महान जनक्रांति का ह्रदयस्थल अवध
भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को ब्रिटिश राजनेताओं, प्रशासकों तथा इतिहासकारों ने दुनिया के समक्ष सिपाही बगावत के रूप में प्रचारित करते हुए इसके ऐतिहासिक महत्व को कमतर दिखाने का शुरू से ही प्रयास किया। जिन लोगों ने इसकी वास्तविकता को समाज के सामने लाने का प्रयास किया, उन पर भी अंग्रेजों का कहर बरपा। जनक्रांति के नायकों तथा उनके परिजनो का ही नहीं उनसे सहानुभूति रखने वालों का भी अत्यंत नृशंसता से दमन किया गया। जनक्रांति के नायकों से जुड़ी यादों को मिटाया गया, उनके इश्तहार, अखबार, पत्राचार तथा अन्य सभी उपलब्ध दस्तावेज नष्ट कर दिए गए। पर उनके बलिदान स्थलों और लोकगीतों को अंग्रेज नहीं मिटा सके। अवध और उ.प्र.के अन्य इलाकों में आम लोगों ने तमाम दिक्कतों के बाद भी शहीद स्थलों और लोकगीतों को जिंदा रखते हुए इतिहास के एक लंबे कालखंड को बरकरार रखा है।
प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के स्वरूप को लेकर विवाद खड़ा करने वाले अंग्रेज इतिहासकार भी 1857 में अवध इलाके में जनक्रांति की बात को स्वीकार करने में नहीं हिचकते हैं। वे मानते हैं कि अवध तथा बिहार के कुछ इलाकों में महान जनक्रांति के लक्षण मौजूद थे। इतिहासकार सुरेंद्र नाथ सेन के मुताबिक अवध के विद्रोह ने राष्ट्रिय स्वरूप प्राप्त कर लिया था, जबकि उस समय राष्ट्रीयता का विचार प्रारंभिक अवस्था में था। 17 जून 1858 को विदेश विभाग की गोपनीय रिपोर्ट में अवध की घटनाओं की समीक्षा करके उसे जनक्रांति जैसा माना गया। इन इलाकों के जनसंघर्षों ने ही कार्ल माक्र्स को भी प्रभावित किया था।
लेकिन अवध ने इस महान क्रांति की भारी कीमत चुकाई। 1857 के बाद से अवध अंग्रेजों के आंख की ऐसी किरकिरी बना कि कालांतर में यहां की विकास प्रक्रिया ही ठहर गयी। विकास के नाम पर अंग्रेजों ने अपनी सुविधा के लिए ही निर्माण किए। रेल लाइनें बिछीं तो पर बागी इलाकों में छोटी लाइनें बिछायी गयीं। विकास के नाम पर बड़े बागी इलाकों में अंग्रेजों की सैनिक छावनियां बनीं। ये छावनियां आज भी हैं। उस जमाने में तमाम जगहों पर खेती बाड़ी उजड़ गयी। नौकरियों में इस इलाके को काली सूची में शामिल कर दिया गया। 1857 के बाद इस इलाके में आजादी के लिए चले सभी संघर्षो में अग्रणी भूमिका तो निभायी लेकिन उ.प्र. तथा बिहार का इलाका विकास की मुख्यधारा से कट गया। यहां नियोजित विकास प्रक्रिया 1947 के बाद शुरू हुई लेकिन तब तक ये इलाके और जगहों की तुलना में 90 साल पिछड़ चुके थे।
अवध राज्य और अंग्रेज
अवध अरसे तक देश का एक शानदार इलाका माना जाता था। खुद अंग्रेज इसे भारत का उद्यान मानते थे। रेजीडेंट लखनऊ के नायब मेजर बर्ड ने अवध को भारत का चमन कहा था। पादरी हेबर ने 1824-25 में अवध की यात्रा के बारे में जो लिखा उससे उस जमाने के खूबसूरत और खुशहाल अवध की तस्वीर उभरती है--
अवध के बारे में मैने बहुत कुछ सुना था, पर मैं स्वयं इस प्रदेश की इतनी व्यवस्थित खेतीबाड़ी और किसानी देख कर प्रसन्न और आश्चर्यचकित हूं। यदि राज्य में दुर्व्यवस्था तथा अत्याचार की जो बातें कही जाती हैं, वे सही होतीं तो इतनी घनी आबादी या उद्योग- धंधे न होते और किसान परिश्रमी तथा संतुष्ट ना होते। गांवो में भी दूकाने साफ सुथरी हैं। लोग आराम से रहते है तथा जनता समृद्द है। .......
पादरी हेबर ने आगे लिखा कि -
अवध के राजाओं और मौजूदा बादशाह की असली परेशानी ईस्ट इंडिया कंपनी है। उसके कहने से राजा और उनके पूर्वजों ने अपनी बढिया पलटन समाप्त कर दी और अब उनके पास महज महल पर पहरा देने वाले संतरी रह गए हैं।
इसी तरह मेजर बर्ड लिखते हैं कि –कंपनी की सेना में अवध के रहने वाले कम से कम 50,000 सिपाही हैं। पर वे अपने परिवार को नवाब के राज्य में छोड़ कर निश्चिंत भाव से नौकरी करते हैं। वे अपने परिवार को अवध के बाहर नहीं ले जाते और कंपनी की फौज से रिटायर होने के बाद अवध में वापस आ कर शांति से रहते हैं।
अवध में नवाबी शासन 136 साल से अधिक चला। नवाब वाजिद अली शाह अवध के आखिरी और ग्यारहवें शासक थे। वाजिद अली समेत पांच नवाब खुद को बादशाह लिखा करते थे। ईस्ट इंडिया कंपनी ने लंबी रणनीति तैयारी कर नवंबर 1855 में वाजदि अली शाह को गद्दी से हटा कर अवध हथियाने का तानाबाना बुन लिया था। लखनऊ के रेजीडेंट जनरल आउट्रम को 30 जनवरी 1856 को अवध हड़पने का आदेश हुआ और कहा गया कि नवाब को 15 लाख रू सालाना पेंशन मिलेगी। अगर नवाब मान जाते हैं तो ठीक अन्यथा सेना के जोर पर यह काम किया जाये। तय किया गया कि सबसे पहले तोपखाना जब्त करके अवध में दो साल मार्शल ला लागू कर दिया जाये। आउट्रम की बातों को नवाब ने नहीं माना तो अंग्रेजों ने मलका कश्वर को पटाने की कोशिश की और उनको अलग से एक लाख रू सालाना पेंशन देने का लालच दिया। पर इससे भी बात नही बनी। इन दुष्चक्रों के बीच ही एकाएक वाजिद अली शाह ने सेना को हथियारविहीन कर, वेतन देकर उसे समाप्त करने का फैसला कर लिया। 4 फरवरी 1856 को आउट्रम ने वाजिद अली शाह को यह सूचना दी कि कंपनी ने अवध का शासन अपने हाथ में ले लिया है और बादशाह गद्दी से उतार दिए गए। बादशाह ने 13 मार्च 1856 को अपने फूफा नवाब हिशामुद्दौला को अपना मुख्तार आम नियुक्त कर सदा के लिए लखनऊ छोडऩे का फैसला कर लिया।
अंग्रेजों ने वाजिद अली शाह की छवि ध्वस्त करने के लिए उनको विलासिता का पर्याय और ऐय्याश साबित करने का प्रयास किया, पर वह साहसी कर्मठ, योग्य, सक्षम और अच्छे व्यक्ति, साहित्य तथा कला के प्रेमी, सांप्रदायिक एकता के प्रबल पैरोकार और कट्टर हिंदुस्तानी थे। वह शिया मुसलमान थे पर उन्होंने सबको समान न्याय दिया। अपराध के लिए कई शिया मुसलमानो को फांसी की सजा तक दी गयी। उनकी प्रतिभा और शासन क्षमता के चलते ही ईस्ट इंडिया कंपनी से उनका कई बार टकराव हुआ। जब उन्होने अवध की बागडोर संभाली तो उनकी शुरूआत इतनी अच्छी थी कि अंग्रेज घबरा गए थे। आम लोगों से उनका काफी बेहतर तालमेल था और जन शिकायतों के निराकरण का भी ठोस तंत्र बना था। उनके राज के 26 व्यवस्थित विभाग थे और सैन्य व्यवस्था भी काफी मजबूत थी। जब अंग्रेजो ने अवध में विदेशी कपड़ो का अंबार लगा दिया था तो भी वाजिद अली शाह देशी बुनकरों के हाथ का बना कपड़ा ही पहनते थे।
अंग्रेज अधिकारी स्लीमन ने 1 जनवरी 1854 को राजपूताना के रेजीडेंट कर्नल लो को लिखा कि -अवध की गद्दी पर इतना अच्छा और कटुता रहित बादशाह कभी नहीं बैठा। उन्होंने ही सर जेम्स के नाम 2 जनवरी 1852 को लिखे पत्र में साफ कहा कि हमको अपने कर्ज के नाम पर हैदराबाद की रियासत को जब्त करने का अधिकार हो सकता है, पर अवध पर हमारा एक भी पैसा ऋण नहीं है। कंपनी अवध सरकार की चार करोड़ रूपए की कर्जदार है।
अवध हड़पने की भूमिका के तहत ही डलहौजी के आदेश पर स्लीमन ने 1 दिसंबर 1849 से 27 मार्च 1850 तक अवध की यात्रा की। इस यात्रा पर आने वाले तीन लाख रू का व्यय नवाब वाजिद अली शाह ने बर्दास्त किया। इस रिपोर्ट जर्नी थ्रू द किंगडम आफ अवध इन 1849-50 की मात्र 18 प्रतियां छपीं जो खास लोगों तक ही पहुंची। स्लीमन की इस रिर्पोर्ट में तमाम इलाकों में खेती बाड़ी तथा प्रशासनिक व्यवस्था दोनो की तारीफ कई जगह मिलती है। 1857 में बेहद बागी रहे शाहगंज इलाके के बारे में वह लिखते हैं-
पूरा क्षेत्र बहुत संपन्न सुखी और बढिया खेतीवाला है। यहां चोरी नहीं होती और फकीर तथा साधुओं को कस्बे में गश्त लगाने की आज्ञा नहीं है...कोई भीख नहीं मांग सकता है। यहां अगर कोई बाहर से आकर नया खेतिहर बनना चाहता है तो उसे 25 रू बैल खरीदने, 30 रू झोपड़ा बनवाने और 36 रू फसल पैदा होने तक का खर्च चलाने के लिए और कुछ अन्य मद मिला कर राजा की ओर से 90 रू का ऋण देने का प्रबंध है। खेतिहर वहीं बस जाता है और राजा को ऋण चुका देता है।
लेकिन इन स्लीमन महाशय ने कंपनी के आदेश से वाजिद अली शाह की बीमारी उनकी निजी जिंदगी के बारे में बहुत कुछ अनर्गल प्रलाप तथा दुष्प्रचार किया। वाजिद अली शाह की मौत 21 सितंबर 1887 को 75 साल की उम्र में हुई। उनको मिला यह लंबा जीवन ही बहुत से आरोपो का जवाब है। दूसरी बात अगर अवध के लोग वाजिद अली शाह के शासन से दुखी होते तो अवध हड़पने के बाद तीन दिन तक जन-शोक नहीं मनाया जाता। 13 मार्च 1856 को जब वाजिद अली शाह रात में कानपुर रवाना हुए तो बहुत से लोग उनको रोकने के लिए कानपुर तक गए। जगह-जगह जनता ने उनकी मुल्क वापसी के लिए प्रार्थना की। अगर वह गलत होते तो लोगों को खुशी मनानी चाहिए थे। वास्तव में अंग्रेजों और अवध के बीच तकरार पलासी की लड़ाई के बाद बनी परिस्थितियों के चलते शुरू हो गयी थी। 23 जून 1757 को हुई इस लड़ाई में पराजय नवाब सिराजुद्दौला के सेनापति मीर जाफर के विश्वासघात के नाते हुई थी। मीरजाफर अंग्रेजों की कृपा से गद्दी पर बैठे पर उनको 1760 में उतार कर मीर कासिम को शासक बना दिया गया। लेकिन वह अंग्रेजों की कठपुतली होने के बाद भी अतिशय अपमानजन्य व्यवहार नहीं सह सके और बागी हो गए। कंपनी और मीर कासिम की लडा़ई में अक्तूबर 1763 में उदवानाला में पराजित होने के बाद मीर कासिम भाग कर अवध के नवाब शुजाउद्दौला की शरण में पहुंचे। तभी से कंपनी और अवध के बीच खटास शुरू हो गयी। नवाब शुजाउद्दौला ने बक्सर के मैदान में अंग्रेजो से मोरचा लिया,पर 15 सितंबर 1764 को वह भी पराजित हो गए। कई अंग्रेज इतिहासकार भारत में अंग्रेजी राज की बुनियाद इसी विजय से मानते हैं। नवाब मीरकासिम तो खैर दर-दर की ठोकर खाते हुए 1777 में दिल्ली में एक झोपड़ी में मरे पाए गए लेकिन नवाब शुजाउद्दौला ने जंग जारी रखी।
लेकिन नवाब शुजाउद्दौला चुनारगढ़ में हार गए तो उनके हाथ से इलाहाबाद का ऐतिहासिक किला निकल गया। तभी नवाब को अंग्रेजों से अपमानजनक संधि करनी पड़ी। उनको कंपनी को लड़ाई का हरजाना 50 लाख रू देना पड़ा और अंग्रेजों से मिल गए बनारस के राजा बलवंत सिंह को माफ करना पड़ा। उसी दौरान अवध में रेजीडेंट रखने का फैसला किया गया। नवाब को अपने सेना से फ्रांसीसी सैनिक हटा कर कंपनी की सेना रखनी पड़ी। खुद मेजर बर्ड लिखा है कि 1765 की इस संधि के बाद से अवध का राज्य छीनने तक कंपनी ने अवध से 50 करोड़ रूपए की वसूली की। नवाब सआदत अली की मौत 12 जुलाई 1814 को हुई तो उन्होने राजकोष में 14 करोड़ रूपए थे। कंपनी को सबसे अधिक गाढ़े मौके पर अवध से ही कर्ज और तमाम सहायता मिली। नवाब आसफुद्दौला 1775 में गद्दी पर बैठे थे और उनकी सेना में 80,000 सिपाही थे। खुद स्लीमन ने माना था कि ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना से कम वेतन पाने के बाद भी नवाब की सेना के सिपाही उनसे अच्छे हैं। अंग्रेजो के दबाव में सेना लगातार छोटी और एक जमाने में समाप्त ही हो गयी। ... contd.
अवध और 1857 की जनक्रांति
अवध इलाके मे 1854-55 से ही देहात ने अपने हमलावर तेवर दिखाने शुरू कर दिए थे। कई जगहों पर सरकार को किसानो ने लगान देना भी बंद कर दिया था। यही कारण है कि इन इलाकों में सबसे ज्यादा दमन की गतिविधियां चलीं और बड़े पैमाने पर लोगों का पलायन हुआ। अवध को सैनिक छावनी बनाने के साथ बहुत कड़े प्रशासनिक प्रबंध किए गए। जाने कितने गांव भी इस बीच में जब्त कर लिए गए और तमाम ऐतिहासिक महत्व की जगहों को सदा के लिए मिटा दिया गया। अवध अंग्रेजों के आंखों की ऐसी किरकिरी बना कि सेना, पुलिस और अन्य भर्तियों में यहां के लोगों को काली सूची में शामिल कर दिया गया। अंग्रेजों ने केवल अपने साथ खड़े रहे राजाओं और वफादारों को ही मालामाल किया। हालांकि उनके वंशजों की सामाजिक हैसियत आज भी सवालिया घेरे में हैं।
अब तक हुए कई महत्वपूर्ण अध्ययनों में बहुत से नए तथ्य प्रकाश में आए हैं, पर इनके केंद्र में कुछ जाने-पहचाने चेहरे और चर्चित इलाके ही रहे। कई राजे-रजवाड़े या जागीरदार तो इतिहास में अपना नाम दर्ज कराने में कामयाब हो गए, पर उनके असली प्रेरक और मददगार हजारों किसानों-मजदूरों तथा अन्य वर्गो और उनके नायकों की बलिदानी और ऐतिहासिक भूमिका को केंद्र में रख कर जमीनी स्तर पर आज तक कोई ठोस अध्ययन नहीं हुआ। 1857 में इलाहाबाद, फैजाबाद, सुल्तानपुर, लखनऊ, शाहजहांपुर, कानपुर, फतेहपुर, प्रतापगढ़, जौनपुर, आजमगढ़, रायबरेली, गोंडा, बस्ती, बनारस, मिर्जापुर, गोरखपुर, बलिया, बाराबंकी, बहराइच, सीतापुर तथा उन्नाव जिले के ग्रामीण इलाकों में किसानो तथा मजदूरों ने अग्रणी भूमिका निभायी और लाखों लोग कीट पतंगों की तरह गुमनाम शहीद हो गए।
1857 में भारत में मध्यवर्ग का उदय नहीं हुआ था। उस समय या तो किसान-मजदूर और कारीगर थे या फिर जागीरदार, राजा या अफसरी तबके के लोग। इस महान क्रांति में जो एक लाख सैनिक शामिल थे उनकी भी जड़े भी खास तौर पर अवध के देहाती इलाकों के किसान परिवारो से जुड़ीं थी। कंपनी के अधिकतर सैनिक मौजूदा पूर्वी उ.प्र., अवध , पश्चिमी बिहार तथा हरियाणा के किसान परिवारों से आए थे। खुद 34वीं पलटन के सिपाही मंगल पांडेय (जिन्होंने बगावत की पहली चिंगारी फूंकी थी) भी पूर्वी उ.प्र. के एक किसान परिवार से संबंधित थे। सैनिकों के भीतर सुलग रहे असंतोष ने देहात में किसानो, मजदूरों और अन्य वर्गो में व्यापक विस्तार पाया। इसी नाते सैनिकों के साथ तमाम इलाकाई जागीरदार, पुलिस के जवान, पूर्व सैनिक और सरकारी कर्मचारी भी 1857 की क्रांति में बढ़-चढ़ कर शामिल हुए।
यही नहीं अवध में पहले महासमर को कुचलने के लिए अंग्रेजों ने देहाती इलाकों में जो अत्याचार किए थे, उससे मानवता भी शरमा गयी। जाने कितने क्रांतिकारी गांवो को अंग्रेजों ने मिटा दिया। क्रांतिकारी किसानो, मजदूरों और उनके परिवारजनो को फांसी की सजा देते समय अंग्रेज इतने अधिक अमानवीय और बदले की भावना से भरे थे कि रास्ता चलते लोगों तक को फांसी दे दी गयी। अवध में कितने लोगों को फांसी पर लटकाया गया,इसका प्रमाण तमाम गांवो के फंसियहवा पेड़ आज भी देते हुए खड़े हैं। अंग्रेजों ने नवजात शिशुओं, बच्चों, महिलाओं तथा बूढ़ो तक को नहीं बख्शा। आजादी के नायकों तथा बागी सैनिकों को तो तोप के मुंह पर बांध कर उडाया गया, पर देहाती इलाकों की बगावत से अंग्रेज इतना नाराज थे कि तमाम निर्दोष नागरिकों को भी सजा-ए-मौत दी गयी। अकेले लखनऊ में ही शहीद हुए लोगों की संख्या 20270 मानी गयी है। इलाहाबाद में नीम के पेड़ पर 800 लोगों को फांसी दी गयी। इसी तरह बस्ती जिले में छावनी कस्बे में पीपल के पेड़ पर 400 से ज्यादा ग्रामीणों को फांसी पर लटकाया गया और कानपुर में ही 2000 लोगों को एक जगह फांसी दी गयी।
1857-58 की बगावत के दौरान जब भारत में चिनियों की आवाजाही बहुत कम थी तो डाक विभाग में रिकार्ड 23 लाख पत्र वापस डेड लेटर आफिस में पहुंचे। इतनी बड़ी संख्या के पीछे तर्क यह दिया गया कि उस दौरान बगावत में बहुत से लोग या तो मार दिए गए या अपने ठिकानो से पलायन कर गए थे। यह आंकड़ा बहुत चौंकाने वाला है क्योंकि वापस लौटे पत्रों में सबसे ज्यादा अवध इलाके के ही थे। इस दौरान अवध के लाखों परिवार इधर से उधर पलायन करने को विवश हुए। ग्रामीण इलाकों में बागी गांवो में जिन पेड़ों पर लोगों को फांसी दी गयी थी, वे आज भी लोगों के लिए श्रद्धा का विषय बने हैं और जिन किलों को ध्वस्त किया गया था, उनके खंडहर आज भी अंग्रेजों के दमन की याद दिला रहे हैं। शहरी इलाकों में भी अंग्रेजों ने फांसी खास तौर पर पेड़ो पर ही दी और लोगों की लाशें कई दिनो तक लटकी रहीं। पर ग्रामीणों ने तमाम सेनानियों की यादों को संजो कर रखा है। ग्रामीण इलाकों में तमाम छोटी बड़ी जागीरों और रियासतों में सुरक्षा के कवच के रूप मे काम करने वाले तमाम किले और ऐतिहासिक धरोहर भी 1857 में बदले की भावना से अंग्रेजों ने तोप से उड़ा दिए थे। कई इलाकों में घने जंगलों की कटाई करने के साथ तमाम ऐतिहासिक दस्तावेजों को नष्ट करने का बेहद अशिष्ट और अमानवीय कार्य भी किया गया। बहुत से मंदिर और मस्जिद भी अंग्रेजों की सनक का शिकार बने जिस पर आज तक विस्तार से रोशनी नहीं पड़ती है।
अवध में 1857 के पहले कम से कम 574 किले थे। इसमें से 250 राजाओं के निजी किले थे जिसमें 500 तोपें थीं। राज्य में गढिय़ों की संख्या 1569 थी पर अवध हड़पने के बाद तालुकेदारों के कि ले और गढियों को ध्वस्त कर दिया गया। कंपनी सरकार ने जागीरदारो से 720 तोपें, 1,92,306 बंदूकें तथा तमंचे, 5.79 लाख तलवारें और 6.94 लाख फुटकर हथियार जब्त किए। बादशाह, बेगमों तथा अवध की जानी मानी हस्तियों को दुर्गति की गयी और काफी लूटपाट किया गया।
अवध में नए भूमि बंदोबश्त से लोगों में बागी तेवर साफ दिखने लगे थे। अवध में चीफ कमिश्नर के सचिव श्री कूपर ने 3 सितंबर 1856 को लिखा कि भूमि के नए बंदोबश्त ने वैसे तो जागीरदारों और तालुकेदारों की ताकत को नष्ट कर दिया है, फिर भी हमें उनके हथियार जमा करा लेना चाहिए। इसी नाते 1856 में किसी तरह का हथियार और बारूद बनाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। इसी तरह फैजाबाद तथा लखनऊ में हथियार बांध कर चलने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। उसी दौरान वाजिद अली शाह के परिवार के साथ भी अंग्रेजों ने जो किया उसका भी लोगो पर बहुत असर पड़ा। खुद वाजिद अली शाह ने सिंतबर 1856 में गवर्नर जनरल को लिखा कि -
छतरमंजिल से मेरी औरतें तथा बच्चे घसीट कर बेइज्जती के साथ बाहर निकाले गए....आश्चर्य की बात है कि जिस ब्रिटिश सरकारके प्रति मैं इतना वफादार रहा, जिसके साथ मेरे बुजुर्गो की गहरी दोस्ती रही, जो हमेशा मौके पर काम आया उसके साथ ऐसा व्यवहार तो कभी नहीं हुआ होगा। कंपनी सरकार ने मेरा निजी सामान नीलाम कर मात्र तीन लाख रू भेजा। हमारा सब सामान लूट लिया गया। लाख रूपए की चीज एक रू में बिकी।
लखनऊ में 18 अप्रैल 1857 को पहली बार बगावत के लक्षण तब दिखे थे जब लखनऊ के कमिश्नर सर हेनरी लारेंस की सवारी पर लोगों ने कीचड़ और ढेले फेंके थे। इसके बाद 2 मई को 7वीं अवध रेजीमेंट के सिपाहियों ने अफसरों और ब्रिगेडियर के आदेश के बावजूद दांत से कारतूस काटने से इंकार कर दिया। यह रेजीमेंट तुरंत भंग कर दी गयी। इसके बाद सातवीं अनियमित अवध सेना के सैनिकों ने 46वीं देशी पैदल सेना को पत्र भेजा, जिसमें विद्रोह की बात कही गयी थी। पर यह देशी अधिकारियों के हाथ में पड़ कर अंग्रेज अफसरों तक पहुंच गया। 13 मई 1857 को सूबेदार सेवक तिवारी, सिपाही रामनाथ दुबे, सिपाही हुसैन बख्श आदि वफादारों को सर हेनरी ने पोशाक तथा थैली देकर सम्मानित किया। इस मौके पर सर हेनरी ने भाषण दिया उससे साबित होता है कि अंग्रेज किस तरह की भावना रखते थे और लोगों में फूट डालना चाहते थे-
अंग्रेज प्रजा से बिना भेदभाव अच्छा वर्ताव करता है। औरंगजेब तथा रणजीत सिंह ने हिंदू मुसलमानों के साथ क्या किया? पहले आलमगीर ने बाद में हैदरअली ने हजारों हिंदुओं को मुसलमान बनाया। उनका मंदिर तोड़़ा और उनको अपमानित किया। रणजीत सिंह ने मुसलमानो को नमाज के लिए मुल्लाओं को कभी बुलाने नहीं दिया। इसी तरह लखनऊ में तीन साल पहले तक कोई मंदिर बनाने की हिम्मत नहीं कर सकता था।
सिपाहियों पर इस भाषण का असर नहीं हुआ। सारी बातें गलत थीं और इसी नाते बगावत में पुरस्कार पाने वाले भी शामिल हो गए। 1857 की बगावत की बागडोर अवध में महान सेनानी बेगम हजरत महल के हाथ थी। उनके पुत्र बिरजीस कद्र महज 11 साल की उम्र में 3 जुलाई 1857 को बगावत के बाद अवध की गद्दी पर बैठे। अवध में बगावत हुई तो अंग्रेजों के स्त्री -बच्चे रेजीडेंसी पहुंचे, जबकि लार्ड क्लाइव रात के अंधेरे में लखनऊ से आगरा भागा। कैप्टन फ्लैचर हेज को मैनपुरी के पास ही उसके सैनिकों ने मौत के घाट उतार दिया। लखनऊ में अंग्रेजों ने बागी सैनिकों का कोर्ट मार्शल किया तथा कई को फांसी दी गयी। मच्छी भवन के सामने फांसी का तख्ता बनाया गया था। 1857 की बगावत में सर हेनरी भी लखनऊ में मारे गए। मेजर गाल भेष बदल कर इलाहाबाद भागा पर मार दिया गया। अंग्रेजों ने इस दौरान अपना गुप्तचर तंत्र काफी मजबूत बनाया पर बागियों ने कई गुप्तचरों को मार दिया।
अंग्रेजी सेनाओं के कमांडर इन चीफ सर कोलिन कैंपवेल जब बगावत से निपटने के लिए इलाहाबाद से 3 नवंबर 1857 को कानपुर पहुंचे तभी उनको साफ नजर आ गया था कि पूरा अवध ही बागी हो चुका है। कानपुर की हालत इतनी खराब थी कि यूरोपीय शहर में निकल तक नहीं सकते थे। भारी सैनिक तैयारी जगह-जगह नजर आ रही थी और स्थानीय लोगों का खुला समर्थन भी उनके साथ था। अंग्रेजों ने सबसे पहले ग्वालियर के बागियो को कुचलने की तैयारी की, पर कोलिन कैपवेल का जोर खास तौर पर रेजीडेसी लखनऊ को मुक्त कराने पर था। लखनऊ में 8 नवंबर 1857 को बागी सेना के पास एक लाख लोग थे,जबकि अंग्रेजो के पास मात्र 8000। घेराबंदी इतनी तगड़ी हुई कि अंग्रेज सेना तंबाकू तक को तरस गयी।
अवध में अंग्रेजों ने तीन माह में 1.20 लाख सैनिकों को जुटाया और दमन के लिए 130 तोपें आयीं। पर बागियों की तैयारी भी समानांतर चलती रही। कै.एलेक्जेंडर के खुफिया सूचनाओं के मुताबिक तब बागियों के पास सात लाख की सेना थी। इनसे मोरचा लेना आसान नहीं था। वहीं दूसरी ओर सेनापति कोलिन ने 20 दिसंबर 1857 को लार्ड केनिंग को पत्र लिख कर सूचित किया कि - मैनपुरी और फतेहगढ़ के बाद अवध पर काबिज होना जरूरी है। जब तक अवध को हम काबू में नहीं करेंगे, तब तक भारत में शांति नहीं होगी और जो सिपाही अभी तक बागी नहीं बने हैं, वे भी बागी बन जाऐंगे। इससे देशी रियासतों की ताकत का और अधिक विस्तार हो जाएगा।
अगर बारीकी से तथ्यों को देखा जाये तो पता चलता है कि अवध में क्रांति की तैयारी और सभी जगहों से अच्छी थी। मेरठ से भी पहले लखनऊ में क्रांति की पहली आहट सात नंबर पलटन के पास सुनाई पडी थी पर अंग्रेजो ने उनको हथियार विहीन कर दिया। इसके बाद 31 मई को 48,71 और सात नंबर की दूसरी देशी पलटन ने बगावत कर दी। 3 जून को सीतापुर में तीन देशी पलटनो ने आजादी का झंड़ा उठा लिया। वही फर्रू खाबाद पहुंचे और किले पर कव्जा कर लिया। इसके बाद बहराइच, मोहमदी, गोंडा, सिकरौरा समेत अवध के प्रमुख इलाके आजाद हो गए। 10 जून 1857 को पूरे अवध में आजादी का झंडा फहराने लगा। जब दिल्ली, कानपुर और लखनऊ जैसे प्रमुख केंद्रो का पतन हुआ तो भी अवध में चप्पे चप्पे में क्रातिकारी लड़ते रहे।
मालसन इस बात को स्वीकार करते हैं कि सारे अवध ने अंग्रेजों के खिलाफ हथियार उठा लिए थे। सेना, नवाब, जमींदार और उनके ढाई सौ किले, जिनमें बहुंतो पर भारी तोपे लगी थी, वे सब हमारे खिलाफ खड़े थे। उन्होने तौल कर देख लिया था कि नवाबों का शासन कंपनी के शासन से बहुत अच्छा था। हमारी सेना के पेशनर सैनिक तक हमारे खिलाफ हर विप्लव में शामिल थे।
29 जुलाई 1857 को जनरल हैवलाक लखनऊ की बगावत को दबाने के लिए जब कानपुर से गंगा पार कर रवाना हुआ तो उसने सोचा था कि चार पांच रोज में 45 मील का सफर वह तमाम बाधाओं के बाद भी पूरा कर लेगा। लेकिन कदम-कदम पर ग्रामीणों से उसकी भिड़त हुई और उसने लिखा कि मैं अभी कम से कम 25 दिन लखनऊ नहीं पहुंच सकता। उसे पहले रोज ही दो स्थानो पर कठिन लड़ाई लडऩी पड़ी। उन्नाव और वशीरतगंज मे उसकी सेना का छठा भाग समाप्त हो गया। वहीं से वापस कानपुर लौट कर कोलकाता से उसे बड़ी सेना मंगानी पड़ी। लखनऊ फतह के लिए कई ओर से सेनाएं आयीं और वे सभी गांवो में तबाही मचाते आगे बढ़ी थीं। नील और हैवलाक की तरह कई कमांडरों ने ग्रामीणो के खून से होली खेली, पर ग्रामीण अंग्रेजों की राह में चट्टान की तरह बाधा बने रहे। आखिरी सांस तक उन्होने अंग्रेजो को रोकने का प्रयास किया। कई जगह घाटों और पुलों पर अंग्रेजो सेना को गांववालों ने छक्के छुड़़ा दिए। वे जगह जगह पूरी रात और दिन पहरे देते थे।
अंग्रेजों की सारी कोशिशो के बाद भी 9 माह से अधिक समय के बाद लखनऊ पर पूरा नियंत्रण 14 मार्च 1858 को हो सका, जब शहर का बड़ा ह्स्सिा बागियों से खाली हो गया। खुद राणा जंग बहादुर ने 9,000 सैनिकों तथा 25 तोपों के साथ कई धर्मस्थलों को ध्वस्त किया। 14 मार्च को छोटा इमामबाड़ा तोपों से ध्वस्त किया गया और मंदिरों की भी मूर्ति तोड़ कर सोना चांदी लूटा गया। 15 मार्च को कैसरबाग तोपों से ध्वस्त किया गया और 16 मार्च को रेजीडेंसी मच्छी भवन और बड़ा इमामबाड़ा पर कव्जा हुआ। इसी के बाद 17 मार्च 1858 को हजरत महल लखनऊ से बौंडी (बहराइच ) पहुंची। अवध के रेजीडेंट तथा चीफ कमिश्रर का निवास रेजीडेंसी प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की एक महान यादगार है। यहां 1 जुलाई 1857 से नवंबर 1857 के बीच पांच माह तक स्वाधीनता प्रेमी गोलीबारी करते रहे। उसके निशान आज भी देखे जा सकते हैं। लखनऊ के विभिन्न मोरचे पर शहीद हुए करीब 82 भारतीय रणक्षेत्र प्रभारियों के नाम सहित 20270 अज्ञात शहीद सैनिकों की सूची भी यहां प्रदर्शित की गयी है।
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आखिरी सांस तक जारी रही जंग
पर लखनऊ विजय के बाद भी अवध के देहाती इलाकों में ग्रामीणों ने जंग जारी रखी थी। बाराबंकी में एक साल सात माह पांच दिन जंग जारी रही और रामनगर में 3 मई 1858 तक अंग्रेज अपना तहसीलदार नही भेज सके और उस समय केवल 10 रू का राजस्व संग्रह हो सका। महोना के राजा दृगविजय सिंह बागी बने रहे। बागियों ने नबाबगंज पर कब्जा करके पुलिस को भगा दिया। राजा कपूरथला की मदद से अंग्रेज पुरवा पर कव्जा कर सके पर जून 1858 मे उस पर दोबारा बागियों का कव्जा हो गया। घाघरा तट पर बौंडी किले में (बहराइच) बेगम हजरतमहल 1500 की सेना, 500 बागी सिपाही तथा 16 हजार समर्थकों के साथ जुलाई 1858 तक रहीं, पर अंग्रेज वहां जाने की हिम्मत नहीं जुटा सके।
इस दौरान अंग्रेजों ने तमाम देशी राजाओं को पटाया और बहुतों पर डोरे डाले। लेकिन इन राजाओं को आम जनता का आदर और सम्मान नहीं मिल सका। एक अंग्रेज भक्त रायबरेली जिले की तिलोई रियासत के राजा द्वारा 27 जून 1858 को मेजर बैरो को लिखा गया यह पत्र ऐसे राजाओं की हालत को समझने के लिए काफी है। पत्र में तिलोई राजा ने लिखा कि -
पानी से निकाली गयी मछली सा मेरा हाल है...हमने हजारों दुश्मनो को मार दिया पर हमारे हथियार खत्म हो गए हैं..कोई मदद नहीं मिली..राजा शिवदर्शन सिंह धमकी दे रहे हैं..पूरा इलाका मेरे खिलाफ हो गया है कोई मददगार नहीं है..वर्षा ऋतु है...मैं जैसे भी होगा खुद को बचाने की कोशिश करूंगा..बागी बड़ी संख्या में यहां एकजुट हो रहे हैं।
अवध की जंग की एक खूबी यह रही कि बेहद अत्याचारी अधिकारी कर्नल नील (स्मिथ नील ) को 16 सितंबर 1857 को बागियों ने लखनऊ में मार डाला। 10 मार्च 1858 को अत्याचारी हडसन भी लखनऊ में मारा गया। इसी ने दिल्ली में निदोर्ष शहजादों की हत्या की थी। इतना ही नहीं जब इंग्लैंड की महारानी के क्षमादान की घोषणा को लार्ड कैनिंग ने इलाहाबाद दरबार में सुनाया और कहा कि जो लोग हथियार डाल देंगे उनको क्षमा कर दिया जाएगा और उनकी जागीरे लौटा दी जाएगी, पर पर इसका असर स्वाभिमानी अवध के राजाओं पर नहीं पड़ा।
अवध के प्रमुख क्रांतिवीर
अवध में बेगम हजरत महल, बिरजीस कद्र , गंगा सिंह, जनरल दिलजंग सिंह, तिलकराज तिवारी, राणा बेनीमाधव सिंह, राणा उमराव सिंह, राजा दुर्गविजय सिंह, नरपत सिंह, राजा गुलाब सिंह (हरदोई),राजा हरदत्त सिंह बौंडी, राजा देवीबख्श सिंह-गोंडा ,ठा.रामगुलाम सिंह, खान अली खां,रघुवर सिंह, उमराव जान,भगवान बख्श, राजा उदित प्रकाश सिंह (इकौना-बहराइच), राजा ज्योति सिंह (चर्दा-बहाराइच),गोपाल सिंह, रघुनाथ सिंह, सूरज सिंह और औसान सिंह आदि तो जंग लड़ते हुए नेपाल की तराई में चले गए। 1859 में नेपाली सेना और अंग्रेजी सेना ने इन पर खासा दबाव डाला और और बार-बार धमकी उनको धमकी दी गयी। राणा बेनीमाधव, नरपत सिंह, देवीबख्श सिंह और गुलाब सिंह को अंग्रेजो ने अपने साथ मिलाने की कोशिश की पर उन्होने माफी मांग कर दोबारा राजसत्ता हासिल करने से इंकार कर दिया। कई बागी छोटी-छोटी सेना बना कर लड़ते रहे जबकि उनके पास हथियार और जरूरी साजो सामान नहीं थे। उनकी औरतों तथा बच्चों की दशा दयनीय थी, पर जंग जारी थी।
अवध में रायबरेली तथा उन्नाव जिले में आनेवाली रियासत शंकरपुर के शासक तथा महान नायक राणा बेनीमाधव महान संगठनकर्ता राणा बेनीमाधव ने स्थानीय किसानो, मजदूरों और समाज के सभी वर्गो को साथ लेकर अवध के ह्दयस्थल में अंग्रेजों के खिलाफ जो ऐतिहासिक जंग छेड़ी थी उसकी छाप आज भी लोगों के दिलों पर दिखायी पड़ती है। आज भी बैसवाड़ा की कथा-कहानियों के नायक राना की शूरवीरता के गीत ,भजन तथा कीर्तन और होली गीत गांवों में गाए जाते हैं। बिना किसी विशिष्टï स्मारक के वह लोगों के दिलों में बसे है। राणा बेनीमाधव के अधीन रायबरेली 18 माह तक आजाद रहा और लखनऊ की स्वाधीनता में भी उनके सैनिको की विशिष्ट भूमिका रही। उनकी वीरता से बेगम हजरतमहल भी इतनी प्रभावित थीं कि उनको खास तौर पर दिलेरजंग की उपाधि से नवाजा और आजमगढ़ की सूबेदारी प्रदान की थी। बेगम हजरत महल ने 7 जुलाई 1857 को जब अवध के शासन की वास्तविक बागडोर अपने हाथ में ली थी तो राणा बेनीमाधव ही उनके सबसे बड़े मददगार थे। जून 1858 में उन्होने बैसवारा में 10,000 पैदल और घुड़सवार सेना संगठित कर ली
रायबरेली में बगावत 10 जून 1857 को शुरू हुई और शुरू में खास रक्तपात नहीं हुआ। राणा बेनीमाधव ही बगावत के केंद्र में थे। उन्होने अपने साथ बहुत से लोगों को जोड़ा और लखनऊ की मदद के लिए 15,000 जांबाजों की सेना प्रदान की। उन्होने मई 1858 में कानपुर रोड पर भारी खतरा पैदा कर दिया और उस समय उनके समर्थन में लडनेवालों की संख्या 85,000 तक पहुंच गयी थी। राणा ने हालात माकूल न देख 11 नवंबर को अपना किला खाली कर दिया और रास्ते में कई जगह अंग्रेजों से लड़ते हुए नेपाल चले गए। इसी तरह फरवरी 1858 की चांदा की लड़ाई में कालाकांकर के 26 वर्षीय युवराज लाल प्रताप चांदा शहीद हुए। 21 फरवरी 58 तक अंग्रेजों का इलाहाबाद से सुल्तानपुर तक पहुंचना बड़ी समस्या बना हुआ था।
संचार व्यवस्था और अवध
अवध के बागी और इलाकों की तुलना में आजादी की अलख लंबे समय तक जलाए रखने में सफल रहे तो उसके पीछे जनसमर्थन और संचार तंत्र को काबू मे रखने की उनकी रणनीति भी एक अहम कारक थी। अंग्रेजों की तमाम कोशिशों के बावजूद लखनऊ नौ माह से अधिक समय तक बागियों के ही नियंत्रण में रहा। लखनऊ से कलकत्ता में कैद नवाब वाजिद अली शाह तक नियमित सारे संदेशे और चिट्ठी तो पहुंच रही थी पर रेजीडेंसी में भारी तामझाम के साथ रहनेवाले अंग्रेज बाहर से एक छोटा सा संदेश तक पाने के लिए तरस गए थे।
अवध में उन दिनो तमाम महत्वपूर्ण इलाकों में संचार या डाक सेवाएं पूरी तरह ठप थीं। इलाहाबाद से फतेहपुर, कानपुर तथा मिर्जापुर-इलाहाबाद के बीच का सारा संचार तंत्र टूटा हुआ था। कानपुर में अंग्रेजों ने संचार व्यवस्था बहाल करने के लिए सडक़ो की जगह जब नदी का उपयोग शुरू किया तो क्रांतिकारी सतर्क हो गए और उन्होने तत्काल धावा बोल कर उनकी नावें तक ध्वस्त कर दीं।
सैनिक बगावत से जन बगावत तक
मेरठ का सैनिक विद्रोह देखते-देखते कब जन विद्रोह बन गया, यह अंग्रेज समझ नहीं सके। अधिकतर इलाके मे विद्रोह की रीढ़ सैनिक ही थे । केवल बंगाल सेना के एक लाख से ज्यादा सिपाही बगावत में शामिल हो गए थे। विद्रोह की लपटें मेरठ से तमाम दुर्गम इलाकों तक पहुंच गयी थीं। 13 से 31 मई के बीच में फिरोजपुर, मुजफ्फरनगर, अलीगढ़, नौशेरा, इटावा, मैनपुरी, रूडक़ी, एटा, नसीराबाद, मथुरा, लखनऊ, बरेली और शाहजहांपुर में यह चिंगारी फैल गयी। जून के महीने में मुरादाबाद, बदायूं, आजमगढ़ , सीतापुर, नीमच, झांसी, बनारस, कानपुर, झांसी, फतेहपुर, नौगांव, ग्वालियर तथा फतेहगढ़ विद्रोह का केंद्र बन गए। 26-27 जून को कानपुर को जीत कर इन सैनिको ने नाना साहब को बागडोर सौंप दी। जुलाई 1857 में वीर कुंवर सिंह ने इन सैनिको की मदद से आरा जीत लिया और बहुत से बदलाव देखने को मिले। इन सैनिकों ने कभी भी अपनी मर्यादा और गरिमा का उल्लंघन नहीं किया। बगावत में अवध और बिहार के हिंदू और मुसलमान सिपाहियों के साथ मराठे भी अग्रणी भूमिका में थे। बगावत के पहले सेना में मुख्यतया अवध से राजपूत तथा ब्राहमण ही भर्ती होते थे। 1857 में बंगाल सेना में ब्राहमण-26893, राजपूत-27335, छोटी जाति के हिंदू-15761, मुसलमान-12699, ईसाई 1118 और सिख मात्र पचास की संख्या मे थे।
1857 के पहले बंबई और मद्रास की प्रेसीडेंसी सेना में इलाकाई लोगो के साथ जाट, राजपूत और ब्राहमण और उत्तर भारत की अन्य जातियों की भर्ती होती थी। उनकी रेजीमेंट मिश्रित थी और उनमें सभी धर्मो के लोग काम करते थे। बंगाल और पंजाब की सेनाओं में स्थिति इससे अलग थी और ये वर्गीय रेजीमेंटें थी। एक प्रकार की पैदल बटालियन मे दो सिख, दो राजपूत और ब्राहमण तथा दो पंजाबी मुसलिम और एक एक कंपनी पठानो और डोगरों की हो सकती थी। गोरखा पायनियर्स एक वर्ग रेडीमेंट थी, जिसमे सिर्फ गोरखे और मजहबी सिख थे। पर 1857 के बाद केवल सिख और गोरखा रेजीमेंटों को छोड़ कर बाकी सभी रेजीमेटों को वर्ग कंपनी रेजीमेंटो के आधार पर संगठित किया गया। गंगा के मैदानी क्षेत्र के पुरबिया ब्राहमणों और राजपूतों के लिए सेना में भर्ती के दरवाजे बंद कर दिए गए। चूंकि यही वर्ग सेना मे सर्वाधिक था और विद्रोह में भी अग्रणी था लिहाजा उनको नीचा दिखाने और भूमिका से हमेशा के लिए अलग थलग कर देने के लिए यह किया गया।
अरविंद कुमार सिंह
7 अप्रैल 1965 को उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले में जन्मे अरविंद कुमार सिंह ने पत्रकारिता और लेखन की दुनिया में बड़ा नाम कमाया है। पत्रकारिता की शुरूआत 1983-84 में दैनिक जनसत्ता से। चौथी दुनिया, अमर उजाला, जनसत्ता एक्सप्रेस, इंडियन एक्सप्रेस (लखनऊ संस्करण) तथा दैनिक हरिभूमि में लंबे समय तक कार्य। आकाशवाणी, दूरदर्शन, लोकसभा टीवी और कई अन्य टीवी चैनलों पर नियमित विषय विशेषज्ञ । दिल्ली सरकार की प्रेस मान्यता समिति समेत कई समितियों के सदस्य भी रहे। विभिन्न विश्वविद्यालयों में अतिथि प्राध्यापक और परीक्षक।
'भारतीय डाक: सदियों का सफरनामा' पुस्तक हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू तथा कई भारतीय भाषाओं में एन.बी.टी. द्वारा प्रकाशित। पुस्तक का एक खंड एनसीईआरटी द्वारा आठवीं कक्षा के हिंदी पाठ्यक्रम में। हिंदी अकादमी द्वारा साहित्यकार सम्मान (पत्रकारिता), इफ्को हिंदी सेवी सम्मान-2008, विद्याभाष्कर पुरस्कार, गणेश शंकर विद्यार्थी स्मृति समाजोत्थान और रचनात्मक पत्रकारिता पुरस्कार समेत दर्जन भर पुरस्कारों से सम्मानित।
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