
इनका वश चले तो हवा ही रोक दें
जय प्रकाश पाण्डेय ,
Oct 13, 2015, 5:10 am IST
Keywords: Freedom of Speech Indian government PM Narendra Modi Social media Hindi article एन्क्रिप्शन नीति अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नेट न्युट्रलिटी
![]() हकीकत यह है कि कानून की नजर में बड़े से बड़े अपराधी का दोष जानने के लिए पुलिस और सतर्कता एजेंसियों द्वारा पूछताछ के लिए उपयोग में लाया जाने वाला 'लाई डिटेक्टर टेस्ट' भी बिना अदालत की अनुमति और उस व्यक्ति की मर्जी और स्वीकृति के नहीं किया जा सकता. फिर इस सरकार द्वारा बनाए गए इस तथाकथित 'एन्क्रिप्शन नीति' के मसौदे में आम आदमी की आजादी पर पाबंदी लगाने वाली तमाम तानाशाही बातें क्यों डाली गईं? किसके कहने पर डालीं गईं, और जो इस हद तक गलत थीं कि इन्हें जारी करने के तुरंत बाद वापस लेना पड़ा, तो ड्राफ्ट कमेटी की ऐसी मानसिकता वाले कर्मचारियों के खिलाफ क्या काररवाई की गई? हुआ यह था कि इस सरकार ने तथाकथित 'एन्क्रिप्शन नीति' का मसौदा जारी कर लोगों से उस पर राय मांगी थी. लोग, मतलब, आम लोग नहीं, क्योंकि उन बेचारों को तो पता ही नहीं होता कि सरकारें रोज क्या-क्या, कहां -कहां जारी करती रहती हैं. इस देश का बेचारा आम आदमी तो यह जानता भी नहीं कि सरकार की कौन सी एजेंसी इंटरनेट के किस मीडियम का, वेब साइट का, कहां इस्तेमाल करती है. जो थोड़े जानकार हैं उनके लिए इंटरनेट का मतलब फेसबुक, गूगल, याहू और ट्वीटर है, और मजे की बात यह की ये सारी अमेरिकी एजेंसियां हैं, और भारत और भारतीयता की दुहाई देने वाले अपने प्रधानमंत्री का इन कंपनियों से विशेष लगाव है. बहरहाल 'एन्क्रिप्शन नीति' के इस मसौदे में आम आदमियों, व्यावसायिक इकाइयों, दूरसंचार परिचालकों और इंटरनेट कंपनियों को डिजिटल फोरम पर लिखित हर तरह के संदेश को, चाहे वह ई-मेल में हो, ह्वाट्स एप, फेसबुक, ट्वीटर या फिर किसी भी चैटिंग, या मैसेज बाक्स में हो, उसी रूप में 90 दिन तक सुरक्षित रखने का प्रावधान किया गया था. मसौदे में यह भी कहा गया था कि संदेश पाने और भेजने वाले, दोनों की यह जिम्मेदारी है कि वे इसे सुरक्षित रखें और कानून-व्यवस्था से जुड़ी एजंसियां जब भी इन्हें दिखाने को कहें, उन्हें यह मुहैया कराएं. इलेक्ट्रानिक्स एवं सूचना प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा वेबसाइट पर जारी मसौदे का अर्थ था कि भारत में व्यक्तिगत ई-मेल, संदेश या यहां तक कि आंकड़े सहित कंप्यूटर सर्वर में जमा कूटलेखन सहित हर तरह की सूचनाएं सरकार की पहुंच में होंगी. मूल मसौदे के मुताबिक नई एन्क्रिप्शन नीति में प्रस्ताव किया गया था कि उपयोग करने वाला जो भी संदेश भेजता है, चाहे वह वाट्सएप के जरिए हो या एसएमएस, ई-मेल या किसी अन्य सेवा के जरिए- इसे 90 दिन तक मूल रूप में रखना होगा और सुरक्षा एजेंसियों के मांगने पर इसे उपलब्ध कराना अनिवार्य होगा. ऐसा नहीं करने पर कानूनी काररवाई होगी. जनता के कड़े विरोध के बाद आखिरकार सरकार को 'एनक्रिप्शन नीति' का विवादास्पद मसौदा वापस लेना पड़ा, पर इससे खतरा पूरी तरह टल गया है, यह कहा नहीं जा सकता. कारण दूरसंचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री रविशंकर प्रसाद ने संवाददाताओं से साफ -साफ कहा कि अब नया मसौदा जारी किया जाएगा. पिछले मसौदे की जिन बातों से संदेह पैदा हुआ है, उन्हें ठीक कर फिर से आम जनता के समक्ष रखा जाएगा. प्रसाद पेशे से वकील हैं. वह घुमा-फिरा बातें करना जानते हैं. उन्होंने यह नहीं बताया कि मसौदे में यह अलोकतांत्रिक शर्त आई ही क्यों? और अगर आई तो ऐसी बातें जनता के सामने लाने से पहले उसकी छानबीन क्यों नहीं की गई? फिर किसकी अनुमति से उसे पब्लिक डोमेन पर जनता की राय मांगने के लिए डाला गया? यही नहीं, इस 'एन्क्रिप्शन नीति' के जिस मसौदे को निजता पर हमले की आशंका वाला माना गया, उस को ड्राफ्ट करने वाले सदस्य के खिलाफ क्या काररवाई की गई. वैसे तो सरकार ने एक दिन बाद ही एक नए परिशिष्ट के जरिए यह साफ किया था कि वाट्सएप, फेसबुक और ट्विटर, भुगतान गेटवे, ई-वाणिज्य और पासवर्ड आधारित लेन-देन को इससे अलग रखा गया है. पर जनता की नाराजगी को देखते हुए कुछ घंटे बाद इसे पूरी तरह से वापस कर लिया गया. प्रसाद का कहना था कि यह मसौदा सरकार की अंतिम राय नहीं है और इसे जनता से टिप्पणी और सुझाव के लिए सार्वजनिक किया गया था. उन्होंने कहा- 'मैं बिल्कुल साफ करना चाहता हूं कि यह सिर्फ मसौदा है न कि सरकार की राय. लेकिन मैंने कुछ प्रबुद्ध वर्गों द्वारा जाहिर चिंता पर गौर किया. मैंने व्यक्तिगत तौर पर देखा कि मसौदे की कुछ बातों से बेवजह संदेह पैदा हो रहा है. प्रसाद ने आगे कहा-' इसलिए मैंने इलेक्ट्रानिक्स एवं सूचना प्रौद्योगिकी विभाग को मसौदा वापस लेने और इस पर उचित तरीके से विचार कर फिर से इसे सार्वजनिक करने के लिए पत्र लिखा है. उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि जो एन्क्रिप्शन नीति बनाई जाएगी, उसके दायरे में उपयोग करने वाले आम आदमी नहीं आएंगे, जो नया मसौदा जारी किया जाएगा उसमें यह स्पष्ट होगा कि कौन सी सेवाएं और उपयोग करने वाले इसके दायरे में आएंगे या किन्हें छूट मिलेगी. इस फैसले के बचाव में प्रसाद का तर्क था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सरकार ने सोशल मीडिया सक्रियता को बढ़ावा दिया है. अभिव्यक्ति और स्वतंत्रता के अधिकार का हम पूरा सम्मान करते हैं. साथ ही हमें यह भी स्वीकार करने की जरूरत है कि लोगों, कंपनियों, सरकार और कारोबारियों के बीच सायबर क्षेत्र में आदान-प्रदान काफी तेजी से बढ़ रहा है, इसीलिए एन्क्रिप्शन नीति की जरूरत है और यह उन पर लागू होगी जो विभिन्न वजहों से संदेशों की एन्क्रिप्टिंग में शामिल हैं. पर महाराज, अगर यही सच है तो गुजरात में हार्दिक पटेल की गिरफ्तारी के दौरान पूरे राज्य में इंटरनेट सेवाएं क्यों बंद कर दी जा रहीं? क्यों नहीं समाचारों की फिल्ड में काम कर रही भारतीय वेब साइटों को बढ़ावा दिया जा रहा? बैंक ऐसे वेब साइट संचालकों को लोन क्यों नहीं देते, और भारत सरकार के पास अब तक ऐसी वेब साइटों पर विज्ञापन के लिए नीति क्यों नहीं है? यह सरकार देश की रक्षा के नाम पर कश्मीर में जब-तब इंटरनेट सेवाएं बंद करती ही रही है. सरकार तो सरकार, समाज का एक कट्टरपंथी तबका जब तब आधुनिकता, ज्ञान और संचार माध्यमों का विरोध करता ही रहता है. नवंबर 2014 अपने तालिबानी फरमान के चलते अकसर चर्चा में रहने वाली खाप पंचायत ने एक और बेतुका बयान जारी किया था. खाप पंचायत ने कहा था कि वह 18 साल से कम उम्र के युवाओं के व्हाट्सएप और फेसबुक का इस्तेमाल करने पर रोक लगाना चाहती है. खाप नेता नरेश टिकैत का कहना था कि टेक्नॉलाजी का नाबालिग युवा गलत प्रयोग कर रहे हैं, जिससे उनकी शिक्षा पर गलत असर पड़ रहा है. भारतीय किसान यूनियन के एक नेता राहुल अहलावत का कहना था कि 18 साल से कम उम्र के युवाओं पर मोबाईल फोन का प्रयोग करने का प्रतिबंध लगना चाहिए.ये युवा सोशल नेटवर्किंग का इस्तेमाल अश्लील फोटो देखने के लिए करते हैं. एक अन्य नेता नरेंद्र पुंढीर का कहना था कि व्हाट्स एप और फेसबुक पर रोक लगनी चाहिए. यह विदेशी संस्कृति को बढ़ावा दे रही है और हम इसके खिलाफ हैं. समझना कोई मुश्किल नहीं कि एक तरफ कारोबारी हितों के चलते जय अमेरिका, जय फेसबुक, जय जुकरबर्ग का नारा अलापा जा रहा है, तो दूसरी तरफ देश के जनमानस को तंग करने और उसकी जीवन शैली, शौक और विचारों की आजादी पर पाबंदी लगाने जैसी चालें चली जा रही हैं. कहना मुश्किल नहीं कि इस मामले में खाप और सरकारों में कोई खास अंतर नहीं, फर्क सिर्फ इतना है कि इनके तरीके अलग-अलग हैं. ऐसे में हम यह क्यों नहीं मानें कि कहीं 'नेट न्युट्रलिटी' और 'एन्क्रिप्शन नीति' जैसे मामले केवल इस बात के ट्रेलर और जोर आजमाइश भर हैं, कि जनता क्या सोच रही, क्या कह रही? अगर ऐसा है, तो फिर असली पिक्चर अभी बाकी होगी मेरे दोस्त, और उसके लिए अभी से तैयार रहना होगा.
जय प्रकाश पाण्डेय
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