अंबेडकर को गांधी से महान बताती 'शूद्र- द राइजिंग'
जनता जनार्दन संवाददाता ,
Apr 13, 2012, 11:21 am IST
Keywords: Film Shudra The Rising Producer - Director Sanjeev Jaiswal Baba Bhim Rao Ambedkar Mahatma Gandhi character - Law Neglected Society Color Discrimination Racism फिल्म शूद्र- द राइजिंग निर्माता-निर्देशक संजीव जायसवाल बाबा भीम राव अंबेडकर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी वर्ण-व्यवस्था उपेक्षित समाज रंग भेद जातिवाद
नई दिल्ली: समाज में व्याप्त वर्ण-व्यवस्था की कुरीति और इस व्यवस्था से शूद्र को मुक्त कराने के लिए बाबा साहब भीमराव अंबेडकर के संघर्षो की कहानी बयां करने वाली फिल्म 'शूद्र- द राइजिंग' रुपहले पर्दे पर प्रदर्शित होने के लिए तैयार है।
फिल्म यह बताती है कि अंबेडकर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी से कुछ अर्थो में कितने महान थे। फिल्म 'शूद्र-द राइजिंग' के निर्माता-निर्देशक संजीव जायसवाल ने बताया कि आज से दो साल पूर्व अंबेडकर जयंती के दिन एक बुजुर्ग ने अंबेडकर के बारे में बताते हुए एक उपेक्षित समाज की करुण गाथा सुनाई कि इतिहास में कैसे एक समाज को अपने पैरों में घंटी पहननी पड़ती थी ताकि जब वह चले तो उसके बजने की आवाज से दूसरे लोगों को पता चल जाए कि वह कौन है। उन्होंने बताया कि शूद्र की करुण कहानी सुनकर उन्हे इस विषय पर फिल्म बनाने का विचार आया। उन्होंने इस विषय पर शोध किया कि जिसमें उन्होंने पाया कि अंबेडकर कितने महान व्यक्ति थे। फिल्म में बाबा साहब की उस दूरदशिर्ता को सलाम किया गया है जिसके चलते 64 साल बाद भी बनाया गया संविधान इतना कारगर है कि शायद आने वाले सैकड़ो वर्षो तक उसे बदलने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। फिल्म में यह दिखाने की कोशिश की गई है कि बाबा साहब ने कैसे एक कुरीति को दूर करने के लिए संघर्ष किया और कैसे एक पूरे समाज को फिर से जीने की राह दिखाई। वह क्यों इतने महान थे, यह आज की पीढ़ी को पता होना चाहिए। बाबा का कहना था की जो लोग इतिहास नहीं जानते वे कभी इतिहास नहीं बना सकते। इसलिए इतिहास सभी को पता होना चाहिए, ताकि आने वाले कल में वह भूल फिर से न दोहराई जा सके। जायसवाल कहते हैं कि इसलिए हमने अपनी आगामी फिल्म 'शूद्र- द राइजिंग' में उस इतिहास को, इंसानियत की उस पीड़ा को परदे पर उकेरने का प्रयास किया है। उनका मानना है कि आज की पीढ़ी बहुत संवेदनशील है यदि उसे सच का ज्ञान होगा तो शायद उसके मन में ऊंच-नीच, भेद-भाव, जाति-पाति की भावना घर नहीं कर सकेगी। वह कहते हैं कि हमारी यह फिल्म जातिवाद का विरोध करती है क्योंकिआज तक विश्व में जितने भी युद्ध हुए उन सबके पीछे कहीं न कहीं जाति भेद या रंग भेद ही मुख्य कारण थे। इस जातिवाद ने सिर्फ तबाही ही दी है दुनिया को। आज वही जातिवाद आतंकवाद का रूप लेकर सारी दुनिया को निगल जाने के लिए तैयार खड़ा है। जायसवाल का कहना है की यह विषय इतना गम्भीर था कि इस पर बिना इतिहास की जानकारी के कुछ भी कहना बहुत खतरनाक साबित हो सकता था, इसलिए उन्होंने सारा शोध पूरा करने के बाद प्राचीन काल में इतिहास के तथ्यों को उठा कर एक कथानक तैयार किया और तब जाकर इस फिल्म का निर्माण किया। इस विषय पर इससे पहले भी कई फिल्म बन चुकी हैं। 1946 में चेतन आनंद ने 'नीचा नगर' नाम से फिल्म बनाई थी जिसे अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव कांस में ग्रेंड पिक्स पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। हिंदी सिनेमा के नामी निर्देशक श्याम बेनेगल ने 'अंकुर' (1973) में एक समाज के साथ हो रहे भेदभाव का मार्मिक चित्रण किया था। इसके अलावा और कई निर्देशकों और कलाकारों ने भी इस विषय पर काम किया है, जिनमें से मुख्य हैं गोविंद निलहानी और दादामुनि अशोक कुमार। संजीव कहते हैं कि हमारी इस फिल्म का उद्देश्य किसी भी समुदाय, धर्म या व्यक्ति को ठेस पहुंचाना नही है बल्कि आज कि पीढ़ी को यह बताना है कि उसके अपने ही पूर्वजों द्वारा की गई एक गलती के परिणामस्वरूप एक पूरे समाज को किस हद तक पीड़ा झ्झेलनी पड़ी। यह फिल्म उनके मन से हमेशा के लिए जाति भेद-भाव खत्म करने के लिए महत्वपूर्ण हो सकती है। 'शुद्र-द राईजिंग' बाबा भीम राव अंबेडकर को एक सच्ची श्रद्धांजलि है और हमारे ही पूर्वजों द्वारा की गई एक गलती का प्रायश्चित है। यदि इस फिल्म से हम चंद लोगों की भावनाओं को भी बदल सकें तो हमारी यह कृति सफल हो जाएगी। |
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