीं अटका रहे जैसा कि धर्म और परंपरा ने तय कर रखा है। वो भी अब आजादी की उड़ान के लिये छलांग मारने के लिये बेकरार है और उसने कुलांचें मारनी भी शुरू कर दिया है। उसे पिता से आजादी चाहिये, उसे पति से आजादी चाहिये, उसे पुत्र से आजादी चाहिये। उसकी समझ में आने लगा है कि अगर एक घर में पैदा होने से बेटा पराया नहीं है तो वो कैसे परायी हो गयी? वो समझ गयी है कि इज्जत का बहाना एक ढोंग है। क्योंकि परिवार की इज्जत पति की वजह से भी जाती है। बल्कि अक्सर पति की वजह से ही जाती है। और वो बुढ़ापे में आश्रित क्यों रहे? ये भाव क्यों पाले कि वो बेसहारा है? पिता की ही तरह उसकी देखभाल करना पुत्र और पुत्री की जिम्मेदारी है। और जब स्त्री इस मन से अपने अधिकार मांगती है तो अबु आजमी, कैलास विजयवर्गीय, आसाराम बापू जैसों को तकलीफ होती है और धर्म और परंपरा की दुहाई देते हैं।

भारत में आजादी की लडाई में दलित मुक्ति और मुस्लिम तबके को साथ लेकर चलने की बात तो हुई लेकिन स्त्री मुक्ति पूरे स्वतंत्रता के आंदोलन के विमर्श से गायब रहा। आजादी के बाद भी उसे वोट देने का अधिकार तो मिला लेकिन वो किसको वोट देगी ये पति, पिता और भाई तय करते रहे। स्त्री विमर्श किताबों की बातें ही रहा। हकीकत में पंचायतों में उसको आरक्षण मिला लेकिन वो वहां भी दबंग पति की डमी बन गयी। पिछले बीस सालों से महिला आरक्षण बिल अटका हुआ लेकिन लोहिया के चेले ही इस राह में रोड़े बने हुए हैं। राबड़ी देवी तो पसंद हैं लेकिन माय़ावती, जयललिता, ममता और उमा भारती का स्वतंत्र अस्तित्व स्वीकार्य नहीं है। कभी भी किसी भी राजनीतिक दल ने उसकी लड़ाई नहीं लड़ी। उसके भी कुछ हक हैं, उसे भी खुले आसमान में उड़ना चाहिये, वो पिछडी हुयी है ये मुद्दा नहीं बना। उसकी चर्चा तब हुयी जब कहीं किसी महिला के साथ बलात्कार हुआ या कहीं छेड़छाड़। ऐसे में दिल्ली गैंगरेप इस मामले में अजूबा है कि आजादी के बाद पहली बार स्त्री मुद्दे पर वो सड़कों पर निकली। उसने अपने अधिकारों के लिये आवाज बुलंद की। वो भी बिना किसी राजनीतिक दल के सहयोग के। और समाज, राजनीति और व्यवस्था को अपनी बात सुनने के लिये मजबूर किया। यकीन मान लीजिये ये आवाज अब दबने वाली नहीं है क्योंकि स्त्री सिर्फ देह नहीं है जिसे धर्म के अंधे, लिबास में समेट देना चाहते है। वो सिर्फ पत्नी, मां, बेटी और बहु ही नहीं वो एक नागरिक भी है और देश समाज और व्यवस्था में बराबर की हकदार है। दिल्ली गैगरेप के बाद उसने ये साबित कर दिया है कि उसने ये लड़ाई पुरुषों के बगैर लडऩे की ठान ली है। और वो अपना हक लेकर रहेगी।
आशुतोष 
आशुतोष  वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार आशुतोष तीखे तेवरों वाले खबरिया टीवी चैनल IBN7 के मैनेजिंग एडिटर हैं। IBN7 से जुड़ने से पहले आशुतोष 'आजतक' की टीम का हिस्सा थे। वह भारत के किसी भी हिन्दी न्यूज़ चैनल के प्राइम टाइम पर देखे और सुने जाने वाले सबसे चर्चित एंकरों में से एक हैं। ऐंकरिंग के अलावा फील्ड और डेस्क पर खबरों का प्रबंधन उनकी प्रमुख क्षमता रही है। आशुतोष टेलीविज़न के हलके के उन गिनती के पत्रकारों में हैं, जो अपने थकाऊ, व्यस्त और चुनौतीपूर्ण ज़िम्मेदारियों के बावजूद पढ़ने-लिखने के लिए नियमित वक्त निकाल लेते हैं। वह देश के एक छोर से दूसरे छोर तक खबरों की कवरेज से जुड़े रहे हैं, और उनके लिखे लेख कुछ चुनिंदा अख़बारों के संपादकीय पन्ने का स्थाई हिस्सा हैं।