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कड़े फैसले के लिए तैयार रहे देश

कड़े फैसले के लिए तैयार रहे देश नई दिल्ली: मुद्रा और वित्तीय बाजारों में मचे घमासान के लिए यूरो संकट को जिम्मेदार बताते हुए वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने सख्ती के साफ संकेत दे दिए हैं। उनके मुताबिक यह स्थाई संकट नहीं है। ग्लोबल स्थितियों में सुधार के साथ ही घरेलू बाजार में भी स्थिरता आ जाएगी।

यह ग्लोबल अर्थव्यवस्था से जुड़े रहने का असर है। सरकार इस पर नजर रखे हुए है। मुखर्जी ने देश के आर्थिक हालात की तरफ ध्यान दिलाते हुए कहा कि अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए कठोर कदम उठाने होंगे।

राज्यसभा में वित्त विधेयक 2012 पर चर्चा का जवाब देते हुए मुखर्जी ने कहा कि इस मंदी से सिर्फ भारत ही प्रभावित नहीं हुआ है, बल्कि समूचा एशिया और ग्रीस समेत अन्य देश प्रभावित हैं। सरकार की निगाह इस अनिश्चितता भरे माहौल पर है। इसलिए घबराने की कोई जरूरत नहीं है।

अंतरराष्ट्रीय उठापटक से विकासशील अर्थव्यवस्था अछूती नहीं रह सकती है। उनके मुताबिक, अंतरराष्ट्रीय हालात कठिन हैं। एक के बाद दूसरे देश में आर्थिक संकट गहरा रहा है। ऐसे में हम बनावटी दुनिया में नहीं रह सकते। बुधवार को मुद्रा बाजार में रुपया अपने निम्नतम स्तर पर पहुंच गया।

प्रणब के जवाब के बाद सदन ने वित्त विधेयक 2012 और विनियोग विधेयक 2012 ध्वनिमत से पारित कर लोकसभा को लौटा दिया गया। लोकसभा इसे पहले ही पारित कर चुकी है। इसी के साथ आम बजट को मंजूरी देने की प्रक्रिया पूरी हो गई।

यूरो संकट और भारत पर उसके प्रभाव के बारे में वित्त मंत्री ने कहा कि वित्तीय समस्या से निपटने के लिए सरकार को कुछ 'अलोकप्रिय' कदम उठाने होंगे। जल्दी ही कुछ खर्चो में कटौती के उपाय किए जाएंगे। लोग इसे पसंद करें अथवा नहीं। इसके साथ ही उन्होंने यह भी जोड़ा कि इसमें हायतौबा वाली कोई बात नहीं है।

वैसे, बाद में वित्त मंत्री ने इस बात से इंकार किया कि सरकार खर्चो में कटौती को लेकर बहुत कुछ करने जा रही है। इसके पूर्व मुखर्जी ने सरकार के उठाए गए विभिन्न कदमों का जिक्र करते हुए कहा कि हम प्रत्यक्ष विदेशी निवेश चाहते हैं। लेकिन गठबंधन सरकार के होने के कारण फैसले लेने में देर होती है।

खाद्यान्न भंडारण और जूट की बोरियों की कमी का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि हम लगातार भंडारण क्षमता बढ़ाने पर जोर दे रहे हैं। घरेलू मांग बढ़ाने और ग्रामीण क्षेत्रों में बुनियादी ढांचा मजबूत करने पर जोर दिया गया है। मनरेगा का काफी लाभ दिख रहा है, लेकिन गड़बड़ियों की कई शिकायतें हैं।

कुछ राज्यों की ओर से उठ रही आर्थिक पैकेज देने की मांग पर वित्त मंत्री का कहना था कि किसी एक राज्य को पैकेज देने का कोई सवाल ही नहीं है। सरकार पश्चिम बंगाल, केरल और पंजाब के आर्थिक पैकेज की मांगों पर विचार करेगी।

लुढ़कते रुपये ने रुलाया

नई दिल्ली। अगर छुंिट्टयों में विदेश घूमने जाना चाहते हैं या बच्चा विदेश में पढ़ रहा है, तो अब ज्यादा खर्च करना होगा। डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत सरकार के साथ ही आम जनता की आर्थिक स्थिति भी डांवाडोल कर सकती है। यूरोप के संकट और घरेलू अर्थव्यवस्था की खराब हालत से एक डॉलर की कीमत 54.50 रुपये तक पहुंच गई है।

एक जनवरी, 2011 के बाद से अब तक डॉलर के मुकाबले रुपये 22 प्रतिशत कमजोर हो चुका है। ग्लोबल संकट का असर शेयर बाजार पर भी हुआ। बंबई शेयर बाजार का सेंसेक्स जनवरी के बाद पहली बार 16000 अंक से नीचे चला गया। इससे निवेशकों के 77 हजार करोड़ रुपये डूब गए।

यूरोप, खास तौर से ग्रीस में चुनाव के बावजूद सरकार बनने में हो रही देरी ने यूरोप के आर्थिक संकट को और बढ़ा दिया है। खबर है कि दो महीने के भीतर ही ग्रीस को दूसरे चुनाव का सामना करना पड़ सकता है। इसके चलते दुनिया भर के विदेशी निवेशकों ने अपने नुकसान की भरपाई करने के लिए भारत से अपना निवेश निकालना शुरू कर दिया है। रुपये की कीमत में गिरावट के लिए इसे एक प्रमुख वजह माना जा रहा है।

रुपये की इस गिरावट के बाद विदेश घूमने जाने वाले लोगों को अब विदेशी मुद्रा खरीदने के लिए पहले से ज्यादा भुगतान करना होगा। साथ ही विदेश में पढ़ाई कर रहे बच्चों का खर्च भी बढ़ जाएगा। कंपनियों के लिए विदेशी कर्ज जुटाना ही महंगा नहीं होगा, पहले से लिए गए कर्ज की अदायगी की राशि भी बढ़ जाएगी।

रुपये की गिरावट को रोकने में रिजर्व बैंक के कदम भी नाकाफी साबित हो रहे हैं। पिछले दिनों ही रिजर्व बैंक ने निर्यातकों को विदेशी मुद्रा आय का आधा रुपये में तब्दील करने संबंधी दिशानिर्देश जारी किए थे। आयात में हो रही वृद्धि के चलते डॉलर की मांग लगातार बढ़ रही है। रुपये की कीमत को रोकने में रिजर्व बैंक के विकल्प भी लगातार सीमित हो रहे हैं।

सितंबर, 2011 से लेकर मार्च, 2012 की अवधि में रिजर्व बैंक ने 20 अरब डॉलर मुद्रा बाजार में डाले हैं। इसके बावजूद रुपये की कीमत को गिरने से नहीं रोका जा सका है। रिजर्व बैंक का विदेशी मुद्रा भंडार भी कम हो रहा है।

यह 295.36 अरब डॉलर से घटकर 293.173 अरब डॉलर पर आ गया है। इसके चलते रिजर्व बैंक के सामने मुद्रा बाजार में हस्तक्षेप के विकल्प तो सीमित हो ही रहे हैं, आयात बिल चुकाने का संकट भी खड़ा हो गया है।

औद्योगिक उत्पादन में गिरावट, महंगाई में बढ़ोतरी से परेशान सरकार के लिए तेजी से बढ़ता आयात अप्रैल 2011 से ही चुनौती बना हुआ है। इसकी वजह से सरकार का चालू खाते का घाटा भी तेजी से बढ़ रहा है। निर्यात के बदले आयात अधिक होने से बीते वित्त वर्ष में यह सकल घरेलू उत्पाद [जीडीपी] का 4 प्रतिशत रहा। जबकि सामान्यत: इसे 2.6 प्रतिशत के आसपास रहना चाहिए।

विदेशी निवेशकों के निवेश निकालने के चलते सेंसेक्स इस साल जनवरी के बाद पहली बार 16000 अंक से नीचे आया। बाद में यह कुछ संभला और 16030.09 अंक पर बंद हुआ। आलम यह था कि दस में से छह शेयरों में गिरावट दर्ज हुई। मुद्रा बाजार में एक समय डॉलर के मुकाबले रुपया 54.56 के स्तर पर पहुंच गया था।

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