
बिहार की इस जीत में भी हारी तो जनता ही
जय प्रकाश पाण्डेय ,
Nov 21, 2015, 5:36 am IST
Keywords: Bihar Assembly Election analysis in Hindi Bihar Assembly Election Nitish Kumar Bihar Politics Indian democracy नीतीश कुमार भारतीय राजनीति बिहार की राजनीति
![]() यह ठीक है कि बिहार विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी की करारी हार के बाद उसकी समीक्षा होनी चाहिए, न केवल पार्टी के स्तर पर बल्कि शीर्ष स्तर पर, राजनीतिक समीक्षकों, विश्लेषकों और पत्रकारों के बीच भी. ऐसा हो भी रहा है, पर अचरज यह है कि इन विचार-विमर्षों की दशा-दिशा स्पष्ट नहीं है. इनमें गंभीरता का अभाव है, जो लोकतंत्र और अच्छे, जवाबदेह शासन के लिए ठीक नहीं. सभी अपनी-अपनी समझ से व्याख्या में लगे हैं, पर बात सतही स्तर से उपर नहीं बढ़ पा रही. कुछ लोगों को लग रहा कि बिहार में नीतिश कुमार की सोशल इंजीनियरिंग ने कमाल दिखाया, तो कुछ को लग रहा कि उनकी सुशासन बाबू की छवि ने जीत दिलाई, कुछ इसे जातीय आधार पर हासिल जीत मान रहे हैं, तो कुछ को यह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के अब तक के शासनकाल पर जनता की राय लग रहा है. कुछ ने तो बाकायदा मोदी काल के अवसान की घोषणा भी कर दी, तो कइयों को इसमें राहुल गांधी का पुनरुत्थान और भाजपा के बुजुर्गों का अभ्युदय भी दिखने लगा है....पर यह सब सचाई के बेहद छोटे अंश भर हैं. न तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को इन नतीजों से कोई खास असर पड़ने वाला, न ही विपक्ष में कोई खास जान आने वाली. बिहार की जनता को अगले पांच साल अब वैसे ही जीना है, जैसे समूचा देश अभी भी मोदी जी को अगले पूरे साढ़े तीन साल झेलेगा. अफसोस यह कि जैसे नीतिश का कोई विकल्प नहीं मिला बिहार को, वैसे मोदी का विकल्प मिल पाएगा, कहना जरा मुश्किल है... मतलब साफ है, बिहार के जनादेश में जीता चाहे कोई हो, हारी जनता ही है, न कि भाजपा और मोदी. मोदी के पास अभी पूरा देश है. बिहार पहले भी उनके पास नहीं था. नीतिश ने अपना गढ़ बचा लिया, पर किस कीमत पर? इससे पहले वह लालू विरोध में भाजपा के साथ जीत रहे थे, इस बार भाजपा विरोध में लालू के साथ जीते...और लालू जी क्या हैं, मुझे लगता है, देश में हर कोई जानता है. इसलिए जो लोग भी देश के लिए, राज्य के लिए और उसके विकास के लिए सोचते हैं, उनके पास राहत की सांस लेने की कोई वजह अभी भी नहीं है. बिहार में अगर भाजपा गुट जीतता तो भी अपने विचार यही होते, शायद तब इससे भी उलट होते. अभी कम से कम राजनीतिक अध्येता के तौर पर यह संतोष है कि झूठ की बुनियाद पर हमेशा सियासी मैदान मारना संभव नहीं. हो सकता है इस हार से भाजपा, और अपनी इस अप्रत्याशित जीत से नीतिश कुमार कोई आत्म-मंथन करें और जनता का इससे कोई भला हो जाए. बिहार विधानसभा चुनावों में पार्टी की हार के बाद लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, यशवंत सिन्हा और शांता कुमार जैसे चार वरिष्ठ नेताओं ने बयान जारी कर पार्टी नेतृत्व पर सवाल उठाया और हार की समीक्षा करने को कहा. संघ के पुराने प्रचारक और कभी भाजपा के थिंक टैंक रहे के एन गोविंदाचार्य ने इस पर कहा कि वरिष्ठ नेताओं के मन में जो बात आई है, वो ठीक नहीं है. इससे पता चलता है कि परिवार में बड़ों को जो सम्मान मिलना चाहिए, वह नहीं मिल रहा है और परिवार में भावना की कमी है. गोविन्दाचार्य की बात सच है, पर आंशिक तौर पर ही. सचाई तो यही है कि न केवल भाजपा में, बल्कि देश के हर दल में विचारों और आंतरिक लोकतंत्र का अकाल है, और मतभिन्नता को 'हाईकमान' का विरोध करार देकर तानाशाह पूर्ण ढंग से, जिनके पास भी सत्ता और संगठन पर कब्जा करने की ताकत होती है, वह तब तक हाबी रहता है, जब तक समय की धारा उसे उखाड़ न फेंके. कल तक भाजपा के यही बुजुर्ग क्या अपनी मनमानी नहीं करते थे? याद कीजिए कल्याण सिंह, उमा भारती और खुद गोविन्दाचार्य का हाल. कांग्रेस, सपा, बसपा, जदयू, रालोपा, तृणमूल, द्रमुक, अन्नाद्रमुक, अकाली दल, बीजेडी, नेशनल कांफ्रेंस...कहीं से कोई नाम उठा लीजिए, चाहे कम्युनिस्टों का पोलित ब्यूरो ही क्यों न हो, कहां, आम जनता की, कार्यकर्ताओं की बात सुनी जाती है? जब पार्टी में ही लोकतंत्र नहीं, और चमचागिरी, चाटुकारिता, भाई-भतीजावाद की प्रधानता हो, और जिसकी लाठी उसकी भैंस की परंपरा कायम हो, तो जनता और कार्यकर्ताओं को कौन पूछे? और अगर कार्यकर्ता ही उपेक्षित हो, तो फिर आम जन का क्या, जो केवल पांच साल में किसी न किसी वाद, नारे, या चेहरे के बहकावे या भ्रम में पड़ कर केवल वोट के अधिकार का फर्ज, आधे-अधूरे मन से पूरा कर नेताओं को दोनों हाथों से राज्य व देश लूटने का मौका दे देता है. कोई दावे से बता सकता है क्या कि देश में नरेन्द्र मोदी के सत्ता संभालने के बाद से आम लोगों के जीवन में महंगाई का पहाड़ गिरने के और प्रधानमंत्री की कुर्सी पर एक लगभग न बोलने वाले व्यक्तित्व की जगह हर महीने रेडियो पर कथित रूप से 'मन की बात' रखने वाले बड़बोले चेहरे के अलावा ऐसा क्या बदल गया, जो उसे उसकी रोज की दिनचर्या में सुकून दे सके. भक्त जन कहते हैं विदेशों में भारत की अहमियत बढ़ी, कितनी, कहां और कैसे? अगर हम अपनी जमीन, देश और बाजार बेचने को तैयार हों, फिर ऐसा स्वागत और सम्मान क्यों नहीं मिलेगा? हमें भूलना नहीं चाहिए कि मुगलिया सल्तनत के सबसे कमजोर बादशाह को भी अंगरेजों ने समूचे भारत पर कब्जा नहीं कर लिया था, शहंशाह आलम ही कहते रहे. इसी तरह कोई भी अब यह दावा नहीं कर सकता कि आम बिहारी की जिन्दगी में वाकई कौन सा चमत्कार होने जा रहा है. एक उदाहरण देता हूं, जिससे कांग्रेस, भाजपा और कथित सुशासन बाबू यानी नीतिश कुमार की कार्यपद्धति को समझने में मदद मिलेगी. देश को जब आजादी मिली, तो विदेशी समाचार एजेंसियों और अखबारों की बजाय देश के समाचार माध्यमों और अखबारों को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने समाचार-पत्रों को कई स्तर पर छूट और विज्ञापन की समान पारदर्शी नीति बनाई. धीरे-धीरे भ्रष्टाचार के चलते और बाद में नेताओं द्वारा मीडिया घरानों पर कब्जा करने की नीति के चलते, सही दिशा में काम करने वाले मीडिया समूह खत्म होने लगे और या तो बड़े घराने बचे, या फिर दलाल टाइप के घराने. दौर बदला, और सूचना विस्फोट के दौर में जब इंटरनेट ने जगह बनानी शुरू की तो कायदे से देश में स्थानीय, छोटे और मझोले लोगों की मदद की जानी चाहिए थी, ताकि तरह-तरह के विचार, सूचनाएं और प्रचार जन-जन तक पहुंचें, पर हुआ इसका ठीक उलटा. यही बिहार, जहां सुशासन बाबू ने सबसे लंबे समय तक शासन चलाने का इतिहास रचा, में साल 2008 में ही नए मीडिया पर विज्ञापन जारी करने की नीति बना ली गई थी, पर 2015 तक इस दिशा में कोई काम नहीं हुआ. बिहार से लेकर दिल्ली तक, छोटे और मझोले इंटरनेट वेबसाइटों के विज्ञापन मांगने वाले आवेदन रद्दी में चले जाते हैं, और अफसर अपने सियासी आकाओं के चहेते बड़े और विदेशी घरानों को विज्ञापन जारी कर खुश करने में लगे रहते हैं. मोदी जी की अगुआई वाली केंद्र सरकार का हाल इससे अलग नहीं है. कहने के लिए यहां भी 2011 में न्यू मीडिया के लिए केवल तीन महीनों के लिए एक पायलट पोलिसी बनाई गई थी, और छोटे समूहों से विचार मांगे गए थे.... पर पचास महीने बाद भी, जिसमें भाजपा के भी 18 महीने शामिल हैं, कुछ भी नहीं हुआ. जबकि बड़े और विदेशी घरानों को करोड़ों के विज्ञापन रोज जारी किए जा रहे हैं. हालांकि आम जनता का समाचार माध्यमों के विज्ञापनों से सीधे तौर पर कुछ खास लेना-लादना नहीं है, पर इन्हीं समूहों और माध्यमों से जनमत बनता है, सूचनाएं और विचार यहां से वहां तक साझा होते हैं. अगर बड़े और विदेशी समूहों के बूते ही सब कुछ होता, तो बिहार में भाजपा हारती क्या? नीतिश जीतते क्या? मतलब साफ है, लोकतंत्र, कम से कम भारतीय लोकतंत्र में, वर्तमान में जो हालात हैं, उसमें किसी भी कुर्सी पर, किसी की भी हार-जीत से सिर्फ चेहरे भर बदलने हैं, व्यवस्था नहीं. और जब तक ऐसा है, किसी भी नतीजे से इतराइए मत. इंतजार कीजिए, आम जनता का जीवन कब बदलेगा!
जय प्रकाश पाण्डेय
![]() |
क्या विजातीय प्रेम विवाहों को लेकर टीवी पर तमाशा बनाना उचित है? |
|
हां
|
|
नहीं
|
|
बताना मुश्किल
|
|
|