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महान जनक्रांति का ह्रदयस्थल अवध

महान जनक्रांति का ह्रदयस्थल अवध

भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को ब्रिटिश राजनेताओं, प्रशासकों तथा इतिहासकारों ने दुनिया के समक्ष सिपाही बगावत के रूप में प्रचारित करते हुए इसके ऐतिहासिक महत्व को कमतर दिखाने का शुरू से ही प्रयास किया। जिन लोगों ने इसकी वास्तविकता को समाज के सामने लाने का प्रयास किया, उन पर भी अंग्रेजों का कहर बरपा। जनक्रांति के नायकों तथा उनके परिजनो का ही नहीं उनसे सहानुभूति रखने वालों का भी अत्यंत नृशंसता से दमन किया गया। जनक्रांति के नायकों से जुड़ी यादों को मिटाया गया,  उनके इश्तहार, अखबार, पत्राचार तथा अन्य सभी उपलब्ध दस्तावेज नष्ट  कर दिए गए। पर उनके बलिदान स्थलों और लोकगीतों को अंग्रेज नहीं मिटा सके। अवध और उ.प्र.के अन्य इलाकों में आम लोगों ने तमाम दिक्कतों के बाद भी शहीद स्थलों और लोकगीतों को जिंदा रखते हुए इतिहास के एक लंबे कालखंड को बरकरार रखा है।

प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के स्वरूप को लेकर विवाद खड़ा करने वाले अंग्रेज इतिहासकार भी 1857 में अवध इलाके में जनक्रांति की बात को स्वीकार करने में नहीं हिचकते हैं। वे मानते हैं कि अवध तथा बिहार के कुछ इलाकों में महान जनक्रांति के लक्षण मौजूद थे। इतिहासकार सुरेंद्र नाथ सेन के मुताबिक अवध के विद्रोह ने राष्ट्रिय स्वरूप प्राप्त कर लिया था, जबकि उस समय राष्ट्रीयता का विचार प्रारंभिक अवस्था में था। 17 जून 1858 को विदेश विभाग की गोपनीय रिपोर्ट में अवध की घटनाओं की समीक्षा करके उसे जनक्रांति जैसा माना गया। इन इलाकों के जनसंघर्षों ने ही कार्ल माक्र्स को भी प्रभावित किया था।

लेकिन अवध ने इस महान क्रांति की भारी कीमत चुकाई। 1857 के बाद से अवध अंग्रेजों के आंख की ऐसी किरकिरी बना कि कालांतर में यहां की विकास प्रक्रिया ही ठहर गयी। विकास के नाम पर अंग्रेजों ने अपनी सुविधा के लिए ही निर्माण किए। रेल लाइनें बिछीं तो पर बागी इलाकों में छोटी लाइनें बिछायी गयीं। विकास के नाम पर बड़े बागी इलाकों में अंग्रेजों की सैनिक छावनियां बनीं। ये छावनियां आज भी हैं। उस जमाने में तमाम जगहों पर खेती बाड़ी उजड़ गयी। नौकरियों में इस इलाके को काली सूची में शामिल कर दिया गया। 1857 के बाद इस इलाके में आजादी के लिए चले सभी संघर्षो में अग्रणी भूमिका तो निभायी लेकिन उ.प्र. तथा बिहार का इलाका विकास की मुख्यधारा से कट गया। यहां नियोजित विकास प्रक्रिया 1947 के बाद शुरू हुई लेकिन तब तक ये इलाके और जगहों की तुलना में 90 साल पिछड़ चुके थे।

अवध राज्य और अंग्रेज

अवध अरसे तक देश का एक शानदार इलाका माना जाता था। खुद अंग्रेज इसे भारत का उद्यान मानते थे। रेजीडेंट लखनऊ के नायब मेजर बर्ड ने अवध को भारत का चमन कहा था। पादरी हेबर ने 1824-25 में अवध की यात्रा के बारे में जो लिखा उससे उस जमाने के खूबसूरत और खुशहाल अवध की तस्वीर उभरती है--

अवध के बारे में मैने बहुत कुछ सुना था, पर मैं स्वयं इस प्रदेश की इतनी व्यवस्थित खेतीबाड़ी और किसानी देख कर प्रसन्न और आश्चर्यचकित हूं। यदि राज्य में दुर्व्यवस्था तथा अत्याचार की जो बातें कही जाती हैं, वे सही होतीं तो इतनी घनी आबादी या उद्योग- धंधे न होते और किसान परिश्रमी तथा संतुष्ट ना होते। गांवो में भी दूकाने साफ सुथरी हैं। लोग आराम से रहते है तथा जनता समृद्द है। .......

पादरी हेबर ने आगे लिखा कि -

अवध के राजाओं और मौजूदा बादशाह की असली परेशानी ईस्ट इंडिया कंपनी है। उसके कहने से राजा और उनके पूर्वजों ने अपनी बढिया पलटन समाप्त कर दी और अब उनके पास महज महल पर पहरा देने वाले संतरी रह गए हैं।

इसी तरह मेजर बर्ड लिखते हैं कि –कंपनी की सेना में अवध के रहने वाले कम से कम 50,000 सिपाही हैं। पर वे अपने परिवार को नवाब के राज्य में छोड़ कर निश्चिंत भाव से नौकरी करते हैं। वे अपने परिवार को अवध के बाहर नहीं ले जाते और कंपनी की फौज से रिटायर होने के बाद अवध में वापस आ कर शांति से रहते हैं।

अवध में नवाबी शासन 136 साल से अधिक चला। नवाब वाजिद अली शाह अवध के आखिरी और ग्यारहवें शासक थे। वाजिद अली समेत पांच नवाब खुद को बादशाह लिखा करते थे।  ईस्ट इंडिया कंपनी ने लंबी रणनीति तैयारी कर नवंबर 1855 में वाजदि अली शाह को गद्दी से हटा कर अवध हथियाने का तानाबाना बुन लिया था। लखनऊ के रेजीडेंट जनरल आउट्रम को 30 जनवरी 1856 को अवध हड़पने का आदेश हुआ और कहा गया कि नवाब को 15 लाख रू सालाना पेंशन मिलेगी। अगर नवाब मान जाते हैं तो ठीक अन्यथा सेना के जोर पर यह काम किया जाये। तय किया गया कि सबसे पहले तोपखाना जब्त करके अवध में दो साल मार्शल ला लागू कर दिया जाये। आउट्रम की बातों को नवाब ने नहीं माना तो अंग्रेजों ने मलका कश्वर को पटाने की कोशिश की और उनको अलग से एक लाख रू सालाना पेंशन देने का लालच दिया। पर इससे भी बात नही बनी। इन दुष्चक्रों के बीच ही एकाएक वाजिद अली शाह ने सेना को हथियारविहीन कर, वेतन देकर उसे समाप्त करने का फैसला कर लिया। 4 फरवरी 1856 को आउट्रम ने वाजिद अली शाह को यह सूचना दी कि कंपनी ने अवध का शासन अपने हाथ में ले लिया है और बादशाह गद्दी से उतार दिए गए। बादशाह ने 13 मार्च 1856 को अपने फूफा नवाब हिशामुद्दौला को अपना मुख्तार आम नियुक्त कर सदा के लिए लखनऊ छोडऩे का फैसला कर लिया।

अंग्रेजों ने वाजिद अली शाह की छवि ध्वस्त करने के लिए उनको विलासिता का पर्याय और ऐय्याश साबित करने का प्रयास किया, पर वह साहसी कर्मठ, योग्य, सक्षम और अच्छे व्यक्ति, साहित्य तथा कला के प्रेमी, सांप्रदायिक एकता के प्रबल पैरोकार और कट्टर हिंदुस्तानी थे। वह शिया मुसलमान थे पर उन्होंने सबको समान न्याय दिया। अपराध के लिए कई शिया मुसलमानो को फांसी की सजा तक दी गयी। उनकी प्रतिभा और शासन क्षमता के चलते ही ईस्ट इंडिया कंपनी से उनका कई बार टकराव हुआ। जब उन्होने अवध की बागडोर संभाली तो उनकी शुरूआत इतनी अच्छी थी कि अंग्रेज घबरा गए थे। आम लोगों से उनका काफी बेहतर तालमेल था और जन शिकायतों के निराकरण का भी ठोस तंत्र बना था। उनके राज के 26 व्यवस्थित विभाग थे और  सैन्य व्यवस्था भी काफी मजबूत थी। जब अंग्रेजो ने अवध में विदेशी कपड़ो का अंबार लगा दिया था तो भी वाजिद अली शाह देशी बुनकरों के हाथ का बना कपड़ा ही पहनते थे।

अंग्रेज अधिकारी स्लीमन ने 1 जनवरी 1854 को राजपूताना के रेजीडेंट कर्नल लो को लिखा कि -अवध की गद्दी पर इतना अच्छा और कटुता रहित बादशाह कभी नहीं बैठा। उन्होंने ही सर जेम्स के नाम 2 जनवरी 1852 को लिखे पत्र में साफ कहा कि हमको अपने कर्ज के नाम पर हैदराबाद की रियासत को जब्त करने का अधिकार हो सकता है, पर अवध पर हमारा एक भी पैसा ऋण नहीं है। कंपनी अवध सरकार की चार करोड़ रूपए की कर्जदार है।

अवध हड़पने की भूमिका के तहत ही डलहौजी के आदेश पर स्लीमन ने 1 दिसंबर 1849 से 27 मार्च 1850 तक अवध की यात्रा की। इस यात्रा पर आने वाले तीन लाख रू का व्यय नवाब वाजिद अली शाह ने बर्दास्त किया। इस रिपोर्ट जर्नी थ्रू द किंगडम आफ अवध इन 1849-50 की मात्र 18 प्रतियां छपीं जो खास लोगों तक ही पहुंची। स्लीमन की इस रिर्पोर्ट में तमाम इलाकों में खेती बाड़ी तथा प्रशासनिक व्यवस्था दोनो की तारीफ कई जगह मिलती है। 1857 में बेहद बागी रहे शाहगंज इलाके के बारे में वह लिखते हैं-

पूरा क्षेत्र बहुत संपन्न सुखी और बढिया खेतीवाला है। यहां चोरी नहीं होती और फकीर तथा साधुओं को कस्बे में गश्त लगाने की आज्ञा नहीं है...कोई भीख नहीं मांग सकता है। यहां अगर कोई बाहर से आकर नया खेतिहर बनना चाहता है तो उसे 25 रू बैल खरीदने, 30 रू झोपड़ा बनवाने और 36 रू फसल पैदा होने तक का खर्च चलाने के लिए और कुछ अन्य मद मिला कर राजा की ओर से 90 रू का ऋण देने का प्रबंध है। खेतिहर वहीं बस जाता है और राजा को ऋण चुका देता है।

लेकिन इन स्लीमन महाशय ने कंपनी के आदेश से वाजिद अली शाह की बीमारी उनकी निजी जिंदगी के बारे में बहुत कुछ अनर्गल प्रलाप तथा दुष्प्रचार किया। वाजिद अली शाह की मौत 21 सितंबर 1887 को 75 साल की उम्र में हुई। उनको मिला यह लंबा जीवन ही बहुत से आरोपो का जवाब है। दूसरी बात अगर अवध के लोग वाजिद अली शाह के शासन से दुखी होते तो अवध हड़पने के बाद तीन दिन तक जन-शोक नहीं मनाया जाता। 13 मार्च 1856 को जब वाजिद अली शाह रात में कानपुर रवाना हुए तो बहुत से लोग उनको रोकने के लिए कानपुर तक गए। जगह-जगह जनता ने उनकी मुल्क वापसी के लिए प्रार्थना की। अगर वह गलत होते तो लोगों को खुशी मनानी चाहिए थे। वास्तव में अंग्रेजों और अवध के बीच तकरार पलासी की लड़ाई के बाद बनी परिस्थितियों के चलते शुरू हो गयी थी। 23 जून 1757 को हुई इस लड़ाई में पराजय नवाब सिराजुद्दौला के सेनापति मीर जाफर के विश्वासघात के नाते हुई थी।  मीरजाफर अंग्रेजों की कृपा से गद्दी पर बैठे पर उनको 1760 में उतार  कर मीर कासिम को शासक बना दिया गया। लेकिन वह अंग्रेजों की कठपुतली होने के बाद भी अतिशय अपमानजन्य व्यवहार नहीं सह सके और बागी हो गए। कंपनी और मीर कासिम की लडा़ई में अक्तूबर 1763 में उदवानाला में पराजित होने के बाद मीर कासिम भाग कर अवध के नवाब शुजाउद्दौला की शरण में पहुंचे। तभी से कंपनी और अवध के बीच खटास शुरू हो गयी।  नवाब शुजाउद्दौला ने बक्सर के मैदान में अंग्रेजो से मोरचा लिया,पर 15 सितंबर 1764 को वह भी पराजित हो गए। कई अंग्रेज इतिहासकार भारत में अंग्रेजी राज की बुनियाद इसी विजय से मानते हैं। नवाब मीरकासिम तो खैर दर-दर की ठोकर खाते हुए  1777 में दिल्ली में एक झोपड़ी में मरे पाए गए लेकिन नवाब शुजाउद्दौला ने जंग जारी रखी।

लेकिन नवाब शुजाउद्दौला चुनारगढ़ में हार गए तो उनके हाथ से इलाहाबाद का ऐतिहासिक किला निकल गया। तभी नवाब को अंग्रेजों से अपमानजनक संधि करनी पड़ी। उनको कंपनी को लड़ाई का हरजाना 50 लाख रू देना पड़ा और अंग्रेजों से मिल गए बनारस के राजा बलवंत सिंह को माफ करना पड़ा। उसी दौरान अवध में रेजीडेंट रखने का फैसला किया गया। नवाब को अपने सेना से फ्रांसीसी सैनिक हटा कर  कंपनी की सेना रखनी पड़ी। खुद मेजर बर्ड लिखा है कि 1765 की इस संधि के बाद से अवध का राज्य छीनने तक कंपनी ने अवध से 50 करोड़ रूपए की वसूली की। नवाब सआदत अली की मौत 12 जुलाई 1814 को हुई तो उन्होने राजकोष में 14 करोड़ रूपए थे। कंपनी को सबसे अधिक गाढ़े मौके पर अवध से ही कर्ज और तमाम सहायता मिली। नवाब आसफुद्दौला 1775 में गद्दी पर बैठे थे और उनकी सेना में 80,000 सिपाही थे। खुद स्लीमन ने माना था कि ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना से कम वेतन पाने के बाद भी नवाब की सेना के सिपाही उनसे अच्छे हैं। अंग्रेजो के दबाव में सेना लगातार छोटी और एक जमाने में समाप्त ही हो गयी।

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अरविंद कुमार सिंह
अरविंद कुमार सिंह 7 अप्रैल 1965 को उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले में जन्मे अरविंद कुमार सिंह ने पत्रकारिता और लेखन की दुनिया में बड़ा नाम कमाया है। पत्रकारिता की शुरूआत 1983-84 में दैनिक जनसत्ता से। चौथी दुनिया, अमर उजाला, जनसत्ता एक्सप्रेस, इंडियन एक्सप्रेस (लखनऊ संस्करण) तथा दैनिक हरिभूमि में लंबे समय तक कार्य। आकाशवाणी, दूरदर्शन, लोकसभा टीवी और कई अन्य टीवी चैनलों पर नियमित विषय विशेषज्ञ । दिल्ली सरकार की प्रेस मान्यता समिति समेत कई समितियों के सदस्य भी रहे। विभिन्न विश्वविद्यालयों में अतिथि प्राध्यापक और परीक्षक। 'भारतीय डाक: सदियों का सफरनामा' पुस्तक हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू तथा कई भारतीय भाषाओं में एन.बी.टी. द्वारा प्रकाशित। पुस्तक का एक खंड एनसीईआरटी द्वारा आठवीं कक्षा के हिंदी पाठ्यक्रम में। हिंदी अकादमी द्वारा साहित्यकार सम्मान (पत्रकारिता), इफ्को हिंदी सेवी सम्मान-2008, विद्याभाष्कर पुरस्कार, गणेश शंकर विद्यार्थी स्मृति समाजोत्थान और रचनात्मक पत्रकारिता पुरस्कार समेत दर्जन भर पुरस्कारों से सम्मानित।