
सेना की जांबाजी, नेताओं के खाते क्यों?
जय प्रकाश पाण्डेय ,
Jun 20, 2015, 2:34 am IST
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![]() इस बीच म्यांमार सीमा पर सेना के काफिले पर हुए हमले की घटना पर जबाबी काररवाई करने में विलंब हुआ, इसलिए नहीं कि सेना किसी बहुत बड़े अभियान पर थी और उसे म्यांमार के भीतर घुसकर दुश्मन को खत्म करने के लिए वक्त चाहिए था, बल्कि इसलिए कि यह सामरिक काररवाई देश की सीमा पर होनी थी, और उसके लिए प्रधानमंत्री को सूचना देना और उनकी अनुमति लेना जरूरी थी. इसलिए भी कि अगर कोई विपरीत स्थिति आ जाए तो कूटनीतिक चैनल का इस्तेमाल कर उसका नतीजा निकाला जा सके. इसलिए भी कि सेना को कम से कम नुकसान कर जवाबी काररवाई की तैयारियों के लिए वक्त चाहिए था, और इसलिए भी कि हमले के अगले दिन ही गृह मंत्री राजनाथ सिंह की अध्यक्षता में हुई उच्चस्तरीय बैठक में यह तय कर लिया गया था कि हमें हर हाल में देश विरोधी ताकतों को मुंहतोड़ जवाब देना है, वह भी बिना अपना नुकसान किए. और ऐसा हुआ भी. 9 जून को सेना ने एक बेहतरीन सैन्य शैली को अंजाम देते हुए छापामार ढंग से दुश्मन के घर के भीतर घुसकर जवाबी काररवाई को अंजाम दिया, और कम से कम दुश्मनों के दो ठिकानों को नष्ट कर दिया. इसके लिए समूचा देश अपने सैन्य बलों पर गर्व करता है. पर सेना अपनी इस काररवाई की ठीक से समीक्षा भी नहीं कर पाई थी कि वहां उसने कितने आतंकवादियों को मारा, उसकी इस काररवाई से दुश्मन कितना कमजोर हुआ, या कि उसे अभी इस तरह के और कितने अभियान करने की जरूरत पड़ सकती है कि मीडिया और नेता इसे ले उड़े. टीवी चैनलों और सोशल मीडिया में इस तरह का उन्माद परोसा जाने लगा, जैसे हम दिग्विजयी हो गए हों? जैसे कि हमने पाकिस्तान के भीतर के आतंकी ठिकानों को खत्म कर दिया हो, या फिर हमने चीन के कब्जे वाली अपनी जमीन को वापस ले लिया हो! अफसोस इस बात का है कि मेरे तमाम वरिष्ठ पत्रकार साथी भी इस उन्माद का हिस्सा बने रहे, बिना यह सोचे -समझे कि इस तरह के उन्माद का कितना नुकसान सेना की भविष्य की रणनीतियों पर और अंततः देश हित पर पड़ेगा. यह सर्वविदित है कि म्यांमार की वर्तमान सरकार से भारत के मधुर रिश्ते हैं, और हमारे यहां का यह उन्माद म्यांमार की हमारी मित्र सरकार की संप्रभु इमेज को न केवल नुकसान पहुंचाएगा, बल्कि भविष्य में ऐसी स्थितियां आने पर न केवल म्यांमार को बल्कि हमारे दूसरे पड़ोसी देशों को भी हम पर भरोसा करने से रोकेगा. सैन्य काररवाई को छोड़ दें, तो इस अभियान से जुड़ी सारी गतिविधियां कूटनीतिक और राजनीतिक थीं, जिन पर शुरुआत में तो हर कदम फूंक -फूंक कर रखे गए, पर उसके बाद के हालात को संभाला नहीं गया.. यही नहीं, तब तक इस काररवाई से जुड़े ढेरों सवाल ऐसे थे, जिनका उत्तर ढूंढने में खुद हमारा सैन्य नेतृत्व और बड़े हुक्मरान लगे थे, पर क्रेडिट लेने की होड़ ने सब गुड़-गोबर कर दिया. नतीजा लेख लिखे जाने की तारीख तक किसी के पास इन सवालों के जवाब नहीं हैं कि सेना की इस काररवाई से पूर्वोत्तर सीमा क्षेत्र के आतंकवादियों को कितना सबक मिला? इस हमले की काउंटर रणनीति पर हमारा स्टैंड क्या है? हमने उस इलाके में सैन्य बलों और आम जनों की सुरक्षा के लिए क्या-क्या योजनाएं बनाईं हैं, बनाईं भी हैं या नहीं? दुशमन जवाबी हमला करने की स्थिति में है या नहीं? या फिर भारतीय सेना को इस तरह के और हमले करने हैं या नहीं? फिर इस इलाके में दुश्मन आखिर कितना ताकतवर है, और उसकी पैठ कितनी गहराई तक हमारे अपने या पड़ोसी मुल्क में है? वह केवल पूर्वोत्तर या म्यांमार के जंगलों में छिपा है या उसके तार शहरी सियासी हलकों में भी हैं? इसी तरह सवाल तो यह भी है कि यह काररवाई म्यांमार की सीमा के भीतर हुई, या म्यांमार से लगती सीमा पर? इसके लिए म्यांमार सरकार से अनुमति ली गई थी या नहीं? अगर ली गई थी तो किस स्तर पर, मतलब सैन्य स्तर पर या सियासी स्तर पर? आखिर क्या वजह है कि अब आतंकवादी गुट और म्यांमार सरकार दोनों ही इस बात से मुकर रहे हैं कि हमला म्यांमार सीमा के भीतर हुआ था. ये सारे ऐसे सवाल हैं, जिन पर विचार किए बिना बोलना देश के लिए काफी नाजुक और उलटा पड़ता, और यही हुआ भी. पहले भारत के सूचना और प्रसारण राज्यमंत्री राज्यवर्धन सिंह राठौड़ ने कहा कि म्यांमार में की गई भारतीय सेना की काररवाई पाकिस्तान समेत उन दूसरे देशों को एक संदेश है, जहां भारत विरोधी चरमपंथी बसते हैं. बाद में उनके ही सुर में थोड़ा तर्जुमा बदलकर दूसरे केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावेड़कर और रक्षामंत्री मनोहर परिक्कर भी कूद पड़े. जवाब पाकिस्तान से पहले म्यांमार से आ गया. म्यांमार सरकार ने साफ-साफ कह दिया कि जो हुआ है, वह भारत की सीमा के भीतर ही हुआ है. उसकी सीमा में कोई सैन्य काररवाई नहीं की गई. अब आप अपनी उर्जा इस अभियान में सेना के साहस पर चर्चा करने और अपने सैनिकों का मनोबल बढ़ाने की बजाए कूटनीतिक चालबाजियों का जवाब देने में लगाइए. पाकिस्तान पहले से ही भारत से खार खाए बैठा है. चीन के साथ भारत के विरोध के बावजूद आर्थिक कॉरीडोर पर समझौता करने के बाद से उसका दिमाग सातवें आसमान पर है. सीमा पर भी आएदिन गोलीबारी करते रहना उसका शगल बन गया है. इसीलिए उसका जवाबी कूटनीतिक लहजा भी काफी कड़ा था. उसके नेताओं और विधायिका ने एक स्वर में कह दिया कि भारत पाकिस्तान को म्यांमार समझने की भूल न करे, और याद रखे कि हम परमाणु हथियार संपन्न ताकत हैं. अब दीजिए जवाब. यह ठीक है कि म्यांमार सीमा पर उचित सैनिक काररवाई हुई, और सरकार की सम्मति से हुई, इसमें किस को शक होगा. पर बिना सेना द्वारा कोई सूची जारी किए यह दावा करना कि सौ की तादाद में आतंकवादी मारे गए, उनकी फोटुएं जारी करना कि ये हैं मारे गए आतंकवादी, तो भाई, जो मारे गए उनमें प्रमुख नाम कौन-से हैं, यह भी तो आधिकारिक तौर पर सामने आना चाहिए था. यही नहीं यह दावा करना कि पहली बार भारत ने विदेशी जमीन पर सैन्य काररवाई की, साफ झूठ बोलना है. बंगलादेश के गठन में भारत की भूमिका समूची दुनिया को मालूम है, पर उसी दशक में भारतीय सेना श्रीलंकाई प्रधानमंत्री के आमंत्रण पर पीपुल्स लिबरेशन फ़्रंट के विद्रोह को दबाने भी श्रीलंका गई थी. सैकड़ों भारतीय जवानों ने जेवीपी विद्रोहियों को साफ करने में बहुत शानदार भूमिका निभाई थी. लेकिन यह पूरा अभियान बिना किसी बड़ी योजना या प्रचार के अंजाम दिया गया और जैसे ही स्थिति काबू में आई, भारतीय सेना लौट आई. इसी तरह साल 1983 में भारतीय ख़ुफ़िया एजेंसी रॉ को मॉरिशस के तत्कालीन प्रधानमंत्री की मदद के लिए लगाया गया, जिन्हें उग्र राजनीतिक विरोधियों से कड़ी चुनौती मिल रही थी .साल 1986 में भारतीय नौ सेना ने सेशेल्स की सरकार को बचाने और भाड़े के सैनिकों की तख़्तापलट की कोशिशों को विफल करने के लिए भी एक अभियान चलाया था, और इसके दो साल बाद ही 1988 में भारतीय विशेष सुरक्षा कमांडोज़ ने मालदीव में तख़्तापलट की कोशिश को विफल कर दिया था, जिसमें भारतीय सेना के तीनों अंगों ने भाग लिया था. बाद के सालों में श्रीलंकाई तमिल विद्रोही संगठनों के सफ़ाया अभियान की कीमत भी हमने चुकाई थी, पर वह भी सैन्य अभियान तो था ही, वह भी विदेशी धरती पर. मतलब साफ है. सैन्य और सुरक्षा गतिविधियों को ओछी सियासी हरकतों से दूर रखना चाहिए. म्यांमार सीमा पर काररवाई सेना ने की, पर राजनेताओं का श्रेय लेना, उनका बड़बोलापन और प्रचार-यश-प्रार्थी होना, पड़ोस के अन्य देशों को हड़काना कितना वाजिब है? अगर यही अंदाज रहा तो अच्छे दिन हासिल न होने पर, या किसी चुनाव में हार की आहट पर, डर नहीं कि कहीं सचमुच युद्ध का बिगुल न बज जाए. चुनावों में जीत के लिए उन्मादी विस्फोट का यह आजमाया हुआ फार्मूला पहले भी कारगिल युद्ध के दौरान आजमाया जा चुका है. पाकिस्तान की पूरी राजनीति ही घोषित तौर पर भारत विरोध पर टिकी है. ऐसे माहौल में जब गरीबी, महंगाई, सुरक्षा, बेरोजगारी अपने शबाब पर हैं और तरक्की और पिछड़ेपन के बीच की खाईं लगातार बढ़ती जा रही है, तब इन बुनियादी मसलों के निदान की जगह उन्माद का माहौल बनाना कहां तक जायज है. इस पर नेताओं के साथ-साथ मीडिया को भी सोचना चाहिए और जागरूक नागरिकों को भी.
जय प्रकाश पाण्डेय
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क्या विजातीय प्रेम विवाहों को लेकर टीवी पर तमाशा बनाना उचित है? |
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