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सूचनाओं के खुलासे से डरती सरकार

सूचनाओं के खुलासे से डरती सरकार सूचना का अधिकार (आरटीआई) कानून यदि किसी की निजता में दखल देता है, तो उसे सीमित कर देने की मनमोहन सिंह का सुझाव नागरिक आजादी पर सीधा हमला करने सरीखा है। आरटीआई कानून यदि किसी की निजता में दखल देता है, तो उसे सीमित कर देने का प्रधानमंत्री का सुझाव भी भ्रष्टाचार को लेकर सरकार की हो रही  फजीहत का ही आक्रोश है। गुजरात के मुख्यझमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की विदेश यात्राओं के बिल का विवरण मांगा गया था, जिसके बाद से यह मामला तेजी से उठने लगा। शायद यही कारण है कि अब एक बार फिर आरटीआई निशाने पर है।
 
जाहिर है अगर दुरूपयोग के आधार पर इस कानून में फेर-बदल किया जाएगा तो फिर हमारे देश में किसी भी कानून को सुरक्षित रख पाना मुश्किल होगा। देश में शायद ही ऐसा कोई कानून होगा जिसका दुरूपयोग ना किया गया हो। अगर आरटीआई में बदलाव किया जाएगा, तो क्या  उन सभी दुरूपयोगी कानूनी में भी बदलाव किया जाएगा ?  यह सही है कि सूचना के अधिकार कानून के अंतर्गत कुछ लोगों की ओर से ऐसी जानकारी पाने की कोशीश की जाती रही है जो किसी की निजी जिंदगी से जुड़ी होती है, और उसके सार्वजनिक होने से उस व्यनक्ति की निजता का उल्लंदघन होता है।  आयुक्तों  के सम्मेरलन में प्रधानमंत्री ने कहा कि नागरिको के सूचना के अधिकार को निश्चि त तौर पर एक लक्ष्मतण रेखा के भीतर सीमित किया जाना चाहिए। कुछ सूचनाए सार्वजनिक किए जाने के कारण कई लोगों की निजता का हनना होता है। इस मामले पर उन्होंने लक्ष्मनण रेखा खींचने की भी वकालत की है। साफ है खुलासे से सरकार डर गई है और यही कारण है कि अब सरकार इसमें ग्रहण लगाने की कोशिश में जुट गई है।

भ्रष्टाचार को लेकर रोज हो रहे खुलासे से फजीहत का सामना कर रही सरकार में सूचना अधिकार कानून को पलीता लगाने की मुहिम तेज हो गई है। सरकारी हलकों में इसमे बदलाव को लेकर सुगबुगाहटें देखने को मिल रही है। सरकारी पहल को नहीं रोका गया तो साठ साल बाद मिले इस नागरिक अधिकार को कुंद कर देंगे। प्रधानमंत्री ने कहा कि सूचना अधिकार कानून के दुरुपयोग को रोकने की जरूरत है। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी इस कानून को भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में एक प्रभावी हथियार मानती हैं। यह चिंताजनक है कि एक ओर सूचना अधिकार कानून पर सही तरह अमल के लिए ठोस उपाय होना शेष है और दूसरी ओर इस पर अंकुश लगाने की मुहिम तेज हो गई है।  

सच्चाई यह है कि राज्य सरकारों के स्तर पर कुल मिलाकर इस कानून की अनदेखी ही की जा रही है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि न तो अपेक्षा के अनुरूप सूचना अधिकारियों की नियुक्ति की जा सकी है और न ही सक्षम सूचना आयुक्तों को तैनात किया जा सका है। समस्या यह है कि सूचना आयुक्तों के पद पर बड़ी संख्या में नौकरशाह तैनात किए जा रहे हैं। शासन-प्रशासन के कामकाज में पारदर्शिता और जवाबदेही लाने के जिस उद्देश्य के लिए इस कानून का निर्माण किया गया वही पूरा होना कठिन होता जा रहा है। आखिर यह किसी से छिपा नहीं कि अपने सेवाकाल के दौरान नौकरशाह पारदर्शिता और जवाबदेही से बचने की ही कोशिश करते रहते हैं।  इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि सूचना के अधिकार का कानून भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष के लिए आम जनता के हाथों में आया एक महत्वपूर्ण हथियार है, लेकिन यह हथियार और अधिक सशक्त व कारगर हो, इसके लिए जैसे प्रयास किए जाने चाहिए थे। जाहिर है शासन-प्रशासन में बैठे लोगों को सूचना के अधिकार से खतरा पैदा हो गया है।  


सूचना का अधिकार विधायिका और कार्यपालिका की अटटालिकाओं में खोली गर्इ ऐसी इकलौती खिलाड़ी है, जो देश के आम नागरिक को जानने का संवैधानिक अधिकार देता है। लोकसेवकों और नौकरशाहों को पारदर्षी जवाबदेही सुनिश्चित करने को विवश करती है। लेकिन इस खुली खिड़की के दरवाजे बंद करने की कवायद लगता है, तेज होने जा रही है। प्रधानमंत्री सूचना के अधिकार और निजता के अधिकार के बीच जिस संतुलन को बनाए रखने की बात कर रहे हैं, निजता के उस अधिकार की रक्षा तो संविधान सम्मत है, किंतु इसके हनन का भ्रम पैदा करके लोकहित से जुड़ी जानकारियों को गोपनीय बनाए रखने की कोशिशों का क्या औचित्य है ? इस तरह की मांग तब ज्यादा उठ रही है, जब सेवानिवृत्त नौकरशाहों और न्यायाधीषों की संख्या बतौर सूचना आयुक्त बढ़ी है।

भारतीय प्रशासनिक व पुलिस सेवा के अधिकारियों की अपने कार्यकाल में हमेशा ही कोशिश रही है कि काले- कारनामों पर परदा पड़ा रहे। सीबीआर्इ को सूचना के अधिकार से मुक्त करके भी केंद्र सरकार ने यही साबित किया था कि वह भ्रष्टाचार से जुड़ी गड़बडि़यों पर परदा डाले रखना चाहती है। विदेशों में जमा काले धन की वापिसी में अंहम भूमिका की दरकार सीबीआर्इ से है, लेकिन अब सीबीआर्इ से कोर्इ आरटीआर्इ कार्यकर्ता यह जानकारी हासिल नहीं कर सकता कि वह इस बाबद क्या काला-पीला कर रही है। सीबीआर्इ के आरटीआइ से मुक्त होने के बाद विदेश और वित्त मंत्रालयों से जुड़े विभाग प्रमुखों का भी सरकार पर दबाव है कि उन्हें इस दायरे से मुक्त किया जाए। इसके लिए ये लोग अंतरराष्ट्रीय मामलों व शर्तों और प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश के बाबत कंपनियों को दी जाने वाली रियायतों को सार्वजनिक करना नहीं चाहते।

प्रवर्तन निदेशालय भी इस दायरे से छुटकारा चाहता है। ऐसे में विडंबना यह है कि देश के प्रधानमंत्री भी एक नौकरशाह हैं, लिहाजा नौकरशाह प्रधानमंत्री के रहते हुए आरटीआर्इ के नखदंत कब तक बचे रह सकते हैं ? वैसे भी केंद्रीय जांच ब्यूरो पर सूचना का अधिकार अधिनियम लागू न होने का फैसला संसद की मंशा की बजाए, सरकार के तब के सबसे आला अधिकारी रहे कैबिनेट सचिव केएम चंद्रशेखर की इच्छानुसार हुआ था। उन्होंने सेवानिवृत्त होने के ठीक एक दिन पहले इस सिफारिश पर सरकार का अंगूठा लगवा लिया था। यह स्थिति सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की अवेहलना तो थी ही, उन निर्वाचित सांसदों को भी ठेंगा दिखाना थी, जिन्होंने 2005 में संसदीय बहुमत से इस अधिकार को अधिनियम में बदला था। इस मनमानी से यह भी तय हुआ कि लोकतंत्र के शीर्शस्थ सदन लोकसभा और राज्यसभा से कहीं ज्यादा हैसियत देश के एक नौकरशाह में है।

न्यायालय और न्यायाधीश भी आरटीआर्इ के दायरे में आना नहीं चाहते। इन्हें दायरे में लाने की दृष्टि से मानवाधिकार संगठन पीयूसीएल ने सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका भी दायर की थी। जिसका मकसद था कि इस कानून के तहत सुप्रीम व हार्इकोर्ट के न्यायाधीषों की पारिवारिक संपत्ति का ब्यौरा मांगा जा सके। लेकिन तत्कालीन न्यायमूर्ति केजी बालकृष्णनन ने इस मांग को इस दलील के साथ ठुकरा दिया था कि उनका दफतर सूचना के दायरे से इसलिए बाहर है, क्योंकि वे संवैधानिक पदों पर नियुक्त हैं। जबकि विधि और कार्मिक मंत्रालय की स्थायी संसदीय समिति ने भी अपनी रिपोर्ट में न्यायपालिका को सूचना कानून के दायरे में लाने की सिफारिश की थी। समिति ने यह भी दलील दी थी कि संवैधानिक पदों पर बैठे लोग भी लोकसेवक हैं, लिहाजा सूचना का अधिकार उन पर लागू होना चाहिए। जब यह अधिकार संसद पर लागू हो सकता है, तो न्यायपालिका पर क्यों नहीं ? यह तब और जरुरी हो जाता जब कोलकाता उच्च नयायालय के न्यायाधीश सौमित्र सेन को भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते, संसद में महाभियोग लाकर बर्खास्त किया जाता है।
 
प्रधानमंत्री आज भले ही यह दलील दे रहे हों कि इससे निजी गोपनीयता का हनन और मानव संसाधन को क्षति पहुंच रही है। प्रधानमंत्री के पास इस सवाल का कोई जवाब शायह नहीं होगा कि किसी अधिकारी की निजी गोपनीयता तो तब भंग होती, जब उससे इस कानून के तहत अंतरंग प्रसंग या घरेलू कि्रया-कलापों की जानकारी मांगी जाती ? और फिर ऐसी मांग पेश आर्इ भी है तो उसकी पूर्ति करना आरटीआर्इ कानून में कहां बाध्यकारी है ? ऐसी अनुचित मांगों को ठुकराने का पर्याप्त अधिकार आरटीआर्इ में है। विधि आयोग और सर्वोच्च न्यायालय ने भँडाफोड़ करने वाले लोगों को कानूनी संरक्षण देने की वकालत की है । लेकिन इस कानून को पारित होने में सबसे कानून को पारित होने में सबसे बड़ी बाधा कार्यपालिका है। वह जानती है कि आरटीआर्इ की छत्रछाया में वजूद में आए पूर्णकालिक इन भण्डाफोड़ कार्यकर्ताओं को कानूनी सुरक्षा मिल गर्इ तो सरकारी तंत्र को तो काम करना ही मुश्किल हो जाएगा।

सूचना आयुक्तों के सम्मेलन में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपने भाषण में जो कुछ कहा उसे व्यापक तौर पर सूचना का अधिकार कानून (आरटीआई) की शक्ति और उसके दायरे को सीमित करने के सरकार के प्रयास के रूप में देखा जा रहा है। यह वही कानून है जिसे केंद्र की मौजूदा सरकार की उल्लेखनीय उपलब्धि माना जाता है।  प्रधानमंत्री ने सूचना आयुक्तों से जिन तीन बातों पर गौर करने की बात कही है उनमें पहली, क्या आरटीआई का इस्तेमाल कुछ मामलों में 'ओछे और खीझ पैदा करने वाले' उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया जा रहा है। दूसरा, क्या आरटीआई के तहत दिए गए जवाब व्यक्तिगत स्वतंत्रता का उल्लंघन करते हैं और तीसरा, निजी-सार्वजनिक भागीदारी वाले उपक्रम (पीपीपी) किस हद तक आरटीआई अधिनियम के तहत जवाबदेह हैं। डॉ. सिंह ने यह भी कहा, 'इस महत्त्वपूर्ण कानून का इस्तेमाल केवल आलोचना करने, मखौल उड़ाने और सरकारी अधिकारियों को नीचा दिखाने के लिए नहीं किया जाना चाहिए' बल्कि इसके जरिये 'पारदर्शिता और जवाबदेही को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।'

लगातार हमले झेल रही केंद्र सरकार पारदर्शिता के मोर्चे पर पीछे हट रही है और इसका जवाब दिया जाना चाहिए। यह बात उस चिंता से जुड़ी हुई है जो एक दिन पहले डॉ. सिंह की भ्रष्टाचार संबंधी टिप्पणी से उपजी थी। उनका यह कहना सही था कि निजी क्षेत्र को मिल रही रियायत के कारण बड़े पैमाने पर हो रहा भ्रष्टाचार रोकने में परेशानी हो रही है। जब मनमोहन सिंह सरकार ने सीबीआर्इ को सूचना के अधिकार कानून के दायरे से बाहर कर दिया था। अब प्रधानमंत्री ने केंद्रीय सूचना आयुक्तों के सम्मेलन में कहा है कि लोगों के जानने के अधिकार से अगर किसी की निजता का हनन होता है तो निश्चित रुप से इसका दायरा निर्धारित होना चाहिए, जिससे इसके निरर्थक प्रयोग पर प्रतिबंध लगे। प्रधानमंत्री की इस सिलसिले में यह चिंता तो समझ में आती है कि आरटीआर्इ का दुरुपयोग न हो, लेकिन इस बहाने कानून के पर ही कतर दिए जाएं यह कहां तक ठीक है ?  वह भी तब, जब  ऐसा क्रांतिकारी कानून बनकर अपनी सार्थकता साबित कर चुका है। आम नागरिक इसे कारगर हथियार के रुप में इस्तेमाल कर, भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ार्इ में सीधे आगे आकर लोकसेवकों और नौकरशाहों को जवाबदेही के लिए मजबूर कर रहा है।

आरटीआइ कार्यकर्ता सुभाषचंद्र अग्रवाल कहते हैं -एक्ट का इस्तेमाल करने वालों की तादाद कम होने के बावजूद सरकार हिली हुई है तो यह अच्छा संकेत है। केंद्र के मंत्रियों के दौरों में रेकॉर्ड खर्च 12 गुणा तक बढ़ गया। इसका खुलासा आरटीआई ऐक्ट के तहत मांगी गई जानकारी से हुआ है। इन दौरों के लिए 47 करोड़ का बजट आवंटित हुआ था। लेकिन खर्च 6 अरब रुपये से भी अधिक हो गया। यह पहला मौका है जब दौरों पर हुए खर्च ने 1 अरब का आंकड़ा पार किया। 2010-11 में केंद्रीय मंत्रियों की यात्राओं का खर्च 56 करोड़ 16 लाख रुपये था, जो 2011-बढ़कर 678 करोड़ 52 लाख साठ हजार रुपये तक पहुंच गया, जबकि 2011-12 के लिए यात्राओं का अनुमानित बजट महज 46 करोड़ 95 लाख रुपये था। ऐसी सूचनाओं से सरकार की परेशानी बढ़ी है।
राजीव रंजन  नाग
राजीव रंजन   नाग लेखक राजीव रंजन नाग जानेमाने पत्रकार हैं. पत्रकारिता के अपने लम्बे कैरियर में तमाम विषयों पर लिखा और कई राष्ट्रीय दैनिकों को अपनी सेवाएँ दी. वह मान्यता प्राप्त पत्रकारों के संगठन 'प्रेस एसोसिएशन' के वरिष्ठ पदाधिकारी होने के साथ-साथ प्रेस काउन्सिल ऑफ़ इंडिया के सदस्य भी हैं.

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